झारखंडराजनीति

राजनीति से गायब जरूरी मुद्दे

 

भारतीय लोकतंत्र चुनाव के मूल उद्देश्यों से भटक चुका है। नई परिपाटी के तहत राजनीतिक पार्टियों के लिए यह बिल्कुल भी जरूरी नहीं रह गया है कि वे अपने पिछले कार्यों की रिपोर्ट जनता के बीच मूल्यांकन के लिए रखे, या फिर यह बताए कि भविष्य के लिए उनके पास योजनाएं क्या है और रोड मैप किस तरह का है। भारतीय राजनीतिक शतरंज की बिसात अब सांप्रदायिकता और जातिवाद पर बिछाई जा रही है। इस नए दौर की मुद्दा विहीन राजनीति और सतही बयानबाजी से झारखंड भी अछूता नहीं है। 14 लोकसभाओं के 1.5 करोड़ लोगों की समस्याएं पिछले कई चुनावों की तरह इस बार भी राजनीतिक पार्टियों के लिए मुद्दा नहीं बन पाईं। इसका सीधा अर्थ है कि ये समस्याएं अगले पांच सालों तक फिर से सरकार की प्राथमिकताओं में नहीं होगी और यथावत बनी रहेगी।

बिहार के बाद झारखंड से सबसे अधिक पलायन होता है। कोविड काल में सरकार 8 लाख से अधिक मजदूरों के लौटने का दावा करती है। लगभग इतनी ही संख्या ऐसे मजदूरों की भी है, जिनका डाटा सरकार के पास नहीं है। यानी करीब 15 लाख मजदूरों के पलायन और उनके शोषण पर राजनीतिक पार्टियां बात तक नहीं कर पा रही है, इनका समाधान ढूंढना तो दूर की बात है। इसी तरह प्रतियोगी परीक्षाओं में हो रही गड़बड़ी सहित रोजगार के तमाम मसलों पर राज्य भर में न जाने कितने आंदोलन हुए, लेकिन लोकसभा में यह मुद्दा भी चंद छात्रों के बीच बस विमर्श का विषय बन कर रह गया।

झारखंड में खनन और परिणाम स्वरूप विस्थापन सबसे अधिक है। देश में सबसे अधिक मानव तस्करी झारखंड से होती है। यहां की महिलाओं, बच्चों और वंचित समुदाय के लोगों में कुपोषण अभिशाप की तरह है। शिक्षा और स्वास्थ्य की लचर व्यवस्था सरकार और समाज का मुंह चिढ़ा रही है। राजधानी तक में बिजली की घोर समस्या रहती है, पानी की किल्लत तो हर शहर-बाजार-गाँव के लिए आम होती जा रही है। लेकिन यह आश्चर्यजनक है कि तमाम समस्याओं को अपनी आंखों के सामने देखते हुए भी, उन्हें झेलते हुए भी, इस राज्य के वोटर अपने लिए सही मुद्दों का चुनाव नहीं कर पा रहे हैं, या उनके चुने मुद्दों को राजनीति में जगह नहीं मिल पा रही है।

इन मूल समस्याओँ के अलावा भी झारखंड की अस्मिता से जुड़े कई मुद्दे हैं। मसलन सरना कोड़, स्थानीय नीति, पांचवी अनुसूची, पेसा कानून, ओबीसी आरक्षण, जातिगत जनगणना आदि ऐसे मुद्दे हैं, जो पिछले महीनों खूब चर्चा में रहे हैं। क्षेत्रीय पार्टी झारखंड मुक्ति मोर्चा इनमें से कुछ मुद्दों पर अपनी सुविधा के अनुसार जरूर मुखर है, लेकिन उनके भी चुनाव में मुख्य मुद्दा हेमंत की सोरेन की गिरफ्तारी है, जिसके नाम पर वे आदिवासी वोटरों की सहानुभूति बटोरने की कोशिश कर रहे हैं। हालांकि यह लोकसभा का चुनाव है, लेकिन राज्य सरकार भी रोजगार जैसे मुद्दों पर विफल रही है और इसलिए उन्हें उठाने से बच रही है। रोजगार के मुद्दे पर जयराम महतो की नई पार्टी झारखंड लोकतांत्रिक क्रांतिकारी मोर्चा खुलकर बोल तो रही है। लेकिन उनकी पहुंच पूरे राज्य और मीडिया तक नहीं है।

