हिन्दी-हिन्दुस्तानी और भाषा का लोकतन्त्र
अभी पिछले महीने सितम्बर में काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में प्रख्यात राजनीतिक चिन्तक और अध्येता आदित्य निगम के दो व्याख्यान आयोजित हुए। उन व्याख्यानों का शीर्षक था: “वि-उपनिवेशिक चिन्तन: विविध परम्पराओं के दरमियान”; और “भारत और ज्ञान का विऔपनिवेशिकरण: चंद उलझे हुए सवाल”। व्याख्यान के अन्त में प्रश्नोत्तर काल में कुछ श्रोताओं ने शीर्षक में “दरमियान” और “चंद उलझे हुए सवाल” जैसे शब्दों के प्रयोग पर यह कहते हुए आपत्ति जतायी कि ये शब्द तो बाहरी हैं यानी अरबी या फ़ारसी स्रोत से लिये गये हैं। इसलिए ऐसे शब्दों का प्रयोग हमें नहीं करना चाहिए और वह भी ख़ासकर जब हम विऔपनिवेशिकरण की बात कर रहे हैं। एक श्रोता ने तो यह भी टिप्पणी की कि “जब मन औपनिवेशिक हो जाता है तब परिप्रेक्ष्य का ‘दरमियान’ हो जाता है और कुछ जटिल प्रश्न बन जाते हैं ‘चंद उलझे हुए सवाल’”।
देखने में तो यह बहुत ही मामूली और साधारण सी घटना लगती है किन्तु मेरी समझ से इस घटना का एक व्यापक और दूरगामी सन्दर्भ है। यह घटना हमारे देश और समाज में बड़े पैमाने पर परिघटित हो रही बदलाव की ओर इशारा करती है। यह घटना उस व्यापक प्रवृति का द्योतक है जो हमारे वर्तमान समय में उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के रूप में उभरा है। इस उग्र सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के दो पक्ष हैं। पहला पक्ष है राष्ट्र की एकता या राष्ट्र की मज़बूती के नाम पर हमारे समाज और संस्कृति को एकरूप और इकहरा बनाने की कोशिश। इस उपक्रम के तहत हमारे देश और समाज को भी “एक राष्ट्र, एक जन, एक संस्कृति, एक भाषा” के मॉडल पर ढालने की कोशिश की जा रही है। इस तरह के उपक्रम का हमारी बहुधर्मिक, बहुसांस्कृतिक और बहुभाषिक विरासत पर किस तरह का कुठाराघात होगा और इसके क्या दूरगामी नकारात्मक परिणाम होंगे-इस कल्पना से ही डर लगता है। उसी से जुड़ा दूसरा पक्ष है शुद्धतावाद का आग्रह। ये दोनों ही एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। इसके तहत धर्म और संस्कृति से लेकर ख़ान-पान और भाषा तक सभी के शुद्धीकरण की क़वायद की जा रही है और इन सबसे विधर्मी या विदेशी तत्त्वों को चुन-चुन कर बाहर किया जा रहा है।
इस राष्ट्रवाद के समर्थकों और पक्षधरों का मानना है कि इन विधर्मी और बाहरी तत्त्वों के मिलावट की वजह से हमारा समाज और संस्कृति दोनों हीं दूषित और भ्रष्ट हो गये हैं, और अगर हमें अपने समाज और संस्कृति के पुरातन स्वरूप और गौरव को लौटाना है तो इन्हें इन सब विधर्मी तत्त्वों से मुक्त करना होगा। इस शुद्धतावाद और एकरूपता के दुराग्रह में बहुलता का निषेध है; यह हमारी साझी संस्कृति और विरासत को नकारता है। यह राष्ट्रवाद का वही संकीर्ण और कुरूप चेहरा है जिसके प्रति गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने आगाह किया था और जो आज और उग्र रूप में हमारे सामने एक चुनौती बन कर खड़ा है।
