भाषा

भारतीय गाँवों में हिन्दी : स्थिति और गति

 

पूर्वी उ.प्र. के विशेष संदर्भ में

 

लिखने तो चला हूँ गाँवों में हिन्दी की दशा, लेकिन यदि पढ़ने के बाद आपको लगे कि यह तो हिन्दी के नाम पर अंग्रेज़ी की दशा पर लिखा गया है, तो दोष मुझे न दीजिएगा…मै तो वही लिख रहा हूँ, जो हो रहा है। और यदि होने में हिन्दी की कथा अंग्रेज़ी की कथा बन जाये, ‘कथा अंग्रेज़ी की है – हिन्दी के माध्यम से’, तो दोष मेरा नहीं, हिन्दी की स्थिति और अंग्रेज़ी की गति का है। हिन्दी की कथा ही अब प्राय: लुप्त होती जा रही है। उसकी यादें भर हैं – वह भी हमारी गुजरी पीढ़ी के मन-मस्तिष्क में – आज की किशोर पीढ़ी को तो नानी-दादी की कहानियों की तरह बस याद भर दिलायी ज़ा सकती है। कुल मिलाकर यह वही हिंग्लिश है, जो शहरों से लेकर शिक्षा-संस्थानों व मीडिया में सर्वत्र व्याप्त है…।  

पर इस स्थिति को लेकर पहले यह याद दिला दूँ कि हम सुनते-सुनते बड़े-बूढ़े हुए कि भारतवर्ष गाँवों का देश है। और भाषा की प्रकृति को लेकर कहावत रही है कि ‘चार कोस पर पानी बदले, आठ कोस पर बानी’। लेकिन स्वातंत्र्योत्तर काल – बल्कि सत्तरोत्तर (1970 के बाद) काल से देखा जाये, तो ये दोनो ही सचाइयाँ बदलते-बदलते आज तो प्राय: झूठी पड़ गयी हैं। न भारत देश रहा उस तरह के गाँवों का और जो भाषा आज बन रही है, वह आठ तो क्या आठ सौ कोस पर भी न बदलेगी…। सबसे पहले तो सड़कों और पक्के मकानों ने गाँव-गाँव की परिवेशगत निजता को ख़त्म कर दिया। जहां जाओ, सब कुछ एक जैसा दिखता है, जो प्राय: शहर जैसा है। सारी भिन्नताएँ ख़त्म होकर एकरूपता में बदलती जा रही हैं, जिसके लिए अंग्रेज़ी ने ही कहावत बना दी है – यूनीफ़ॉर्मिटी इज अ डेंजर – एकरूपता बहुत बड़ा ख़तरा है।

