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जनसुराज: बिहार की राजनीति का नया विकल्प
बिहार की राजनीति का अपना इतिहास रहा है। बड़े-बड़े दिग्गज राजनेताओं की भूमि बिहार रही है। जिनमें लोकनायक जयप्रकाश, कर्पूरी ठाकुर, जगदेव बाबु, लालू यादव आदि का नाम शुमार है। ये धरती बापू की कर्मभूमि रही है। सत्याग्रह आन्दोलन यहीं आकार लेता है फिर देशव्यापी आन्दोलन बनकर उभरता है। संभवतः प्रशांत किशोर ने अपने जनसुराज पदयात्रा के लिए चंपारण को इसीलिए चुना होगा। मंशा साफ़ है प्रशांत कुमार बिहार को नई ऊंचाई पर ले जाना चाहते हैं। नया मॉडल लागू कर बिहार के निर्माण और विकास में अपना दायित्व निर्धारित करना चाहते हैं। देश के विकसित राज्यों की सूची में बिहार को सम्मिलित करने का सपना साकार हो। बिहार के सन्दर्भ में आकड़ें बताती है देश के पिछड़े राज्यों की सूची में बिहार निचले पायदान पर है। यह रिपोर्ट बिहार के लिए शर्म की बात है। खासकर उन नेताओं के लिए जो अभी तक राज करते आए हैं। यही मुख्य वजह है कि जनता विकल्प खोज रही है। पीके ने एक भाषण के दौरान सर्वे का हवाला देते हुए कहा- बिहार की लगभग 55% जनता चाहती है कि विकल्प के तौर पर कोई नई पार्टी उभरे जिसकी कार्यशैली बीजेपी, राजद और जेडीयू से भिन्न हो क्योंकि लोग अब ऊब चुके हैं। जनसुराज पार्टी के लिए यह सर्वे जमीन तैयार करती है।
समकालीन बिहार की राजनीतिक धुरी लालू प्रसाद यादव और नीतीश कुमार के इर्द-गिर्द घूमती है। 90 के दशक में लालू यादव सामाजिक न्याय का झंडा बुलंद करते हुए पिछड़ों, वंचितों, शोषितों की आवाज़ बनकर उभरे। उनके सामाजिक न्याय के समीकरण ने समाज को गहरे स्तर तक प्रभावित किया। हाशिए के समाज को मुख्यधारा में लाने की कवायद में लालू सफल रहे। बिहार में पिछड़े पृष्ठभूमि के लोगों को लामबंद करके नेताओं की फौज खड़ी की। मजबूती के साथ सामाजिक न्याय को जमीन पर उतारने में मिली सफलता ने लालू यादव के हौसले को बुलंद किया। उनके पार्टी के 15 सालों के लम्बे कार्यकाल को बिहार ने देखा। लालू यादव ने बिहार के इतिहास में नया अध्याय लिखा जिसने सवर्णों के अंदर हलचल पैदा किया। परिणामत: सत्ता पलटी और कुर्सी पर नीतीश कुमार आ बैठे। कम ही समय में नीतीश ने सुशासन की छवि से लोगों में पहचान बनाई। शासन व्यवस्था में सुधार को लेकर नीतीश कुमार ने खासी लोकप्रियता बटोरी है लेकिन बार-बार उनके पासा पलटने से लोगों में निराशा बढ़ी है।
ऐसे समय में बिहार की जनता नए विकल्प को तलाश रही है। नया चेहरा, नए वादे जो बिहार की काया पलट सके। बढ़ते बेरोजगारी, पलायन और भुखमरी से छुटकारा दिला सके। बिहार की दशा और दिशा सुधारने में योगदान दे सके। ऐसे में पीके की ओर लोगों का रुझान बढ़ता दिख रहा है।
पीके बिहार की राजनीति से बखूबी परिचित हैं। आपको याद होगा कि ये वही पीके हैं, जिसने लालू-नीतीश के महागठबंधन को भारी मतों से जीत दिलवाने में अहम भूमिका निभाई थी। इसके अलावा कई बड़े दिग्गज सूरमाओं को इन्होंने जीत का स्वाद चखवाया है। इससे साफ जाहिर होता है कि पीके जमीनी हकीकत से वाकिफ हैं। युवा हैं, जोश से भरे हैं, काम करने का हुनर है। चुनाव मैदान में उतरने के लिए और क्या चाहिए। इधर कई दिनों से उनके साक्षात्कार को देखा सुना। उनके बयानों से लगता है बिहार के लोग अभी भी जात के नाम पर, धर्म के नाम पर, पैसा पर वोट डालते हैं। विकास उनका कभी भी मुद्दा नहीं रहा है। उनकी बैचैनी बस लोगों के जीवन स्तर में सुधार का दिख रहा है। अपने हर संवाद में लोगों से अपील करते नजर आ रहे हैं- आप अपने बच्चों के भविष्य के लिए वोट कीजिये।