ऊपर जिस घटना का मैंने ज़िक्र किया वह इसी राष्ट्रवादी प्रवृत्ति का एक छोटा सा नमूना है। लेकिन यह प्रवृत्ति कोई नयी नहीं है। इसका एक लम्बा इतिहास है, इसकी जड़ें 19वीं सदी के ब्रिटिश औपनिवेशिक शासन काल और उसके प्रत्युत्तर में उभर रहे राष्ट्रवाद और बाद के राष्ट्रीय आन्दोलन तक जाती हैं। हमारे राष्ट्रीय आन्दोलन की सबसे बड़ी सफलता यह रही कि हमें आज़ादी मिली लेकिन इसीसे से जुड़ा एक दुखदाई पक्ष यह भी है कि आज़ादी विभाजन की क़ीमत पर मिली। हमारा देश 15 अगस्त 1947 को आज़ाद तो हुआ लेकिन देश के दो टुकड़े हो गए। अब तो वह तीन हिस्सों में बंट गया है: हिन्दुस्तान, पाकिस्तान और बांग्लादेश। ऐसा लगता है कि इतिहास से हमने कोई सबक़ नहीं लिया और हम अभी भी उसी रास्ते पर चल रहे हैं।
इन बातों के विस्तार में ना जाकर, फ़िलहाल मैं अपनी बात को भाषा के सन्दर्भ में रखना चाहूँगा। यों तो 19वीं सदी में औपनिवेशिक शासन के दौरान अधिकांश आधुनिक भारतीय भाषाओं का प्रिंट भाषा के रूप में उभरने के क्रम में उनका मानकीकरण होता है। इसी के साथ उनके तत्समीकरण की प्रक्रिया भी होती है जिसका सम्बन्ध उस समय उभरते हुए राष्ट्रवाद के एक महत्त्वपूर्ण धड़े या धारा से रहा है। किन्तु हिन्दी के साथ यह प्रक्रिया एक ख़ास रूप ले लेती है जिसके चलते हिन्दी-उर्दू-हिन्दुस्तानी विवाद की शुरुआत होती है। इसकी परिणति हिन्दुस्तान-पाकिस्तान विभाजन के रूप में होती है। दुर्भाग्य से इतने वर्षों के बाद भी यह प्रक्रिया थमी नहीं है बल्कि और भी जोर पकड़ती जा रही है।
पहले ब्रिटिश हुकूमत की विभाजनकारी नीति और बाद में हमारी भाषा के प्रति रूढ़िवादी सोच और रवैये के कारण, जिसमें हिन्दू और मुसलमान दोनों पक्षों के लोग शामिल थे, हिन्दी और उर्दू अलग-अलग भाषाओं के रूप में अस्तित्व में आयीं। जो कभी पेशावर से बंगाल की सीमाओं तक फैली भारत के लोगों की एक साझा आम भाषा थी, उन्नीसवीं शताब्दी का अन्त आते-आते दो अलग भाषाओं-हिन्दी और उर्दू में विभाजित हो गयी और दो कृत्रिम रूप से अलग भाषाई और साहित्यिक संस्कृतियों का उदय हुआ। हिन्दी और उर्दू को पहले पहल अँग्रेजों ने अलग किया; यह काफी हद तक उनके द्वारा अपनाई गयी औपनिवेशिक भाषा नीति के कारण हुआ। शुरू से ही वे हिन्दुओं और मुसलमानों को दो अलग-अलग कौम मानते थे, जिनमें से प्रत्येक का अपना इतिहास, संस्कृति और भाषा थी। उन्होंने धर्म और संस्कृति के आधार पर हिन्दुस्तान की भाषाओं को वर्गीकृत करने और बाँटने का प्रयास किया।
जॉन बोर्थविक गिलक्रिस्ट, जो कि फोर्ट विलियम कॉलेज में हिन्दुस्तानी के प्रोफेसर थे, ने सबसे पहले लिपि और धर्म के साथ भाषा को जोड़ा था और वहाँ अपने कार्यकाल के दौरान उसी कॉलेज में नियुक्त भाषा मुंशियों के सहयोग से हिन्दुस्तानी की दो शैलियों को दो अलग-अलग भाषाओं के रूप में सक्रिय रूप से बढ़ावा दिया-फारसी लिपि में हिन्दुस्तानी/उर्दू और नागरी लिपि में हिन्दवी/हिन्दूइ/हिन्दी जिसमें से सभी विदेशी शब्दों को हटा दिया गया था। हिन्दी और उर्दू के बीच में खाई और बढ़ी जब अँग्रेजों ने 1837 में निचली अदालत और प्रशासन की भाषा फ़ारसी लिपि में हिन्दुस्तानी (उर्दू) के प्रयोग करने का फ़ैसला किया। इसके विरोध में 19वीं सदी के उत्तरार्ध में नागरी आन्दोलन किया गया। प्रकान्तर से लिपि का मुद्दा भाषा, पहचान/अस्मिता और राष्ट्र के प्रश्न के साथ घनिष्ठ रूप से जुड़ गया। इस प्रक्रिया में लिपि-भाषा-धर्म का एक नया समीकरण उभराः फारसी/नास्तालिख-उर्दू-मुस्लिम और नागरी-हिन्दी-हिन्दू। इस नए समीकरण ने लिपि और भाषा (भाषाई पहचान) को धार्मिक पहचान के साथ जोड़ दिया।
