सामयिक

भारत बाजार में नंगा है

 

दादा और गुरु दोनों शब्दों का अर्थ विस्तार हुआ है। अब दादा वे नहीं हैं, जिन्हें हम दादा कहा करते थे। गुरु भी अब वे नहीं हैं जो विधाता का बोध कराते थे। दादा अब वह है जो दमन दलन करता है और हमेशा उसी की दाल गलती है। गुरु अब वह है जो दुनिया में अपना गांडीव बेचता है और गदर मचाता है। डॉलर महज एक मुद्रा नहीं है, दैत्य है। वह दादा है, दादाओं का। वह गुरु है, गुरुओं का। सही मायने में वह विश्वगुरु है। भारत विश्व गुरु बनने की वासना से पीड़ित है। सुपर पावर का हिन्दी तरजुमा है विश्वगुरु। सुपर पावर बनने का अपना कायदा और करिश्मा है। क्या कभी रुपया डॉलर की हत्या कर पाएगा? डॉलर बंदूक की वह नली है जो रुपए में छेद करती रहती है और संदूक लूटती रहती है। पहले संदूक छलनी करती है। फिर संदूक सहित संदूक पर हाथ मारती है। अब गुल्लक गोल करने की गहमागहमी है। अब हमारे खेतों खलिहानों की नकेल भी संभालने की तैयारी में है डॉलर।

एफडीआई माने डॉलर। उसे न्योतने के लिए स्थायी रूप से तोरण सजा कर रखे गए हैं। सरकारें जाजिम बिछा कर शहनाई – तुरही बजा रही हैं। भारत में डॉलर के निवेश को विकास की उड़ान माना जाता है। डॉलर के देश में रुपए के देश से कई प्रधानमंत्री कई मुख्यमंत्री कई मंत्री अपने हाथियों, घोड़ों और प्यादों के साथ डॉलर को रिझाने के लिए आकाश यात्राएं करते रहे हैं। वे नियम जो रास्ते पर अड़े खड़े थे, उन्हें सजा सुना दी गई। अड़चनें उड़ा दी गईं। इस तरह स्वच्छ भारत का शिलान्यास हुआ। भारत अब ऐसे स्वच्छ हो रहा है रोज कि डॉलर हर डाल पर अपना बसेरा बना सके। इसके लिए मुक्कमल तैयारी है। डॉलर खेप पर खेप भारत आ रहा है। जिस डाल पर डॉलर बैठता है, उस पेड़ के पत्ते और फल-फूल उसके हो जाते हैं। पेड़ की डाल से लगा मधु का छत्ता भी उसका होता है। वह जड़ का पेटेंट करा लेता है। हमारा शहद हमें ही बेचता है।

डॉलर की खेप जब भी रुपए के देश में आती है, रुपए की लग जाती है। जो रुपए का स्वदेशी होता है, वह डॉलर का अपना हो जाता है। रुपए के लिए वह विदेशी हो जाता है। रुपया जिसे पाल पोस कर बड़ा करता है, कमासुत बनाता है, डॉलर उसे ले लेता है। वह हमारे लिए पराया हो जाता है। रुपए के देश का एक प्रोडक्ट था थम्सअप। रुपए ने इसे पैंतीस साल तक पालपोस कर पहलवान बनाया था। सबका लाडला था। वह इतना लाडला और गले की राहत ऐसी कि उसके रहते कोई और गले के नीचे नहीं उतर सकता था।

कोक रुपए के देश में आने को मचल रहा था। आठवें दशक में रुपए ने उसे अपने देश से निकाल बाहर कर दिया था। मौका पाते ही वह फिर आ जाना चाहता था। थम्सअप कोक की आंखों का कांटा था। थम्सअप का नजारा देखकर कोक की फटती थी। पैर जमाना मुश्किल ही नहीं, नामुमकिन-सा था। सो डॉलर ने थम्सअप को खरीद लिया।

इस तरह रास्ता साफ हुआ। बताया गया कि बिकना ही विकास है। यह नई आजादी का आगाज था। रुपए की औलादें आजाद होने लगीं। यह स्वच्छ भारत का आरंभिक दृश्य था। जब ऐसी सफाई हुई तो कोक शान से रुपये के देश में आया और उसने अपना पैर पसार लिया। अब हालात ऐसे कि रुपए की धरती, रुपए का पानी, रुपए का मजदूर, रुपए का ग्राहक, रुपए का बाजार और कमाई किसकी?

