यह समय का फेर है कि इन दिनों फ़रेब, जालसाजी, षड़यंत्र, धोखा, ईर्ष्या, कटुता, कपटता आदि का बोलबाला है। इसका कारण एक यह भी है कि हमारा व्यक्तित्व अब ‘ह्युमन बिइंग’ से ‘डिजिटल बिइंग’ में तब्दील हो रहा है। नेट-वेब आधारित तकनीकी-प्रौद्योगिकी आश्रित संजाल ने हमारे व्यक्तित्व को ‘ऑक्टोपस’ की भाँति जकड़ लिया है। अब पूरा राष्ट्र ‘पॉलिटिक्ल वर्चुअलिटी’ की गोद में है। राजनीति हमें सिखा रही है कि-‘आदर्श जीवन’ क्या है? जन-जन के मन में क्या है? यही नहीं सरकारी-तंत्र का शासकीय-मानस भी अब ‘इवेंट कंटेंट मैसेन्जर’ द्वारा नियंत्रित, निर्धारित है। यदि देश का प्रधानमंत्री योग करते हुए, ‘हाइपर-डेकोरेटेट गार्डेन’ में टहलते हुए, आसन-प्राणायाम में ध्यानमग्न दिखाई दे रहे हैं, तो फिर देशवासियों को दुःख, तकलीफ, कष्ट, जार, क्षोभ, टीस, हुक, कसक, तनाव, अवसाद, ऊब आदि कैसे घेर सकती है? रोजगार, गरीबी, सूखा, हिंसा, अपराध, अशांति, असमानता, सुनियोजित भेदभाव आदि की फिर क्या बिसात? इसीलिए अब घोषित तौर पर टेलीविज़न अथवा अन्य जनमाध्यम में दिख रहा व्यक्तित्व (नरेन्द्र मोदी, विराट कोहली, सलमान खान इत्यादि) ही पूरे देश का तकदीर-तदबीर है। यानी वे खुश, तो सब खुश।
शायद इन्हीं तस्वीरों को देखते हुए अब हम अपने राष्ट्रीय स्वाभिमान एवं सम्मान को सुरक्षित-संरक्षित रखना सीखेंगे। भारतीयता के मूल बीज को अब व्यक्ति नहीं ‘यू ट्यूब’ में अपलोड कर कालजयी बनाया जाएगा। ‘प्रोपेगेण्डा’ और ‘प्रोजेक्शन’ के इस खेल में सत्ता-पक्ष और विपक्ष सभी शामिल हैं। समानता यह है कि जो भी सुविधाग्रस्त स्थिति में वह राष्ट्रीय-विकास का नारा और जयकारा लगा रहा है। सबसे विचित्र बात तो यह कि उनके ही चेहरे-मोहरे, नाज-नख़रे टेलीविजन से लेकर सभी जनमाध्यमों तक नमूदार हैं। ऐसे में क्या राहुल गाँधी और क्या अरविन्द केजरीवाल? सब के सब एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।
सनद रहे, यह सब करतब या कारामात सायास नहीं, इरादतन घटित हो रहे हैं। विश्व बाज़ार ने अपने इरादों का सरकारीकरण कर दिया है। यह और बात है कि विचारहीन और नैतिक बल से क्षीण भारतीय राजनीतिज्ञ और उनके हुक्मरां इसे अपनी वैदेशिक कूटनीति एवं सफलता मान रहे हैं। उनका मानना है कि भारत को विकसित, सक्षम और प्रभावशाली राष्ट्र बनाने में पूरी दुनिया एकजुट हो चुकी है। नरेन्द्र मोदी स्वयं इसके सबसे बड़ा झंडाबदार हैं। यह भूल बाद में भारतीय जनमानस के लिए कितना घातक सिद्ध होने वाली है। इसे भारत की नई पीढ़ी के सोच, विचार, चिंतन, दृष्टि आदि को देखकर समझा जा सकता है। युवा पीढ़ी की पहचान के तरीके हैं-हर हाथ में