एक और सामान्य सत्य की बात यह कि नियम-क़ानून और व्यवस्था की तरह ही भाषाएँ भी प्रथम व अंतिम रूप से सत्ता-संचालित होती हैं – बीच में भले कुछ अलग हो जाता हो…। इसके मोटे उदाहरण के रूप में देख सकते हैं कि भारतवर्ष में पाठशाले या विद्यालय में पुस्तक व ग्रंथ पढ़े जाते थे, लेखनी से लिखा जाता था। लेकिन मुसलमानों के लम्बे शासनकाल में मदरसे में किताबें पढ़ी जाने लगीं व कलम से लिखा जाने लगा। इस वृत्ति के असर का परमान यह कि मेरे स्कूल के पास गाय चराने वाली एक बूढ़ी स्त्री ने हमारी शरारतों से आजिज़ आकर एक दिन झल्लाकर ऊँची आवाज़ में पूछा था – इस मदरसे का सबसे बड़ा मुद्दरिस कौन है। फिर अंग्रेज़ी राज्य में स्कूल में बुक्स पढ़ी जाने लगीं व पेन से लिखा जाने लगा। लेकिन पता नहीं क्यों खेती-बारी के काग़ज़ात अंग्रेज़ी में नहीं किये जा सके!! उर्दू में ही रह गये, जबकि इस्तमुरारी…वग़ैरह बंदोबस्त अंग्रेज सरकार ने काफ़ी कराये थे। देसी राज्यों-रियासतों को हड़पने के लिए तो काफ़ी नियम बनाये गये थे…। इसलिए आज़ादी मिलने के काफ़ी दिनों बाद ही सही, चकबंदी के दौरान (1970 के बाद) हिन्दी प्रदशों में सारे काग़ज़ात उर्दू से सीधे हिन्दी में हो गये हैं। फिर भी प्रयोग के तमाम शब्द महसूल-मुवक्किल-जिरह-बयान-गवाही…आदि आज भी बाक़ायदे मौजूद हैं…। इसी प्रकार हज़ारों सालों में हमारे पिता-माता भी सौभाग्य से या ‘माता-पिता च भगवन’ वाली संस्कृति के प्रताप से अब्बू-अम्मी न बन पाये थे, लेकिन पितृव्य से बने पित्ती वाले जो काका होते थे, वे अवश्य चाचा-चाची होकर समादृत हुए। फिर अंकल-आंटी हुए, तो आज तक बने बैठे हैं और रहेंगे…। बीजेपी शासन से मन में उम्मीद है कि जैसे धारा 170 बदली, एवं शहरों-जगहों के विदेशी व विजातीय संस्कृति वाले नाम बदल रहे हैं – शायद कभी अपने इन मूल भारतीय शब्दों के भाग भी खुलें, लेकिन सरकार के बनाए रखने की उठापटक की गहमागहमी के बीच इधर ध्यान जा पाये, तब तो…!! 

फिर उसके बाद विज्ञान-तकनीक के दौर में 35-40 सालों पहले जो मशीनी खेती की शुरुआत हुई, उसने तब से गाँवों को बदलते-बदलते पिछले 10-15 सालों में पारम्परिक किसानी संस्कृति को निर्मूल कर दिया। हल-बैल व तरह-तरह के कृषि-कर्म के साधनों व तौर-तरीकों के बदले सब कुछ यंत्रमय होकर एक जैसा हो गया…। और वे सारे यंत्र अंग्रेज़ी में आये हैं। 1962-63 के दौरान मेस्टन हल सबसे पहले आये थे, तब गाना बना था – पुष्ट-पुष्ट बैल राखा, मेस्टन हल राखा; घने-घने खेतवा जोतावा, मन खेतिया में लगावा। और तभी हमारे कई-कई हलों -दबेहरा-खुटहरा-नौहरा…आदि जैसे अन्य कृषि-साधनों के साथ शब्दों के लोप के संकट मंडराये थे। डिब्लर भी उसी वक्त आये। हमारे स्कूलों में हमें टहोका गया कि अपने खेतों में डिब्बलर से गेहूं बुवाओ। काका से छरिया के पाँच बिस्सा मैंने भी बुवाया था। उससे बीज बहुत कम लगता और फसल सचमुच अच्छी होती। इससे ऐसा प्रचार हुआ कि पाँच सालों बाद हमारे हाई स्कूल का प्रिंसिपल डिब्लर से अपने कई एकड़ खेतों में गेहूं बोने के लिए हम छात्रों को ले गया। उसकी इस करतूत के ख़िलाफ़ हम सीधे विद्रोह तो न कर पाये, पर बदला लिया दूसरी तरह से – हर छेद में दो-तीन दाने के बदले मुट्ठी-मुट्ठी भर गेहूं डाल आये। जब जमा – याने अंकुर फूटे, तो देख के पगला गये विश्वनाथ राय, पर हमारा कुछ न कर सके। सारा गेहूं फिर से बुवाया अलबता – हल से। फिर तो मेस्टन का हज़ार गुना बड़ा रूप ट्रैक्टर आ गया और अब डिब्लर का बहुत प्रगत (ऐडवाँस) रूप सीडर आ गया है। आदमी के काम ही लगभग ख़त्म हो गये, जिससे सहकारिता…आदि मानवीय संस्कृति का लुप्त होना लाज़मी होता गया।

