गोपेश्वर सिंह का आत्मावलोकन
गोपेश्वर सिंह की नई पुस्तक ‘आलोचक का आत्मावलोकन’ का लोकार्पण विश्व पुस्तक मेला, दिल्ली (2023) में इसी जनवरी में हुआ। हिन्दी में गोपेश्वर सिंह ऐसे आलोचक हैं जो अपने को गाँधी, लोहिया और जेपी के चिंतन के करीब पाते हैं। जेपी आन्दोलन में उनकी सीधी भागीदारी थी। अपने ऊपर वे अंबेडकर का प्रभाव भी महसूस करते हैं। उन्होंने मार्क्सवाद और मार्क्सवादी साहित्य चिंतन का अध्ययन किया है। वे पटना में रहते थे, वहाँ के और वहाँ के कॉफी हाउस के साहित्यिक माहौल ने उन्हें लेखक बनने के लिए प्रेरित किया था। यह पिछली सदी का आठवां दशक था। आज ऐसा माहौल देश में कहीं नहीं है, जो किसी होनहार में लेखक बनने का मन पैदा करे।
वे बीस वर्षों तक पटना विश्वविद्यालय और हैदराबाद यूनिवर्सिटी के छात्रों को पढ़ाने के बाद दिल्ली विश्वविद्यालय के छात्रों के बीच पहुंचे। छात्रों के साथ हुए उनके साहित्य-संवाद से उनकी आलोचना विकसित हुई। ऐसा स्वीकार करने वाले आलोचक गोपेश्वर सिंह अकेले हो सकते हैं। वे संवाद को बहुत भरोसे से देखते हैं। उनकी आलोचना संवाद की परम्परा में है। वे सार्थक आलोचना को रचना और आलोचना का संवाद मानते हैं। ‘रचना और आलोचना का सहमेल’ तथा ‘रचना और आलोचना का कदमताल’ जैसे उनके शब्दबन्ध आने वाले समय की हिन्दी आलोचना के सूत्र हैं। गोपेश्वर सिंह के ये वे सूत्र हैं जो हिन्दी आलोचना को ‘विचारधाराओं के आतंक में जीने’ के बजाय ‘समाज के साथ साहित्य के मूल आधारों’ से संवाद की ओर ले जाते हैं। संवाद और प्रतिपक्ष गोपेश्वर सिंह के लिए समानार्थी शब्द हैं। वे मानते हैं कि साहित्य की संसद में आलोचना प्रतिपक्ष है।
विचारधारा और आत्मावलोकन गोपेश्वर सिंह के लिए दो विपरीत ध्रुवों के शब्द नहीं हैं, इन दोनों शब्दों के बीच के द्वंद्व से उपजा तीव्र आत्मसंघर्ष इस आलोचक की आलोचना-दृष्टि बनाता है। इस प्रक्रिया से गोपेश्वर सिंह की जो आलोचना दृष्टि बनी है वह उन्हें साहित्य में साहित्यिकता की खोज को पहले नंबर पर रखने को कहती है और दूसरे नंबर पर रचना के पीछे छिपी वैचारिकता को। वे यथार्थ दृष्टि से काम लेते हैं। उन्हें यथार्थवादी दृष्टि पसन्द नहीं है। इसीलिए उन्हें साहित्य को वैचारिक निबंधों की तरह पढ़ने से भी परहेज है। वे साहित्य को साहित्य की तरह पढ़ने की वकालत करते हैं। गोपेश्वर सिंह मुक्तिबोध को अपने करीबी पाते हैं क्योंकि मुक्तिबोध अंत:करण पर जोर देते हैं। वे रामविलास शर्मा के करीब पहुंचते हैं, वहाँ भी ‘मनुष्य का इंद्रिय-बोध, उसकी भावनाएं, आंतरिक प्रेरणाएं’ के लिए ठौर है। वे आलोचक नलिन विलोचन शर्मा की इस मान्यता से भी बल पाते हैं कि रचना विषय के कारण ही नहीं, विषय के बावजूद अच्छी होती है।