स्मार्ट फोन, गैजेट्स, फैशनेबुल ड्रेसअप, अंग्रेजीदां स्टाइल आदि। लेकिन वास्तविकता यह है कि अधिसंख्य युवा अनुभव से खाली और स्मृति से विहीन एक ऊब और खीज भरी जिंदगी जी रहे हैं। ऐसे नौजवानों के लिए व्यक्ति, समाज, संस्कृति, सभ्यता, मूल्य, ज्ञान, विवेक, निर्णय, नेतृत्व, स्वतन्त्रता, समानता, भाईचारा, राजनीति, विश्व, वैश्विकता इत्यादि महज़ शब्द मात्र हैं।
यह आरोप नहीं, बल्कि हम जिस राह पर हमारी निगाहें और बाहें हैं उसकी ‘लाइव रिपोर्टिंग’ है। सबसे बड़ी दिक्कत यह है कि आज की इस भूमंडलीकृत दुनिया में व्यक्ति के ‘इमेज’ को अधिक महत्त्वपूर्ण मान लिया गया है जबकि भारतीयता की असल कसौटी चरित्र हुआ करती है, छवियाँ नहीं। कारण कि मनुष्य का ‘व्यक्तित्व’ (Personality) उसके चरित्र, कर्म और संस्कारों का समुच्चय है। व्यक्तित्व में अच्छे और बुरे दोनों पहलू या गुण समाहित होते हैं। सम्पूर्ण व्यक्तित्व में जो अच्छे अवयव हैं, उन्हें मनीषियों ने ‘शील’ नाम दिया है। भारतीय दृष्टि में ‘शील’ की अभिव्यक्ति एवं पहचान का माध्यम ‘धर्म’ या कर्तव्य है। ‘धारणात् धर्ममित्याहु’ अर्थात् जो मानव-मूल्य हमें धारण करें, वे धर्म हैं। ‘धर्म’ का कैनवास अत्यन्त विशाल है; यथा: मानुष धर्म, जीवन-धर्म, स्वधर्म, पितृ-धर्म, मातृ-धर्म, गुरु-धर्म इत्यादि। स्वामी विवेकानंद ने एक बार कहा था कि, ‘इंग्लैण्ड प्रत्येक चीज को ‘पाउण्ड’, ‘शिलिंग’ और ‘पेन्स’ में बताता है तो भारत प्रत्येक बात को धर्म की भाषा में बोलता है’। आधुनिक समाजविज्ञानी मणींद्र नाथ ठाकुर की दृष्टि में, भारतीय ‘‘धर्म जीवन-प्रणाली का अंग होता है; वह जीने की कला है जिसमें आचार-व्यवहार के अलावा प्रकृति, मनुष्य, उनके सम्बन्धों के बारे में विश्व-दृष्टि भी शामिल होती है।’’
बहरहाल, हम यह लगभग भूल चुके हैं कि प्रत्येक व्यक्ति में मनोशारीरिक गुणों का एक ऐसा गत्यात्मक संगठन (Dynamic Organization) उपस्थित है जिसका व्यवहार वातावरण के साथ अपने-अपने ढंग से अपूर्व समायोजन करने में निपुण है। व्यक्तित्व में शीलगुण की स्थापना हो, इसके निमित धर्म एक संकल्पित जीवन-दृष्टि है जिसमें मूल्यों का क्षरण नहीं, अपितु हर क्षण अवतरण होता है। इसलिए धर्म व्यक्तित्व का नैसर्गिक विकास है, सामूहिकता-बोध है, अतीत के अनुभवों से वर्तमान में साक्षात्कार है। यह स्पष्ट है कि व्यक्तित्व पर हर एक पक्ष अथवा उसके अनुषंगी घटकों का व्यापक प्रभाव है। किसी क्रियाशील व्यक्ति या कि संचारक-विशेष के सन्दर्भ में उक्त प्रभाव का विश्लेषण करें, तो हम पायेंगे कि सामान्य बुद्धि, ग्रहण-शक्ति, स्मरण-शक्ति, चिन्तन-शक्ति और कल्पना ये पाँच