सामयिक

छटपटाते भारतीय प्रवासी मजदूर

 

1789 की फ्रांस क्रान्ति की बड़ी वजहों में निःसन्देह ब्रेड (रोटी/अन्न) की गहरी व गम्भीर भूमिका रही है। फ़्रांस के राजा लुइस सोलहवीं की पत्नी रानी मैरी-एन्टोयनेट का, क्षुब्ध, असन्तुष्ट तथा अन्न के अभाव से त्रस्त जनता की ब्रेड की माँग पर, यह अव्यावहारिक, दम्भ व मूर्खता भरा बयान, ‘लेट देम इट केक’, आज इतिहास के पन्नों में शाही तख्ता पलट की महत्त्वपूर्ण वजहों में से एक वजह के रूप में बतौर गवाह शामिल है।

Will warm weather really kill off Covid-19? - BBC Future

आज पूरा विश्व कोविड-19 नामक वैश्विक महामारी के आगे घुटने टेकता दिख रहा है। इस आपदा से जूझते हर देश की अपनी भिन्न-भिन्न स्थितियाँ और समस्याएँ हैं। बीमारी की वजह और उसके परिणाम एक हो सकते हैं किन्तु सामाजिक-आर्थिक स्तर की बहुस्तरीय पर्तें इस आपदा से जूझने वाले लोगों के लिए एक समान नहीं, भले वो कोरोना वायरस से पोजिटिव हों या निगेटिव। कोरोना से जूझते भारत की हाल की विषम स्थितियों को देखते हुए.. इतिहास के पन्नों से निकलकर फ्रेंच रिवोल्यूशन की घटना मस्तिष्क में एक कौंध की तरह गुजरी और दोनों तरफ़ की तस्वीरें देश-काल की सीमाओं को तोड़ते हुए आपस में गड्डमड्ड होने लगीं।

यह भी पढ़ें- कोरोना के ज़ख्म और विद्यार्थियों की आपबीती

निश्चय ही दोनों तरफ की तस्वीरें समानता में एक कौन्ध भर पैदा करती हैं। आपस में टकराती इन तस्वीरों में सबसे स्पष्ट व शार्प तस्वीर ‘ब्रेड’ के कारण ‘मोनार्की’ से ‘रिवोल्ट’ करती तत्कालीन फ्रांसीसी आवाम और समलीन भारत में रोजी-रोटी के छिन जाने से भीषण अवसाद, क्षोभ, अनिश्चितता, भय, भूख से त्रस्त….अस्तित्व संकट से जूझते… कहीं आँसू.. कहीं विद्रोह से भरे पलायन के लिए छटपटाते भारतीय प्रवासी मजदूरों की है।India's 'invisible' people grease nation's wheels, get misery in ...

रविवार 22 मार्च से देश में घोषित सम्पूर्ण लॉक डाउन के बाद प्रवासी मजदूरों की शुरू हुई अन्तहीन पीड़ा, दहशत, दमन, दया की कहानियाँ और उन कहानियों के कुछ ठहरे से दृश्य मानो किसी बायस्कोप की तस्वीरों की तरह आँखों व मस्तिष्क में घूमने लगते हैं। लॉक डाउन के छठे दिन शनिवार की दोपहर को हजारों की संख्या में आनन्द विहार बस अड्डे पर लम्बी लाइन में लगे, बस अड्डे पर बने फुट ओवर ब्रिज पर, उसकी सीढ़ियों में खड़े, अपने अपने घरों-गाँवों को जाने के लिए छटपटाते दिल्ली-एन सी आर के प्रवासी मजदूर…फिर ऐसी अनगिनित तस्वीरों का लगातार तांता..।