यहाँ कहना यह कि मेस्टन, ट्यूपवेल-पंपिंग सेट, डिब्लर-सीज़र-ट्रैक्टर…आदि शब्दों ने गाँव को तब से विदेश-सा बनाना शुरू किया और हर क्षेत्र में विदेशी रहन-सहन और इसके चलते विदेशी (अंग्रेज़ी) भाषा जीवन में घुलती-मिलती जा रही – नतीजा है हिन्दी का लुप्त होते जाना…।   फलतः आज तो कल्टीवेटर (तब का दबेहरा) लेबलर (हेंगा), रोटावेटर जैसे गाढ़े शब्द भी आ गये हैं। इन्हें हिन्दी में समझने की ज़रूरत ही न रही। सब लोग देख के समझ रहे हैं और आदमियों के नामों की तरह उनकी सहज-स्वायत्त पहचान बन रही है। सबको भूल ही गया है कि ये अंग्रेज़ी के शब्द हैं। ऐसे शब्दों के लिए पहले हिन्दी शब्द बनते थे। अब ऐसा करने की याद ही नहीं रही – किसी को पड़ी ही नहीं, जिसका मतलब है कि अपनी भाषा के प्रति वह लगाव ही नहीं रहाँ…भूल गया है कि ‘निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति का मूल’। सो, इनके हिन्दी शब्द-संधान की ज़रूरत नहीं। वरना जब सरकारी ट्यूपबेल खुले थे, तो नलकूप शब्द रवाँ करने की कोशिश हुई थी। आकाशवावाणी-दूरदर्शन जैसे शब्द बनाये ही गये थे, जो काग़ज़ों में खप गये। आज बोलचाल के प्रयोग में नहीं हैं – जबकि होने चाहिए थे। लेकिन कभी थे, तो सबके संज्ञान में आज भी हैं। जीवन में तो टीवी-रेडियो ही रह गये और अब ये हिन्दी के शब्द जैसे हो गये हैं। एक सिफ़त और आयी है, जिसे पुन: अंग्रेज़ी के लिए ही, पर विकास कह सकते हैं। इन यंत्रों व अंग्रेज़ी-भाषा परास्त माहौल में जन्मी पीढ़ी के लोग इतने मंजते जा रहे हैं कि कल्टीवेटर-रोटावेटर बोल लेते हैं। वरना तब तो पंपिंग सेट को हमारे ग्रामीण भाई ‘सर्पिंग पेट’ (जो ज्यादा असड्ढल है) कहते थे और सुनकर बड़ा मज़ा आता था।