बाद के दिनों में सांस्कृतिक/धार्मिक राष्ट्रवादियों, हिन्दू के साथ-साथ मुस्लिमों, द्वारा इसे अलग और एक्सक्लूसिव राष्ट्रीय पहचानों के गढ़ने में इस्तेमाल किया गया जिसकी परिणति एक मुस्लिम पाकिस्तान और बहुसंख्यक हिन्दू आबादी वाली भारत में हुई। हिन्दू राष्ट्रवादियों में यह भावना पैदा हुई कि वे ही इस राष्ट्र के मूल निवासी हैं और इसलिए वे ही इसके सच्चे उत्तराधिकारी हैं। मुसलमान तो आक्रमणकारी के रूप में बाहर से आये हैं। इसी के साथ भाषा सम्बन्धी यह भी मान्यता रूढ़ हुई कि ‘शुद्ध’ हिन्दी जिसका उद्भव देवभाषा संस्कृत से हुआ है उनकी वास्तविक और असली भाषा है। यह ‘शुद्ध’ हिन्दी भारत में मुसलमानों की उपस्थिति से अरबी और फ़ारसी शब्दों से दूषित हो गयी थी। इसलिए, शुद्ध हिन्दी को सभी विदेशी प्रभावों से शुद्ध और अलग करके उसकी वास्तविक राष्ट्रीय स्थिति में वापस लाने और बहाल करने की आवश्यकता है। इस सबका नतीजा तो हम देश के बँटवारे के रूप में देख ही चुके हैं।
भाषा के मुद्दे को लेकर एक बार फिर बहस संविधान सभा में छिड़ी। यह बहस इस बात को लेकर थी कि राष्ट्र भाषा का दर्जा कैसे दिया जाए-हिन्दुस्तानी जिसे देवनागरी और फ़ारसी दोनों लिपि में लिखा जा सके या देवनागरी लिपि में हिन्दी। जब जुलाई 1946 में कैबिनेट मिशन प्लान के तहत संविधान सभा का गठन हुआ तब हिन्दुस्तान-पाकिस्तान के विभाजन की घोषणा नहीं हुई थी और ना ही लोगों के मन में यह बात थी कि हिन्दुस्तान का वाक़ई में बँटवारा हो जाएगा। हालाँकि तब तक साम्प्रदायिक माहौल काफ़ी बिगड़ चुका था, हिन्दू मुस्लिम साम्प्रदायिकता अपने चरम पर थी और मुस्लिम लीग पाकिस्तान की माँग ज़ोर शोर से कर रहा था। उस समय तक राष्ट्र भाषा बनाने के प्रश्न पर हिन्दुस्तानी जिसे देवनागरी और फ़ारसी दोनों लिपि में लिखा जा सके को अभूतपूर्व समर्थन हासिल था। इसमें दक्षिण के राज्यों को भी कोई आपत्ति नहीं थी। वे भी इसके समर्थन में थे।
यहाँ पर महात्मा गाँधी के भाषा सम्बन्धी विचारों को जानना ज़रूरी है चूँकि उन्हीं के पहल पर हिन्दुस्तानी को राष्ट्र भाषा बनाने की मुहिम परवान चढ़ी थी। उनका मानना था कि हिन्दुस्तान की एक राष्ट्र भाषा होनी चाहिए और यह भाषा ऐसी होनी चाहिए जिसे आम व्यक्ति आसानी से बोल और समझ सके। उनके विचार से हिन्दुस्तानी भाषा जिसे देवनागरी और फ़ारसी लिपि दोनों में लिखी जा सके इसके लिए सर्वथा उपयुक्त भाषा थी। उनके अनुसार हिन्दुस्तानी-हिन्दी और उर्दू का मिश्रण-भारत के लोगों के एक बड़े वर्ग की एक लोकप्रिय भाषा थी और यह एक ऐसी साझा भाषा थी जो विविध संस्कृतियों के परस्पर आदान-प्रदान से समृद्ध हुई थी। एक लम्बे समय से कई अलग-अलग स्रोतों से शब्दों को इसमें शामिल किया गया था और इसलिए विभिन्न क्षेत्रों के लोगों द्वारा इसे जाना-समझा जाता था।
