भारतीय ज्ञानपीठ का सम्मानित पुरस्कार श्री अमिताभ घोष को मिला है। वे अंग्रेज़ी के कथाकार हैं। उन्हें अपने अंग्रेज़ी लेखन के लिए सह पुरस्कार दिया गया है। हमारी बहस अमिताभ घोष की साहित्यिक गुणवत्ता पर नहीं है क्योंकि उसके पैमाने अलग-अलग हो सकते हैं। लेकिन अंग्रेज़ी लेखन के लिए पुरस्कार देकर ज्ञानपीठ ने भारतीय भाषाओं के प्रति अपनी वचनबद्धता का अतिक्रमण किया है, यह चिंता की बात है।
अंग्रेज़ी न भारतीय भाषा है, न भारत के किसी प्रदेश में लोगों के व्यवहार की सामान्य भाषा है। वह केवल अभिजात वर्ग के समूह की संपर्क भाषा है। भाषा के माध्यम से हम एक संस्कृति का वरण, रक्षण और प्रोत्साहन करते हैं। अब तक ज्ञानपीठ ने विभिन्न भारतीय भाषाओं के श्रेष्ठ लेखन को पुरस्कृत करके उच्च साहित्यिक संस्कृति के निर्माण में उल्लेखनीय योगदान किया है। बीच-बीच में कुछ अपवादों को छोड़कर। किंतु अंग्रेज़ी लेखन को पुरस्कृत करने का निर्णय उसकी अब तक अर्जित प्रतिष्ठा के विपरीत तो है ही, यह भारत की भाषा नीति में एक ग़ैर-जनतांत्रिक और कुलीनतावादी मोड़ भी है।
उदारीकरण ने शिक्षा संस्थाओं में और उच्च रोज़गार में भारतीय भाषाओं की स्थिति कमजोर की है। साहित्य इस विडंबना से काफी कुछ बचा हुआ था। ज्ञानपीठ ने इस निर्णय के द्वारा अंग्रेज़ी के वर्चस्व को औचित्य प्रदान करने की भूमिका अदा की है।
भारत के पूँजीवादी प्रतिष्ठान शुरू से ही भारतीय भाषाओं पर अंग्रेज़ी की वरीयता क़ायम रखने के हिमायती रहे हैं। इन प्रतिष्ठानों में सबसे पहले राजनीति है, उसके साथ ही यहाँ के बड़े औद्योगिक संस्थान हैं। राजभाषा के निर्णय से लेकर संसद-न्यायपालिका-प्रशासन तक अंग्रेज़ी के सामने भारतीय भाषाओं को दूसरे दर्जे पर रखने की नीति आज़ादी के बाद से अब बराबर क़ायम रही है। बिडला, टाटा, साहू जैन और डालमिया इस अंग्रेज़ी प्रभुत्व के सबसे बड़े अगुआ रहे हैं। उदारीकरण के बाद उनकी इस नीति को ज्यादा व्यापक आधार मिल गया। अब यह नयी स्थिति है जिसमें पूँजीवादी संस्थाओं का अंग्रेज़ी-प्रेम भारतीय भाषाओं की उपेक्षा करने का सीधा साहस कर रहा है।
यह स्थिति क़तई स्वागतयोग्य नहीं कही जा सकती। हिंदी ही नहीं, सभी भारतीय भाषाओं के लेखकों और समर्थकों का यह दायित्व है कि वे अपनी भाषा के सम्मान के प्रश्न पर एकजुट होकर खड़े हों। भाषा की लड़ाई अपनी अस्मिता, राष्ट्रीयता और संस्कृति की रक्षा का अनिवार्य और अटूट अंग है। यदि आज हम उदासीन रहे तो आगे प्रतिरोध की अपनी क्षमता को कमजोर कर देंगे। एक आइरिश कवि ने सही कहा था—यदि अपनी भाषा रही तो आज़ादी मैं पा लूँगा, लेकिन यदि अपनी भाषा नहीं रही तो मैं अपनी आज़ादी भी खो दूँगा!