 यह भी पढ़ें- कोरोना का विश्वव्यापी प्रभाव

यातायात के सभी साधनों को रोक देने,राज्य की सीमाओं को सील कर देने की स्थिति में; घर-परिवार-थैलों- बोतलों में समेटे अपने प्रवासी काल की फ़कतजमा-पूँजी सहित हजारों की संख्या में पलायन करते पैदल मजदूर, रोते-बिलखते बच्चे, छाले-फफ़ोले पड़े पैर, बिना खाना-पानी के… कहीं पुलिस की सहायता, कहीं बर्बरता, कहीं स्थानीय लोगों की दया,कहीं उपेक्षा..कहीं मृत्यु, कहीं आत्महत्या, कहीं जिजीविषा की अनंत अन्तहीन कहानियों का शुरू होता दौर।

Coronavirus lockdown hits India migrant workers' pay, food supply ...

आश्चर्य से भरे पत्रकारों का इन पैदल प्रवासी मजदूरों से सवाल, ‘पता है फलानी जगह कितने कि.मी. है?’ और उन फटेहाल, अपनी जरूरत की चीज़ों से लथपथ मजदूरों का लगभग सही- सही उत्तर। इन तस्वीरों के कारण उठी सियासी हलचलों के फलस्वरूप विवश राज्य सरकारों का अपनी सीमाओं में प्रवासी मजदूरों को रोके रखने के लिए कई और सख्त नियम,हिदायतें और कुछ राहत पैकेजेस (जिन तक पहुंच की अलग कहानी है), पिंजड़ों जैसे दड़बों में बन्द रोते-गिड़गिड़ाते, 24 घण्टों में बमुश्किल एक बार मिले भोजन की बात करते, अनिश्चितता के घोर आलम में बिना पैसे,हताश-निराश भय भीत लोग।India coronavirus: Migrant workers sprayed with disinfectant in ...

सैनिटायजेशन के नाम पर सड़क में बैठे सैकड़ों मजदूरों के ऊपर कीटनाशक का जेट स्प्रे से छिड़काव, उनके साथ पालतू पशुओं सा अमानवीय व्यवहार, वर्षों अपनी सेवाएँ देने के बावजूद एक पल में शहर को पराया होता देख उनकी पीड़ा और क्षोभ, अपनी-अपनी सुरक्षित खोल में घुसे मध्यवर्ग और उनके शहर से उनका पीड़ा जनित मोहभंग और इन सबके साथ उनकी विद्रोह करती तस्वीरें ..सूरत में सैकड़ों की संख्या में बेचैन टेक्सटाइल मिल वर्कर्स की पुलिस के साथ मुठभेड़ और 14 अप्रैल को मुम्बई के बांद्रा बस अड्डे पर हजारों की संख्या में अपने-अपने घरों की ओर जाने वाली बसों को चलाए जाने की आस–माँग में बैठे,लाठी खाते, खदेड़े जाते लोग। ये तस्वीरें मन में एक अंजाना सा भय पैदा करती हैं।

यह भी पढ़ें- कोरोना और अमीरों की बस्ती

मुम्बई के घाटकोपर में रहने वाले सन्तोष पाण्डेय जी रिक्शा चलाते हैं। एक कमरे में 6 सदस्य रहते हैं। सरकार ने, एक दोस्त ने थोड़ी मदद की पर राशन खत्म हो गया। एक पत्रकार से बात करते हुए उनकी आँखों में बेचैनी, भय और क्रोध एक साथ साफ़ छलक रहा था। वो कहते हैं, “हम गर्वनमेंट का पालन करेंगे। ऐसा नहीं है कि हम गवर्मेंट का उल्लंघन करेंगे या पुलिस विभाग का उल्लंघन करेंगे। लेकिन जिन्दा रहेंगे तो करेंगे न? लेकिन बिना खाए आदमी मर जाएगा तो बताइए वो क्या करेगा? इसीलिए हमारी रिक्वेस्ट है कि हमको राशन की व्यवस्था किया जाए या हम रिक्वेस्ट करके कहते हैं हम जहाँ के हैं हमें वहीं भेजा जाए।”

शहरों में फंसे 96 फीसदी प्रवासी ...