फिर घरों में गैस आयी, तो सिलिंडर आया। फ्रिज-टीवी-एसी-गीज़र-फ़िल्टर-माइक्रो आये, जिन्हें फिर भी समझा जा सकता है – नयी शब्दावली की तरह लिया जा सकता है…। लेकिन थालियाँ-कटोरियाँ क्यों डिशेज-प्लेट हो गयीं, प्याली की चाय क्यों कप हो गयी, रसोईं-घर क्यों किचन हो गये… आदि-आदि पर क्या सोचा जाये? कब हो गये, का भी किसी को भान न हुआ… हो जाने पर किसी को कोई चिंता भी नहीं है! फिर जब पक्के घर बने, तो बेड रूम, बाथ रूम, बालकनी ही बने। दालान बनने ख़त्म हुए, तो बढ़ गये गलियारे – लेकिन कारीडोर बनकर…। कोठे बेचारे उजड़ के एक कोने में स्टोर-रूम बन गये। (मेरे चाचा के घर में तो दो इतने बड़े कोठे हुआ करते थे कि 8 में पढ़ते हुए जब भाभी आयी, जो अभी ज़िंदा है, तो हम उनके साथ कोठे पर कबड्डी खेलते थे)। जब हमारे बचपन में किसी के घर में एकाध कमरे पक्के हुए थे, छत होती थी, जो अब घर-घर में टेरेस हुई जा रही है…। स्नानघर तो काग़ज़ों में ही था – वहीं रह गया। शयनागार तो गाढ़ी किताबों (दिव्या, बाणभट्ट की आत्मकथा…आदि) में ही रह गये। बेसिन बिलकुल न थे, आ धमके। फिर शौचालय तो क्या बनते, वे तो सरकारी भवनों में बोर्ड बनकर खिसियाए पड़े हैं – बन गये सीधे लैट्रिन रूम ही। तो अब कोई टट्टी-कुल्ला-पाखाना…आदि क्यों करे, गाँव का भला-भोला आदमी भी सीधे लैट्रिन करने लगा है – कई शब्दों का झंझट ही ख़त्म हो गया। अब यह बताना भी मूर्खता होगी कि आड़ में किये जाने वाले ऐसे कामों के लिए हमारी भाषिक संस्कृति में एकाधिक शब्द क्यों होते थे। बस, बेचारा पेशाब आज भी आता-होता है। हालाँकि वह भी जाँच के लिए जाता है, तो ‘यूरीन टेस्ट’ ही होता है। रक्त-जाँच के बोर्ड लगे हैं अस्पतालों में, लेकिन होता तो ‘ब्लड टेस्ट’ ही है। अस्पताल-अकादमी के प्रयोग कितने समान व सुंदर थे! आसानी के लिए थे, लेकिन अब हास्पीटल व अकैडेमी भारी पड़ गये हैं – भाषा विज्ञान का मुख-सुख मुँह देखता रह जाता है और अंग्रेज़ी के कठिन शब्दों को लोक ले (कैच कर ले) रही है जीभ, जो जिह्वा की तरफ़ न जाकर टंग की तरफ़ उन्मुख है। हिन्दी प्रदेशों की इस विडम्बना पर तो अलग आलेख की ज़रूरत होगी कि महाराष्ट्र में अस्पताल क्यों नहीं बने? वहाँ क्यों रुग्णालय व औषधालय बने, जो आज भी चल रहे हैं!! लेकिन अभी तो यह देखें कि ज़र-बुख़ार-जुकाम भी अब फीवर बनकर आने लगे हैं। देह-दर्द जैसा प्रासमय शब्द बॉडी-पेन बन गया है। सरदर्द होना कम हो रहा है, हेडेक बढ़ रहा है। बस पेट-दर्द बना हुआ है – स्टमक पेन अभी तक कहीं गर्त में तड़प रहा होगा…। हमारे बचपन में लगे क्ष-किरण (एक्सरे) के पटों (बोर्डों) की व्यर्थता उन्हें खुद ही समझ में आ गयी – बेचारे हट गये…। बहरहाल,