‘आलोचक का आत्मावलोकन’ में नलिन विलोचन शर्मा पर लेखक के दो लेख हैं। नलिन विलोचन शर्मा वह हैं जिनकी रचना और आलोचना में विलक्षण नवीनता और मौलिकता प्रकट हुई, जिसे न तब ठीक-ठीक समझा गया और अब भी कम ही समझा जाता है। नलिन विलोचन शर्मा के प्रति गोपेश्वर सिंह का अनुराग है। इन्होंने इनके निबंधों के संग्रह का संपादन-संकलन भी किया है।
गोपेश्वर सिंह ने नलिन विलोचन शर्मा की प्रपद्य और नकेन की याद दिलाई है। आज की तारीख में यह याद दिलाने जैसा ही है। नलिन विलोचन शर्मा ने प्रपद्यवाद यानी प्रयोगशील पद्य के तीन कवियों (नकेन ) ने योजनाबद्ध तरीके से नींव रखी थी। नकेन यानी नलिन विलोचन शर्मा, केसरी कुमार और नरेश। नकेन के प्रपद्य और नकेन-2 के नाम से इनके संग्रह भी आए। गोपेश्वर सिंह का मानना है कि 1960 के दशक में प्रपद्यवादी कविताओं ने हिन्दी कविता को नई चमक से भर दिया था।
अपने दूसरे लेख के माध्यम से वे नलिन विलोचन शर्मा की इतिहास दृष्टि को फोकस में लाते हुए 1960 में छपी उनकी पुस्तक ‘ साहित्य की इतिहास दर्शन ‘ की ओर ध्यान ले जाते हैं। यह गंभीर पुस्तक तब लिखी गई थी जब हिन्दी में साहित्य के इतिहास-दर्शन की चर्चा न के बराबर थी। गोपेश्वर सिंह इस पुस्तक को साहित्य के इतिहास-दर्शन की आधारशिला रखने वाली कृति मानते हैं। वे मानते हैं कि नलिन विलोचन शर्मा ने आलोचना का नया मानदंड स्थापित किया है। ये नए मानदंड प्रगतिवादी और आधुनिकतावादी कसौटियों से भिन्न हैं।
गोपेश्वर सिंह को पीड़ा है कि नलिन विलोचन शर्मा को रूपवादी भी ठहराया गया है। वे इसका प्रतिवाद करते हैं, ‘ कोई कह सकता है कि नलिन जी रूपवादी थे, हालांकि ऐसा कहना उनके साथ किंचित ज्यादती होगी ‘। यह ‘कोई’ और कोई नहीं है, नंदकिशोर नवल हैं, जो उन्हें हिन्दी कविता पर विस्तार से लिखने और बातचीत करनेवाले आलोचक के रूप में नामवर सिंह के बाद सहज ही याद आते हैं। इस पुस्तक में नंदकिशोर नवल पर दो लेख हैं। एक का शीर्षक है,’ तुम्हीं से मोहब्बत, तुम्हीं से लड़ाई’। यह आत्मीयता से लबालब भरा स्मृति-लेख है।
यहाँ यह उल्लेख्य है कि नंदकिशोर नवल गोपेश्वर सिंह के अध्यापक भी थे और वरिष्ठ सहकर्मी भी। यहाँ यह भी बताना है कि नलिन विलोचन शर्मा नंदकिशोर नवल के गुरुदेव थे। देखा जा सकता है कि हर कोई खुल कर अपनी बात कह रहा है और मन खट्टा भी नहीं करता अपना। मन की यह विराटता इस दौर से गायब क्यों है ?