बिहार में पदयात्रा से अपनी मिट्टी को जानने का उनका अंदाज अनोखा है। इसके जरिए वो बिहार के लोगों से गांव-गांव में जाकर मिल रहे हैं। लोगों में पुराने सत्ता के प्रति नाराजगी है। जिसकी मुख्य वजह सत्ता में बैठे लोग हैं जिनके स्वहित ने लोगों को लूटा है। जिनके चक्कर में बिहार के विकास की गति धीमी हुई है। नौकरी के नाम पर मात्र कुल आबादी का 1.57% ही सरकारी नौकरी में है, बाकी लोग या तो अपना व्यवसाय कर रहे हैं नहीं तो दूसरे राज्य में काम करने को मजबूर हैं।
पीके गांव में जाकर लोगों से सीधे संवाद स्थापित कर रहे हैं। अपने जन स्वराज अभियान के संकल्प को उद्घाटित करते हुए पीके कहते हैं- अगर जनता का सरकार बना तो साल भर के अंदर आपके घर का जितना समांग बाहर गया है मजदूरी करने या आपका लड़का यहां कोई नौजवान बेरोजगार बैठा है, तो सबके लिए 10-15 हजार रूपए के रोजगार की व्यवस्था यहीं पर किया जाएगा।
वहीं दूसरी तरफ जब लोगों से मिलते हैं तो पीके उनपर खीझते हैं, झल्लाते हैं, समझाते हैं और उनको वोट की कीमत समझाते हुए कहते हैं- जब चुनाव हुआ तब 5 सौ रुपये लेकर आपने वोट बेचा, मुर्गा-भात खाकर वोट दिया तो आपका मुखिया, विधायक चोर नहीं होगा तो हरिश्चंद्र होगा।
लोगों से अपील करते हैं अच्छे प्रतिनिधि को चुनिए जो सच्चा हो और अच्छा हो तभी आपकी दशा सुधरेगी। उनका दावा है कि अगर जनता साथ देगी तो देश की राजनीतिक घड़ी की नीडल घूमाने की कुबत रखते हैं।
बिहार की राजनीति में कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति बिहार के बेहतरी के लिए राजनीति में प्रवेश करता है, तो उस पर जनता कैसे व्यंग्य करती है। इसका उदाहरण पीके के शब्दों में कहें तो – कोई पढ़ा लिखा व्यक्ति राजनीति करने चला आय तो उस पर आप और हम हंसते हैं। अरे यह तो अंग्रेजी बोल रहे हैं यह क्या चलेंगे बिहार में। कोई अंग्रेजी में एक वाक्य बोल दे तो लोग हंसते हैं कि यह बिहार में नहीं चलेगा। बिहार में जो शर्ट के ऊपर गंजी पहन ले वही जमीनी नेता है, जो गाली गलौज करें उसी को आप और हम जमीनी नेता मानते हैं। यही मजबूत नेता है यही बिहार का कल्याण करेगा और फिर मूर्ख को नेता बनने के बाद कहते हैं बड़ा मूर्खता है काम ही नहीं कर रहा है। अरे भाई आप चुने ही मूर्ख है तो काम कहाँ से करेगा। ये नहीं सुधर सकता है जब तक बिहार में लोग नहीं सुधरेंगे। बिहार के युवा वर्ग पर तंज कसते हुए प्रशांत कहते हैं- बिहार में एक नया रोग चला है मोदियाबिंद जिससे युवा वर्ग काफी प्रभावित है। सब दूर का ही नजर आता है अपनी समस्या नहीं दिखती। अपने आसपास की बदहाली युवा नहीं देख पा रहे हैं। बिहार के लोगों को जागरूक करते हुए केंद्र सरकार पर निशाना साधते हुए पीके कहते हैं- हम लोग केवल वोट देने के लिए नहीं बने हैं इसका हमे लाभ भी मिलना चाहिए। यहाँ के बच्चों को रोजगार मिलनी चाहिए।
बिहार राजनीति की प्रयोगशाला है। अब यह देखना बेहद दिलचस्प होगा की पीके इस प्रयोगशाला में क्या तैयार करते हैं? बिहार की दशा और दिशा में क्या योगदान देते हैं? खासकर जो बयान तमाम पदयात्रा के दौरान उन्होंने दिया है। उसको अमलीजामा कब तक पहना पाते हैं। उसका भी जब समय आएगा मुताला किया जाएगा।
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