वरिष्ठ पत्रकार फैसल अनुराग मानते हैं कि इंडिया गठबंधन की तरफ से कुछ ऐसे मुद्दे उठाए जा रहे हैं, जो आम लोगों के जीवन से जुड़े हैं। जैसे कि संविधान बचाने का नारा, आरक्षण बढ़ाने का मुद्दा और कांग्रेस के पांच न्याय, जिसे गठबंधन की बाकी पार्टियों ने भी स्वीकारा है। वे कहते हैं कि देश की अर्थव्यवस्था में गति देने के लिए और विषमता को कम करने के लिए महिलाओं के लिए एक लाख का सालाना समर्थन बेहतर कदम है। इसी तरह युवाओं के लिए पहली नौकरी पक्की का दावा के साथ कांग्रेस ने गरीबी, बेरोजगारी और महंगाई को अपनी घोषणा पत्र का हिस्सा बनाया है और इस पर मुखरता से अपनी बात रख रहे हैं।

फैसल अनुराग के अनुसार अपनी दस साल की उपलब्धियों पर भाजपा कोई बात नहीं कर रही और भविष्य की योजना पर भी उनके पास 2029 तक के लिए कुछ नहीं है। उन्होंने विकसित भारत का एक एजेंडा दिया है, वो भी 2047 के लिए है। चूंकि देश की सबसे बड़ी पार्टी के पास भविष्य के लिए कोई विजन नहीं है, उनके भाषणों में सांप्रदायिकता का रंग गहरा है।

राजनीतिक पार्टियों के लिए चुनाव में लोगों की प्राथमिकता की कितनी चिंता है, यह इस बात से समझा जा सकता है कि केवल राष्ट्रीय पार्टियों को छोड़कर लगभग सभी क्षेत्रीय पार्टियां अपना घोषणा पत्र तक जारी नहीं करतीं। यह बेहद चिंता का विषय है। जिस पार्टी ने हमें बताया ही नहीं कि वे आगे क्या करने वाले हैं, हम उन्हें वोट किस आधार पर दे रहे हैं? केवल उनके बयानों और भाषणों के आधार पर, जिसमें सिर्फ गैर-जरूरी बातें होती हैं, और जिनसे वे कभी भी पलट सकते हैं? घोषणा पत्र न होने की वजह से उनका आकलन भी नहीं हो पाता है, यह जनता की आंखों में धूल झोंकने के जैसा है।

झारखंड में कई ऐसे गाँव हैं, जहां के लोगों ने वोट का बहिष्कार कर दिया, क्योंकि उनका गाँव तक जाने के लिए अब तक सड़क नहीं है। हालांकि वोट बहिष्कार का समर्थन नहीं किया जा सकता, लेकिन अपनी प्राथमिकताओं के प्रति जागरुक होने के लिए जरूर उनकी सराहना करनी चाहिए। याद रहे कि इस देश में नेताओं के बारात जाने के लिए रातों-रात सड़क और बिजली विशेष गाँव तक पहुंचाई गई है।

वरिष्ठ पत्रकार और लेखक सुधीर पाल य़ह बात मानते हैं कि झारखंड में मुद्दा विहीन राजनीति हो रही है। वे कहते हैं कि भाजपा ने अपने कार्यकाल में जो भी कुछ किया है, वे उसे लोगों तक पहुंचाने में असफल रहे हैं। सोशल मीडिया और अन्य माध्यमों से अप्रासंगिक सूचनाओं को इस तरह से मतदाताओं के सामने प्रस्तुत किया जाता है, कि उनके पास अपने हित के सवाल पूछने का मौका ही न मिले। और चूंकि इसी तहर वे वोट पाने में कामयाब हो जाते हैं, उनके पास जरूरी मुद्दों पर ध्यान न देने का विकल्प मौजूद होता है।