गाँवों में हिन्दी

आगे बढ़ें…ऊपर बताये हुए घर में अम्मा या माई व बाबूजी तथा दादा-दादी लोग रहेंगे, तो  यह बेडरूम-बाथरूम, स्टोररूम-टेरेस वाला घर बेहद बेचारा नहीं हो जायेगा और उसमें रहने वाले लोग समाज में पिछड़े – बल्कि बैकवर्ड नहीं हो जायेंगे…!! तो फिर अब इसमें मम्मी-डैडी रहने लगे – रमचन्ना की माई हो गयी – रामचरन की मम्मी। फिर बेचारे दादी-दादा भी हो गये – ग्रैंड फादर-ग्रैंड मदर…। और अब वह दिन, वह मंज़िल दूर नहीं, जब ये लोग मॉम-पॉप और ग्रेनी होने की राह पकड़ लेंगे…, जो शहरों में कब के हो चुके हैं!! अब तो हमारे नये बच्चे भी एक बेटा-एक बेटी के बदले बड़ी शान से हमारे वन सन वन, वन डॉटर और हम टू ब्रदर्स-सिस्टर्स कहने लगे हैं…। इसमें आयी गिनतियों का मामला तो कहने लायक़ ही नहीं – यह तो गोया अंग्रेज़ी की रवाँ ही हो गयी है – प्राय: मानक-सी। फिर टू-थ्री-फ़ोर…आदि तो विचारणीय क्या, उल्लेख्य भी नहीं रहे। सबसे बुरा हाल सास-ससुर का हुआ है। हमारे यहाँ ये मां-पिता के स्थानापन्न हुआ करते थे। जंगल में सीता ने अपने पालकों को पिता-माता नहीं, सास-ससुर के समान कहा है – ‘बनदेवी बनदेव उदारा, करिहहिं सास-ससुर सम सारा’। लेकिन अब वे अंग्रेज़ी की औपचारिक संस्कृति में फादर-इन-लॉ, मदर-इन-लॉ के रूप में क़ानूनन-माँ-पिता हो गये हैं। फिर संक्षिप्त रूप (शॉर्ट फ़ॉर्म) बनाने की अंग्रेज़ी प्रवृत्ति के तहत बोलने-कहने में वे सिर्फ़ लॉज रह गये – ‘माइ लॉज हैव कम’ – याने क़ानूनी माँ-बाप से सिर्फ़ क़ानून भर रह गये। साले-बहनोई की स्थिति हमारे यहाँ भी अच्छी न थी – मज़ाक़ से गाली तक में इस्तेमाल होता रहा। सो, उसके लिए तो ब्रदर-इन-लॉ से सिर्फ़ लॉ बन जाना उतना खलने वाला भी नहीं…। और सास-ससुर के लिए हो गया है, तो अब साले के लिए होगा नहीं। भाषा में शब्द दुहराए नहीं जाते – बदल कर नये कलेवर में आ जाते हैं…।  

अब ऐसे घरों में ऐसे रिश्तों के साथ रहने वाले लोग यदि भात-दाल खायेंगे, तो कैसा लगेगा!! लिहाजा वे अब तो राइस-दाल खाते हैं…। चावल-दाल तो शरीफ़ लोग हमारे बचपन से ही खा रहे हैं – याने चावल-भात का अंतर तभी मिट गया था…। सो, खाने के लिए चावल को भी राइस बनने में देर न लगी। पुलाव पर मैं सम्भ्रम में हूँ कि हमारे यहाँ का ही शब्द है क्या, क्योंकि धुर बचपन में अकाल-सूखे के समय में जब धान कई साल न हुए, तो मेरे भात-प्रेम की नंगई पर व्यंग्य में मेरी बहन कहती थी – हमरे भइया के ‘पोलाव’ चाही। अब मंचूरियन ….आदि बन गये। हमारा परौठा बस आधुनिक होकर पराठा भर हुआ है। बचपन में ब्रेड का मतलब रोटी पढ़ाया गया था। बाद में पता लगा कि वह पावरोटी होना चाहिए था। लेकिन रोटी इसीलिए ब्रेड नहीं हुई कि तब तक ब्रेड भी आ गये थे। लेकिन इसके साथ ही ब्रेड के साथ बटर आ गया और रोटी पर मक्खन लगने बंद हो गये – ब्रेड पर बटर लगने लगा। हाँ, होता तो लगता, पर घी ही लुप्त होता जा रहा…। और अब जब नयी खेती में ट्रैक्टर के चलते बैल चले गये और कटाई की मशीन के साथ भूसा-पुआल उड़ गए, तो गाय-भैंसों के होने पर भी संकट आ गया। लिहाज़ा अब प्लास्टिक के थैले में दूध नहीं, पैकेट में मिल्क आने लगे हैं। ज्यादा गाढ़े वाले मिल्क अब गोल्ड हो गये और सामान्य मिल्क हो गये हैं – ताज़ा। मिठाइयाँ भी स्वीट बनती जा रही हैं – देखो, फ्रिज में कोई स्वीट है…!!