सन्तोष जैसे अनगिनत प्रवासी मजदूर केंद्र –राज्य की सरकारों के तमाम आश्वासनों के बावजूद ज़मीनी हकीकत देख-समझ रहे हैं।मुम्बई में कई मजदूरों के खिलाफ वहाँ की पुलिस मुकदमा दर्ज कर चुकी है। लॉक डाउन, सोशल दिस्टेंसिंग,कोरोना संक्रमण के खौफ़नाक समय में अब ये प्रवासी मजदूर सरकार विशेषकर राज्य सरकारों के लिए समस्या बन चुके हैं। हर राज्य सरकार अपना बेहतर आंकड़ा देना चाहती है ऐसे में उनके लिए ये प्रवासी मजदूर, चाहें उनके मूल राज्य हों या प्रवासी राज्य, सर दर्द बनते जा रहे हैं।

यह भी पढ़ें- कोरोना से भारत की दोहरी चुनौती

भारत एक बड़ी आबादी वाला विकासशील देश है। ‘मोस्ट यंग कंट्री’ कहलाने वाले देश के पास सर्वाधिक युवा मानव संसाधन है। किन्तु बेरोजगारी के आलम में ये संसाधन देश के लिए अब सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है। पिछली जनसंख्या गणना के आधार पर भारत की जनसंख्या 1.3 मिलियन से अधिक है।2011-2012के एक सर्वे के आंकड़ों के अनुसार 195 मिलियन अथवा 48.6 प्रतिशत आबादी दिहाड़ी मजदूरों की है। इन दिहाड़ी मजदूरों के लिए बनाए गये कई प्रावधानों के बावजूद ज़मीनी हकीकत अलग ही तस्वीर प्रस्तुत करती दिखती है।

Police action can be taken if migrant laborers travel": Gujarat ...

इस समय की बात करें तो हाल के एक सर्वे के अनुसार 10 में से 4 मजदूरों के पास एक दिन का भी राशन उपलब्ध नहीं है और लगभग 90 प्रतिशत अपनी कमाई के इकलौते जरियों को गँवा चुके हैं। इन सबके अलावा इन दिहाड़ी मजदूरों के पलायन और पलायन करने की छटपटाहट की बड़ी वजहों में एक बड़ी वजह भावनात्मक कारण है। शहरों द्वारा इन्हें रातों रात पराया कर दिया गया। जिनको इन्होने वर्षों-वर्ष अपनी सेवाएँ दीं वे आत्म सुरक्षा की खोल में घुस गये। अब ये प्रवासी मजदूर अपना भावनात्मक-आर्थिक सम्बल खोकर भयंकर बेचैनी, क्षोभ और क्रोध से भरे हुए हैं। ये अपनी जिन्दगी अब अपने हिसाब से जीना चाहते हैं जबकि इनके प्रवासी शहर ने इन्हें एक तरह से बंधक बना कर रखा है।

इसलिए वे कम से कम अपने गाँव-घरों, अपनी जड़ों की ओर लौट जाना चाहते हैं। जब सर्वाइवल का प्रश्न सबसे बड़ा प्रश्न हो तब ऐसी मानवीय प्रतिक्रिया का सामने आना स्वाभाविक है।

.

कमेंट बॉक्स में इस लेख पर आप राय अवश्य दें। आप हमारे महत्वपूर्ण पाठक हैं। आप की राय हमारे लिए मायने रखती है। आप शेयर करेंगे तो हमें अच्छा लगेगा।
Show More

अनुराधा गुप्ता

लेखिका हिन्दी विभाग, कमला नेहरु कॉलेज (दि.वि.) में सहायक प्रवक्ता हैं। सम्पर्क +919968253219, anuradha2012@gmail.com
5 1 vote
Article Rating
Subscribe
Notify of
guest

6 Comments
Oldest
Newest Most Voted
Inline Feedbacks
View all comments
6
0
Would love your thoughts, please comment.x
()
x