 – और किसकी? डॉलर की।

सबकुछ हमारा और समृद्धि डॉलर की। डॉलर जितना मजबूत होता है रुपया उतना ही फटता जाता है। लेकिन अब विकास का मॉडल यही है। हमारा विकास डॉलर का विकास है। सबका साथ सबका विकास के उज्ज्वल दृश्य का सिलसिला यहाँ से आरंभ होकर हाल में बीमा के क्षेत्र तक पहुंचा है। बीमा में एफडीआई के लिए रास्ता साफ कर दिया गया है। स्वच्छ भारत का यह उन्नत दृश्य है। अब रुपए के देश का हर आदमी डॉलर के देश का गुल्लक है। इस गुल्लक का कौड़ी कौड़ी डॉलर का है। दूसरी ओर भारत का हर माल कौड़ियों के मोल है उनके लिए।

जैसे जैसे डॉलर का मान बढ़ता जाता है भारत का उत्पाद बाहर वालों के लिए सस्ता होता जाता है। दो हजार चौदह में छियासठ रुपए में एक डॉलर आता था, आज दो हजार इक्कीस में पचहत्तर रुपए का आ रहा है। जो डॉलर अपने एक डॉलर से भारत का छियासठ रुपए का माल उठाता था, वही अब पचहत्तर रुपए का माल हड़प सकता है। भारत इतना सस्ता हुआ है बाहर वालों के लिए इन सात सालों में कि पहले के सत्तर सालों में एक मुश्त ऐसा नहीं हुआ था। ऐसे त्वरित विकास का तांडव भी नहीं था तब। अब यह समझना बिल्कुल मुश्किल नहीं है कि भारत में जो एफडीआई होता है, वह किस भाव होता है।

विनिवेश का मजा यही है। लेकिन मजा यहीं बेमजा नहीं हो जाता। मजा तो तब आता है जब भारत बाहर से कुछ खरीदता है। सन चौदह में भारत जो छियासठ रुपए देकर खरीदता था, वही अब पचहत्तर रुपए में खरीदता है। यानी बेचना सस्ता खरीदना महंगा। विकास का यह रास्ता भारत की किस्मत चमका रहा है। सच तो यह है कि डॉलर रुपए का दोनों ओर से मजा ले रहा है। फिर भी डॉलर के सामने थ्री इडियट्स की तरह झुक कर तुसी ग्रेट हो कह कर भारत को मजा आता है। कभी अहमदाबाद में तो कभी न्यूयॉर्क में भारत ऐसी मनोरंजक भंगिमा बनाता रहता है।

कहते हैं भारत का बाजार चीन की चीजों से अटा पड़ा है। आयात चीन से करें या जापान से, पर पर लगते हैं डॉलर के। क्योंकि उत्पादन चीन की धरती पर अवश्य होता है मगर शक्ति डॉलर की लगी हुई है और भुगतान भी डॉलर में ही करना होता है। इसलिए डॉलर के उड़ान भरने के वाजिब कारण हैं। डॉलर जैसे जैसे ऊंची उड़ान भरता है, रुपया घायल होता है। नीचे ऐसे गिरता है कि गिरता ही जाता है। उठने की कोई संभावना शेष नहीं होती। रुपया वेंटिलेटर पर पहुंच जाता है, लेकिन इलाज का कोई उपाय नहीं। ऐसे में वह सुपर पावर कैसे बनेगा? अगर एक डॉलर की कीमत पचहत्तर रुपए है तो एक डॉलर के मुकाबले एक रुपए की औकात डॉलर के तेरहवें हिस्से के तेरहवें हिस्से के बराबर है। जिनके रुपए की यह हालत हो उनका विकास?

रुपए और डॉलर की आपस में विकास की लड़ी ऐसी उलझी पड़ी है कि डॉलर एक दिन न मुस्कराए तो रुपया मायूस हो जाता है। शेयर बाजार में उदासी छा जाती है। लड़खड़ाने लगता है वो। करोड़ों का वारान्यारा मिनटों में हो जाता है। सोने की दमक दैत्य निगल जाता है। चांदी की चमक चोर चुरा लेता है। छोटी गाड़ी से लेकर हवाई जहाज तक डॉलर से चलने- उड़ने वाले वाहन हैं। यहाँ तक कि देश की सुरक्षा में लगे सैन्य उपकरण डॉलर के उत्पाद हैं और डॉलर के गोले ही बरसाते हैं। जब भी गाली और गोले बरसाए जाते हैं, डॉलर की बाछें खिल जाती हैं। डॉलर चील की तरह हमारी चड्ढी पर चोंच मारने के लिए चतुर सुजान बन कर ऊंचे आकाश से नजारा लेता रहता है। भारत चमगादड़ की तरह अपने को उल्टा लटका पाता है। फिर भी विकास का गीत गाता है।