महात्मा गाँधी का मानना था कि यह बहु-सांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के बीच संचार की सर्वोत्तम भाषा होगी। इसमें हिन्दुओं और मुसलमानों, और दक्षिण और उत्तर के लोगों को एकजुट करने की क्षमता थी। उनकी स्पष्ट राय थी कि हिन्दी और उर्दू दो अलग भाषाओं नहीं हैं। ये दोनों एक ही भाषा हैं। इन के बीच का विभाजन कृत्रिम है। उन्होंने कहा था कि “हिन्दुओं का अपनी बोली/भाषा से फारसी शब्दों को ख़ारिज करना और मुसलमानों का अपने बोली से संस्कृत शब्दों को ख़ारिज करना बिलकुल फ़ज़ूल है। दोनों का सामन्जस्यपूर्ण और सुसंगत मिश्रण गंगा और यमुना के संगम जितना ही सुंदर होगा और साथ ही साथ यह चिरस्थायी भी होगा।”
यह उन्हीं के अथक प्रयासों का नतीजा था कि बिगड़े हुए साम्प्रदायिक माहौल में भी हिन्दुस्तानी को राष्ट्र भाषा बनाने के नाम पर एक व्यापक सहमति क़ायम हुई थी। लेकिन हिन्दुस्तानी के पक्ष में यह सहमति और समर्थन क्षणिक साबित हुई। जैसे ही विभाजन की बात सामने आयी, यह सहमति पूरी तरह से बिखर गयी। संविधान सभा में हिन्दी और हिन्दुस्तानी को लेकर काफ़ी तल्ख़ विवाद हुआ, इस विषय पर तीखी और कटु बहसें हुईं, आरोप और प्रत्यारोप के दौर चले। दोनों पक्षों के समर्थकों के बीच मानों तलवारें सी खिंच गयीं हो। देवनागरी लिपि में हिन्दी के समर्थक बहुमत में थे और इनका नेतृत्व पुरुषोत्तम दास टंडन, सेठ गोविंद दास, संपूर्णानंद, के एम मुंशी, रवि शंकर शुक्ल और आर वी धुलेकर कर रहे थे। एक समय तो बहस के दौरान आर वी धुलेकर ने ये कहा कि जिसको हिन्दी नहीं आती है उसे यहाँ हिन्दुस्तान में रहने का कोई अधिकार नहीं है।
सेठ गोविंद दास ने तो 12 सितम्बर 1949 के बैठक के दौरान परोक्ष रूप से धमकी दे डाली कि “हमने लोकतन्त्र को अपनाया है और लोकतन्त्र तभी कारगर हो सकता है जब बहुमत के मत का सम्मान किया जाए।” एक तरह से उनका यह दावा था कि अगर उनके पक्ष की बात ऐसे सीधे बातचीत से नहीं मानी गयी तो फिर मत विभाजन के ज़रिये देवनागरी लिपि में हिन्दी के पक्ष में बहुमत के बल पर निर्णय मनवाया जाएगा। जबकि संविधान सभा में यह बात तय हुई थी कि हर मसले का हल आम राय और सहमति के आधार पर निकाला जाएगा न कि मत विभाजन के आधार पर। इस सम्बन्ध में जी दुर्गाबाई जो मद्रास से निर्वाचित सदस्य थीं का संविधान सभा की बैठक में दिया गया वक्तव्य उल्लेखनीय है: “भारत के लिए राष्ट्र भाषा का प्रश्न, जिस पर अभी हाल तक सभी एकमत थे, अचानक एक अत्यधिक विवादास्पद मुद्दा बन गया है। ग़लत या सही, गैर-हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोगों को यह भान कराया जा रहा है कि हिन्दी भाषी क्षेत्रों की यह लड़ाई या रवैया भारत की साझा संस्कृति पर अन्य भारतीय भाषाओं के प्राकृतिक प्रभाव को नकारने और रोकने का एक कारगर तरीक़ा है। ”
ख़ैर अन्ततोगत्वा बहुमत के दबाव में देवनागरी लिपि में हिन्दी को भारत की आधिकारिक भाषा के रूप में स्वीकार तो कर लिया गया लेकिन इस विवाद के चलते इसे राष्ट्र भाषा का दर्जा नहीं मिल सका। और यह एक तरह की पाइरिक विजय ही है जिसमें विजय तो हासिल हो गयी लेकिन उसकी क़ीमत अभी भी लगातार चुकानी पड़ रही है। नतीजा यह है कि हिन्दी सिर्फ़ उत्तर भारत की भाषा बन कर रह गयी है और दक्षिण के राज्यों को हिन्दी नहीं स्वीकार्य है।
यहाँ सवाल यह उठता है कि हिन्दुस्तानी तो दक्षिण के राज्यों को स्वीकार्य था, फिर देवनागरी लिपि में हिन्दी क्यों नहीं? देवनागरी लिपि में हिन्दी के शुद्धतावादी आग्रह ने न सिर्फ़ धर्म के आधार पर भाषा का बँटवारा किया बल्कि नस्लीय आधार-आर्य बनाम द्रविड़-पर भी एक फ़ांक डाल दी। नतीजतन दक्षिण के राज्यों को यह स्वीकार्य नहीं था और अभी भी नहीं है।