सुधीर पाल इस संदर्भ में मीडिया की भूमिका पर प्रश्नचिह्न लगाते हुए कहते हैं कि चुनाव के दौरान यह एजेंडा सेटिंग की जिम्मेवारी मीडिया की भी है। वे अपनी रिपोर्ट के माध्यम से राजनीतिक पार्टियों के समक्ष देश की वास्तविक तस्वीर पेश करें, जिससे चुनावी घोषणा, मुद्दों और भाषणों में जनहित की समस्याएं आ सकें। लेकिन मीडिया ने राजनीतिक एजेंडे के हिसाब से अपने आप को ढाल लिया है और पार्टियों के अनुसार काम करने लगी हैं।

द फॉलोअप न्यूज पोर्टल के सह-संस्थापक सन्नी शारद कई दिनों से झारखंड की अधिकांश सीटों पर चुनाव की रिपोर्टिंग कर रहे हैं। वे इस बात पर बल देते हैं कि राज्य के लिए जरूरी मुद्दों पर कोई भी पार्टी नहीं बोल रही है, लेकिन उनकी चिंता इस बात को लेकर ज्यादा है कि जनता भी अपने सवालों को उठाने के बजाय सांप्रदायिकता, जातिवाद और अन्य गैर जरूरी बातों में उलझ रही है। सन्नी कहते हैं कि पार्टियां चूंकि इन मुद्दों पर खुद ही फेल रही हैं, वे इन्हें उठाकर अपना ही नुकसान करने से बचना चाहती हैं। उनका मानना है कि आम आदमी ने भी अपना-अपना खेमा चुन लिया है और कार्यकर्ता की शक्ल में नजर आने लगें हैं। हालांकि कुछ लोकल पार्टियां और निर्दलीय प्रत्याशी जरूर स्थानीय मुद्दों की राजनीति कर रहे हैं, लेकिन वे प्रभावी नहीं हैं।

मुद्दा विहीन राजनीति के बहुस्तरीय नुकसान हैं। पहला तो यह कि समाज के वंचित वर्ग की समस्याएं कभी भी सामने नहीं आ पाती और उनका निराकरण नहीं हो पाता। यह एक सामाजिक अन्याय की तरह है। इसमें जो संभ्रांत वर्ग हैं, जिनके पास संचार का पर्याप्त साधन हैं, और जो अपनी आवाज किसी अन्य माध्यम से भी सरकार के पास पहुंचाने में सक्षम है, उनको अतिरिक्त लाभ मिलता है। दूसरा कि सरकार के पास इस बात की सहूलियत होती है कि वे अपनी सुविधानुसार किसी विषय को विमर्श में लेकर आए, या न ले कर आए। तीसरा कि जब राजनीतिक पार्टियों के पास स्पष्ट रोडमैप नहीं हो तो वे लोगों को भटकाने के लिए जाति, धर्म और अन्य भावनात्मक मुद्दों को हवा देते हैं, जिससे समाज का अंतःनिर्मित ढांचा कमजोर होता है और अशांति फैलती है।

समाज के हर पहलू और लगभग सभी समस्याओं का संबंध राजनीति से है। ऐसे में बहुत जरूरी है कि राजनीति की दिशा सही हो। लोकतंत्र में यह जिम्मेवारी सबसे अधिक आम लोगों की होती है, जिनकी प्राथमिकताओं के आधार पर पार्टियां अपने लिए मुद्दों का चुनाव करती हैं। हमारी यह जिम्मेवारी आने वाली नस्लों के लिए भी है, जो हमारी खींची हुई लकीर के आधार पर अपनी लिए प्राथमिकताएं तय करेगा

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विवेक आर्यन

लेखक पेशे से पत्रकार हैं और पत्रकारिता विभाग में अतिथि अध्यापक रहे हैं। वे वर्तमान में आदिवासी विषयों पर शोध और स्वतंत्र लेखन कर रहे हैं। सम्पर्क +919162455346, aryan.vivek97@gmail.com
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