मानसिक सामग्री के स्रोत हैं जिनसे अनुस्यूत व्यक्ति भाषा-प्रयुक्ति, तथ्य-संग्रहण एवं अपनी नवीन विचारधारा का सृजन करता है। इन पंच-स्रोतों की क्षमता हर व्यक्ति में मात्रा एवं अनुपात से भिन्न-भिन्न होती है। व्यक्तित्व का भावात्मक पक्ष महत्त्वपूर्ण है जिससे किसी संचारक की वाणी, गति, तान-अनुतान, लहजा, हावभाव, मुद्रा, स्थिति एवं चेष्टाओं में होने वाले बदलाव के संकेत मिलते हैं। इसी प्रकार, बौद्धिक पक्ष द्वारा किसी व्यक्ति की आन्तरिक अनुभूति, संवेदना, आवेग एवं मनःस्थिति का आकलन सम्भव है। यह भी कि व्यक्ति में सम्बन्धित जिन-जिन गुणों एवं विशेषताओं का समावेश होता है वे सब व्यक्तित्व के अन्तर्गत ली जा सकती हैं; बशर्ते सम्मिलित गुणधर्मों से किसी प्रकार की अनावश्यक जटिलता अथवा आत्मनिष्ठता उजागर न हो।
इतना अवश्य है कि विषयभेद के अनुसार व्यक्तित्व के विभिन्न पक्षों में से कोई एक प्रमुखता प्राप्त कर लेता है, जैसे-चिकित्सा-शास्त्र में व्यक्ति के शारीरिक व्यक्तित्व को प्रमुखता मिलती है, तो नीति शास्त्र में व्यक्ति के चरित्र को। ध्यातव्य है कि चरित्र व्यक्ति के व्यक्तित्व की साँस है। यहाँ चरित्र से अभिप्राय व्यक्ति की प्रकृति, उसका गुण, उसकी विचारधारा, उसकी क्रियात्मकता, भाषा, रुचि, शौक, आदत, व्यवसाय एवं उसके लोक-व्यवहार से है। यद्यपि व्यक्तित्व और चरित्र का आपसी सम्बन्ध पूरकत्व का है जिसमें शब्दावली का लोकवृत्त इसी के अनुरूप घटित और प्रयुक्त होता है। विभिन्न मुद्दों, मन्तव्यों, धारणाओं, मान्यताओं, प्रश्नों इत्यादि पर बहस-मुबाहिसे की गुँजाइश भी इन्हीं चरित्र-व्यक्तित्व का अवलम्ब अथवा आश्रय ग्रहण कर व्यवहार में फलित होती है। ज्ञान का बौद्धिक-तंत्र (एपेस्टीम) स्वयं भी इन्हीं भारतीय-पाश्चात्य रूपों एवं प्रारूपों का अनुसरणकर्ता है।
अतएव, इस उत्तर शती में जिनका व्यक्तित्व विवेकशील और आत्मा चिन्तनशील है, वह अपने कथन के शब्दार्थ से ही नहीं, बल्कि जिससे कहा जा रहा है उसके कर्म और मर्म से भी सुपरिचित होते हैं। सही व्यक्तित्व की पहचान यह है कि वह आधुनिक जुमले और मुहावरों को भर मुँह उवाचता मात्र नहीं है, बल्कि उसे करने हेतु दृढ़संकल्पित भी होता है। उसे सदैव यह भान होता है कि एक विकासशील देश का नेतृत्वकर्ता यदि चरित्रहीन, भ्रष्ट और पतित हुआ, तो देशवासियों का जीवन नरक होते देर न लगेगा। इसीलिए भारतीय चिन्तन-दृष्टि में ‘भारतमना’ को विशेष महत्त्व प्राप्त है।
राजीव रंजन प्रसाद
लेखक राजीव गाँधी विश्वविद्यालय, अरुणाचल प्रदेश में हिन्दी विभाग में सहायक प्रोफेसर हैं.
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