ज़रूरत है इतिहास से सबक़ लेने की और पूर्व की ग़लतियों से सीख लेते हुए आगे बढ़ने की। नहीं तो फिर हम वही ग़लतियाँ दुहराते रहेंगे और इससे न हिन्दी का भला होगा न ही अन्य भारतीय भाषाओं का। आज के समय भी अन्य भारतीय भाषाओं को हमेशा यह डर बना रहता है कि हिन्दी अगर वाक़ई व्यवहार में अखिल भारतीय भाषा के रूप में प्रयोग होने लगेगी तो वह उन भाषाओं को विस्थापित कर उनकी जगह ले लेगी, या फिर हिन्दी इतनी प्रभुत्वशाली हो जाएगी कि उसकी तुलना में उनका अपना कोई महत्त्व ही नहीं रहेगा। शुद्धता का दुराग्रह इस भय को और बल देता है। हमें यह समझना होगा कि शुद्धता का तक़ाज़ा भाषाओं को बाँटता है न कि जोड़ता है और यह सिर्फ़ भाषा के स्तर पर नहीं होता बल्कि सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक और अन्य स्तरों पर भी होता है जहाँ लोगों के बीच सामन्जस्य की जगह वैमनस्य, दुराव और अलगाव की भावना पैदा होती है। सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि इस डर की वजह से कि कहीं हिन्दी का वर्चस्व स्थापित न हो जाए, हमने अँग्रेजी का प्रभुत्व स्वीकार कर रखा है और व्यावहारिक स्तर पर अँग्रेजी ही अभी भी अखिल भारतीय स्तर की भाषा के रूप में प्रयोग की जा रही है। इसका दुष्परिणाम यह हुआ है कि सिर्फ़ हिन्दी ही नहीं बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं का भी विकास ज्ञान-विज्ञान या उच्चतर प्रशासन, कार्यपालिका और न्यायपालिका की भाषा के रूप में नहीं हो पाया है।
अगर हिन्दी-हिन्दुस्तानी को अखिल भारतीय भाषा व्यवहार में भी बनानी है तो उसे समावेशी और उदार होना होगा। इसमें एक तरह का खुलापन लाना होगा। यह तो भाषाविज्ञान का स्थापित सत्य है कि केवल वही भाषाएँ जो अन्य भाषाओं से उदारतापूर्वक उधार लेती हैं वे ही फलती फूलती हैं और आम लोगों को स्वीकार्य होती हैं। एक अखिल भारतीय भाषा के रूप में हिन्दी-हिन्दुस्तानी को एक सेतु का काम करना है जो विभिन्न संस्कृतियों, भाषाओं और धर्मों को जोड़े न कि बाँटे। भाषा के प्रति हमारा शुद्धतावादी आग्रह उसे संकुचित और असहिष्णु बनाता है। भाषा को लेकर हम में श्रेष्ठता और वर्चस्व का भाव आ जाता है और दूसरी भाषाओं को हम कमतर या हीन आंकने लगते हैं। इस वजह से अन्य भाषाओं को उससे ख़तरा महसूस होने लगता है, एक दूसरे के प्रति वैमनस्य का भाव पैदा होता है, और उनमें एक अवांछित क़िस्म की प्रतिस्पर्धा शुरू हो जाती है जिसमें हर भाषा अपने को दूसरे से श्रेष्ठ होने का दावा करती है। हमें तो भाषाओं के बीच भाईचारा और सौहार्द क़ायम करना है, उनमें परस्पर के सम्बन्ध स्थापित करने हैं जिसमें बिना किसी रोक टोक के उनमें आवा-जाही होती रहे और वे एक दूसरे को लगातार समृद्ध करती रहें। और उसके लिए भाषा में एक ऐसे लचीलेपन होना चाहिए जो किसी भी समुदाय के लिए खतरा न बने और सभी भाषाओं को एक दूसरे के साथ संवाद करते हुए विकसित होने का समान अवसर दे। तभी भाषा का लोकतन्त्र स्थापित होगा। इसीमें हिन्दी का भविष्य है और अन्य भारतीय भाषाओं का भी।