भारत की हर दुकान का, हर खदान का डॉलर चौकीदार है। भारत का जीडीपी बढ़ता है तो डॉलर मोटाता है। भारत में काला धन बनता और बढ़ता है तो डॉलर चमकता है। ट्रेडिंग, सेवा, उत्पादन और रक्षा के क्षेत्र से भरपूर रेवन्यू हासिल करता है डॉलर। भारत के इन तीनों क्षेत्रों पर डॉलर का संपूर्ण नियंत्रण है। केवल किसानी का क्षेत्र ऐसा है जिससे पर्याप्त मात्रा में उसे उसका कट नहीं मिलता है। हालांकि बीज और खाद के माध्यम से वह भारतीय किसानी क्षेत्र से आय कर रहा है। लेकिन यह किसानी के क्षेत्र से होने वाली आय का एक छोटा हिस्सा होता है। डॉलर के लिए भारतीय किसानी क्षेत्र संभावनाओं से लबालब भरा हुआ है। यही वजह है कि भारत में कृषि क्षेत्र आमूल फेर बदल करने के लिए भारत सरकार कोई भी कीमत चुकाने के लिए तैयार है। क्योंकि डॉलर का विकास ही भारत का लक्ष्य है। स्वच्छ भारत और स्वदेशी भारत का यही गुमान है।

जैसे जैसे विकास बुलेट रफ्तार पकड़ेगा, देश में गरीबी और महंगाई बढ़ेगी। महंगाई की गंगा डॉलर से फूटती है। महंगाई की गंगा में डुबकी लगाना और लगाते रहना भारतीयों की नियति है।

भारतीयों का नहाना धोना हाल ही में महंगा हो चुका है। हिंदुस्तान युनिलीवर अपने सभी प्रोडक्ट्स की कीमत बढ़ा चुकी है। देखा देखी सगोतिया कंपनियां भी अपने अपने प्रोडक्ट की कीमत बढ़ाती जाएंगी। भारतीयों का नहाना धोना और कपड़ा साफ करना कठिन होता जाएगा। कोयले का संकट जिस तरह से सघन होता जा रहा है, बिजली, सीमेंट, स्टील सब बुलेट रफ्तार पकड़ लेगी। सरसों तेल में पहले से ही आग लगी हुई है।

अमेरिकी डालर ने रुपए को ऐसा फाड़ा है कि किसी भी देश की मुद्रा के सामने रुपया कमर सीधी करके खड़ा नहीं हो पाता है। छोटी से छोटी अर्थव्यवस्था वाला देश भी रुपए के चेहरे पर आइना चमकाता रहता है। थाईलैंड की मुद्रा भी रुपए से लगभग सवा दो गुना शक्तिशाली है। शक्तिशाली चीन की बात ही क्या है! चीनी मुद्रा युआन का भाव लगभग बारह रुपए है। सतासी रुपए का एक यूरो मिलता है। वह जापान जिसके येन की औकात हमारे रुपए की तुलना में कहीं कम है वह येन भी मुद्रा के अखाड़े में रुपए की तुलना में डेढ़ गुना मजबूत है। रुपया सारी दुनिया में निहुरे निहुरे ही चलता है।

किसी भी देश की मुद्रा ही उस देश का मुकुट और परिधान होता है। जिसके मुकुट में छेद ही छेद हो और कपड़े चीथड़े चीथड़े, वह कैसा दिखता है? वह नंगा ही दिखता है। रुपया चीथड़ा चीथड़ा है। भारत कैसा दिख रहा है? हमाम या बाथरूम में नंगा होना एक बात है। बाजार में नंगा होना बिल्कुल अलग बात है। भारत बाजार में नंगा है। बिडम्बना यह भी है कि पिछले तीस सालों से भारतीय होने के नाते हमें नंगे होने के गर्व का पाठ भी पढ़ाया जा रहा है

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मृत्युंजय श्रीवास्तव

लेखक प्रबुद्ध साहित्यकार, अनुवादक एवं रंगकर्मी हैं। सम्पर्क- +919433076174, mrityunjoy.kolkata@gmail.com
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