
साईं बाबा से शुरुआत क्यों?
कई सारे मित्र सुबह-सुबह किसी देवी-देवता, तीर्थस्थान, किसी धर्म गुरु या अवतार का फोटो ग्रुप में डालकर या उनकी वंदना करके अन्य मित्रों को शुभकामना सन्देश भेजते हैं. कई दिनों से सोच रहा था कि इसको देखकर मेरे मन में जो भी भाव उठते हैं, उसको मित्रों के साथ साझा करूं.
मेरी समझ से धर्म और ईश्वर की जो अवधारणा हमारे परिवार और समाज ने हमें सिखा रखा है, वो एक ऐसा झूठ है जो हम लोग पीढ़ियों से ढोते आ रहे हैं और वंश-परंपरा में उसे अपनी संततियों को उनके जन्म से ही पारिवारिक धरोहर और संस्कृति के रूप में ढोते रहने के लिए प्रेरित करते रहे हैं. छोटी उम्र से ही हम जिस धर्म और ईश्वर के नाम के झूठ की घुट्टी पीते रहते हैं, वह हमारे मन में इस तरह रच-बस जाता है कि सामान्यतः इसकी ओर हम कभी भी शंका की नज़र से नहीं देख पाते. लेकिन अगर अपनी बुद्धि और निर्लिप्त भाव से सोचने-समझने की शक्ति पर पड़े संस्कार के ताले को हटाकर देखा जाए तो यह बिना किसी भ्रम के स्पष्ट हो उठता है कि धर्म और ईश्वर, कम से कम जिस रूप में हमें उसे बताया-समझाया गया है, एक झूठ और केवल झूठ है और झूठ के अलावा और कुछ भी नहीं है.
मैं एक-एक करके सभी तथाकथित धर्म और देवी-देवताओं पर बात करना चाहूँगा लेकिन आज का विचार श्रीमान साईं बाबा के नाम करता हूं. ऐसा इसलिए कि आज सुबह-सुबह कई मित्रों ने इन महाशय की न केवल तस्वीर भेजी बल्कि आज का दिन, गुरुवार या बृहस्पतिवार को इनके नाम समर्पित करने के लिए प्रेरित किया. वैसे भी आजकल इनके नाम की दुकानें काफी बढ़िया कमाई कर रही हैं.
मुझे लगता है कि साईं बाबा एक निकम्मे और कामचोर व्यक्ति थे जिन्हें गांजा पीने और अन्य बुरी लतों के कारण अपने घर से निकाल दिया गया था और ये भटकते, भीख मांगते शिरडी आ पहुंचे थे| शिरडी में इन्हें कुछ अन्य गंजेड़ियों ने सहारा दिया ताकि उनलोगों को अपने घर से बाहर गांजा पीने का माहौल ढूँढने में आसानी हो. इन लोगों ने इनकी प्रतिष्ठा कायम करने के लिए और धनादि की व्यवस्था के लिए इनके चमत्कारों की झूठी कहानियां फैलाई ताकि लोग इस गंज़ेड़ी और उनकी सोहबत में रहने वालों को हिकारत की नज़र से नहीं देखें और और इनके लिए भोजन-पानी की व्यवस्था बिना कोई काम किये होती रहे. वैसे अगर अभी भी कोई व्यक्ति किसी धार्मिक या दैविक चमत्कार में विश्वास, आस्था या श्रद्धा रखता है तो मेरी नज़र में वह अभी तक जाहिल-मूर्ख और अविवेकी है. धर्म, ईश्वर और चमत्कार के नाम पर अभिभूत और परलोक की चिंता और भय से ग्रस्त समाज ने इस अकर्मण्य गंजेड़ी को भगवान की जगह बिठा दिया. जाहिर है कि इससे कई लोगों की आर्थिक और सामजिक समस्याओं का समाधान हो गया और इसलिए इन लोगों ने इस शख्स को भगवान बना देने में ही अपना हित देखा. शराब-गांजे के नशे में कई बार अनपढ़ों, जाहिलों के मुंह से भी ऐसी बातें निकल आती हैं जो बड़ी गूढ़ और दार्शनिक प्रतीत होती हैं. मेरा अनुमान है कि गांजे के नशे में साईं बाबा ने कभी श्रद्धा और सबुरी जैसा कुछ कह दिया होगा जिसे उनके गुर्गों ने सराहा होगा और उसे अपना तकियाकलाम की तरह उपयोग करने की सलाह दी होगी. वैसे भी श्रद्धा और आस्था रखने की सलाह ठगी करने वाले सभी दुकानदारों के प्रिय हथियार रहे हैं और आज भी हैं|
मेरी सलाह है कि अगर कोई आपको श्रद्धा करने या आस्था रखने की सलाह देता है तो पहले से सचेत हो जाइए कि वो आपकी लेनेवाला है. इस हथियार के माध्यम से लिए जाने की खासियत यह होती है कि जिसकी ली जाती है उसे अपनी लिवाते जाने में बड़ा मजा आता है. अपनी लिवाते जाने में जिनको मजा आता है उन्हें क्या कहते हैं ये आप सभी जानते ही हैं. खैर, साईं बाबा पर वापस आते हैं. आज के समय में इसके नाम से खोली जाने वाली दुकानों में केवल एक बार ईंट-सीमेंट, मूर्ति-पत्थर, रंग-रोगन आदि का खर्च करना होता है और ये दुकान किसी भी व्यावसायिक प्रतिष्ठान की तुलना में लागत पर मिलने वाले लाभ के हिसाब से एक बहुत ही अच्छा धंधा साबित होता है. लेकिन क्या हमारा मानव समाज इस तरह की झूठ की बुनियाद पर खड़े व्यापर के माध्यम से सही दिशा में बढ़ सकेगा और प्रगति कर पाएगा? क्या कहते हैं आपलोग?
ये लेखक के निजी विचार हैं.
मिथिलेश झा
लेखक वरिष्ठ स्तंभकार हैं.
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