ठेंठ गाँवों में हिन्दी की ऐसी बेदरकारी और अंग्रेज़ी की इस तरह की सर्व-स्वीकृति के पीछे अंग्रेज़ हुकूमत के गहरे असरों, विज्ञान-तकनीक के आविष्कारों, जीने की किंचित सुविधाओं… आदि सारे कारणों के साथ ही एक बड़ा -बल्कि सबसे बड़ा- कारक तत्व है – अंग्रेज़ी की सनक (क्रेज़)। यह आधुनिक होने का, प्रगत होने का प्रतीक बन गया है। अंग्रेज़ी का फ़ैशन चल गया है। यह इज्जत का प्रश्न नहीं, स्टेटस सिम्बल बन गया है। बीमार से यह पूछना – ‘कोई दवा ली’, के मुक़ाबले ज़्यादा बड़प्पन लगता है यह पूछने में कि ‘कोई मेडिसिन ली’? तबियत अब सुधरती नहीं, इम्प्रूव होती है। लोग कपड़े पहनते नहीं, ड्रेस-अप होते हैं। कपड़े बदलते नही, ड्रेस चेंज करते हैं…। बाल बनवाते नहीं, ‘हेयर कट’ कराते हैं। हद तो यह है कि बाल काटने वाले ‘जेंट्स ब्यूटी पॉर्लर’ हो जाते हैं, तभी गौरवान्वित होते हैं। कभी ‘केश कर्तनालय’ दिखा था, पर कुछ दिनों में शरमा के ‘डायमंड मेन्स पॉर्लर’ हो गया। अच्छा ख़ासा मिष्ठान्न भंडार अब कन्फ़ेक्शनरी हो गया, भले किसी की समझ में न आये…। अब किंग्स पैलेस होटेल होता है – राजमहल होटेल कहना आधुनिकता की शान में गुस्ताखी है।

कितना गिनाएँ…!! हिन्दी बन गयी है – प्रगतिशीलता पर लगा बट्टा। गाँव नाम के रह गये हैं। सारे बात-व्यवहार, रहन-सहन, खान-पान, खेती-बारी…आदि जिनसे गाँव बनते थे, सब अंग्रेजीमय हो गये हैं। बस, वाक्यों में जो क्रियाएँ हैं, वही हिन्दी की रह गयी है। सारी शब्द-सम्पदा जीवन से बहिष्कृत हो गयी है। स्वतंत्र भारत में भी अंग्रेज़ी रानी की चेरी हो गयी है हिन्दी।   

मैं अपने देश-प्रेम व भाषा-प्रेम में उस दिन किसी मित्र से फ़ोन पर बता रहा था कि गाँव जाना है – पोती की शादी है, तो बग़ल में बैठा बेटा फुसफुसा रह था – ग्रैंड डॉटर बोलो – वो नहीं समझ पायेंगे तुम्हारी ‘पोती’ को !! पर मैं अभी तक बोलने की ज़िद पर अड़ा हूँ कि लोग भले न समझें, हम तो बोलेंगे – ग़ालिब के प्रेमी की तरह – ‘ख़त लिखेंगे, गरचे मतलब कुछ न हो’…!! 

और मेरा सौभाग्य है कि मैं ऐसे गाँव में भी चाचा से सीधे बाबा हो गया हूं – ग्रैंडपा नहीं हुआ।

लेकिन बकरी की मां कितने दिन ख़ैर मनायेगी…?

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सत्यदेव त्रिपाठी

लेखक काशी विद्यापीठ के पूर्व प्रोफ़ेसर हैं। सम्पर्क +919422077006, satyadevtripathi@gmail.com
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