गोपेश्वर सिंह की विजयदेव नारायण साही से वैचारिक घनिष्ठता है। साही का रचना-संचयन भी तैयार किया था इन्होंने। साही ने साहित्य के दो विधाओं में काम किया था — कविता और आलोचना। इन दोनों पहलुओं पर दो अलग-अलग लेख हैं इस पुस्तक में। ये दोनों लेख साही रचना-संचयन की भूमिकाएं हैं। साही समाजवादी आन्दोलन में अपादमस्तक डूबे हुए थे। वे आन्दोलनधर्मी साहित्यकार थे। गोपेश्वर सिंह ने भी आन्दोलन में सक्रिय भागीदारी की है और आन्दोलन करते हुए जेल भी गए हैं। गोपेश्वर सिंह साही की तरह आपादमस्तक आन्दोलन में भले डूबे न हों, मगर आन्दोलनधर्मी लेखक-आलोचक हैं। वे छोटे-छोटे आन्दोलनों को बदलाव के लिए बड़ी उम्मीद से देखते हैं।
साही की कविताओं की महत्ता गोपेश्वर सिंह ने कुंवर नारायण, नामवर सिंह और अशोक वाजपेयी की गवाही से पुख्ता की है। गोपेश्वर सिंह मुक्तिबोध के ‘अंत:करण’ और साही के ‘आंतरिक एकालाप’ को आजू-बाजू रखकर काव्य-आलोक पैदा करते हैं। साही ने अपने ‘मछलीघर’ की कविताओं को ‘आंतरिक एकालाप’ कहा था। गोपेश्वर सिंह ‘साखी’ की कविताओं की हिन्दी कविता की विशिष्ट उपलब्धि की तरह पहचान करते हैं। उनके अनुसार इसका ‘आंतरिक एकालाप’ सामाजिक स्थितियों से टकराकर एक नया रूप ग्रहण करता है। साही मात्र अपने दो संग्रहों से ही हिन्दी कविता की विशिष्ट धरोहर हैं।
साही वह आलोचक हैं, जिन्होंने 1950 के बाद हिन्दी माहौल को वैचारिक रूप से आन्दोलित किया। वैकल्पिक प्रगतिशीलता की देशी जमीन तैयार की। साहित्य कभी राजनीतिक विचारों का उपनिवेश न बने, इसकी स्थापना की। साहित्य को हथियार बनाए जाने से वे सहमत नहीं हुए। धर्म और धर्म आधारित राजनीति से मुक्त साहित्य की उन्होंने वकालत की। उन्होंने साहित्य-रचना के लिए किसी भी एकाधिकारवाद को सही नहीं माना। ‘जायसी’ नामक उनकी पुस्तक उनकी आलोचना का उत्कर्ष है। गोपेश्वर सिंह का कहना है,’ जायसी न केवल साही की, बल्कि 1950 के बाद की सबसे बड़ी उपलब्धि हैं।’ साही ने जायसी को हिन्दी का पहला विधिवत कवि और आत्म-सजग कवि माना है। जायसी के सूफी होने का खंडन किया। उन्हें कुजात सूफी कहा है। जायसी ही हैं जिन्हें कवि होने का बोध भी है और गर्व भी, यह साही बताते हैं।
इस पुस्तक में अंबेडकर की विचार-यात्रा पर विस्तार से लिखा एक लेख है। इसकी पृष्ठभूमि में क्रिस्तोफ जाफ्रलो की लिखी अंबेडकर की जीवनी है। यह एक ऐसी वैचारिक जीवनी है, जैसा लिखने का चलन हिन्दी में नहीं है। इसे पढ़ते हुए गोपेश्वर सिंह को ख्याल आया कि अपनी विचार-यात्रा पर भी नजर डाली जाए। वे पाते हैं कि उनकी विचार-यात्रा बुद्ध से बुद्ध तक है। उनके शिक्षकों में पंडित नेहरू का नया नाम भी जुड़ गया है। वे पुष्टि करते हैं कि बिना नेहरू के आधुनिक और लोकतांत्रिक भारत संभव ही नहीं था। मगर उनके वैचारिक हीरो लोहिया हैं। उन्होंने अपने 60वें जन्मदिन को लोहिया की संस्कृति- चिंता पर बोलते हुए मनाया था। राजकिशोर ने उनसे कहा था कि यदि हमें जन्मदिन मनाना ही है तो हमें उस दिन उस आदमी को याद करना चाहिए जिनका हमारे निर्माण में महत्व है। इस पुस्तक में राजकिशोर पर एक लेख है। गोपेश्वर सिंह राजकिशोर को सगोतिया पाते हैं क्योंकि राजकिशोर का वैचारिक लेखन गाँधी, लोहिया और अंबेडकर के जादुई स्पर्श से हिन्दी समाज को नई चमक देता रहा है। गोपेश्वर सिंह का कहना है,’ लोहिया की मौलिकता और गद्य का जो खुरदुरापन था, उससे राजकिशोर का लेखकीय व्यक्तित्व बना था।’
इस पुस्तक का एक बड़ा आकर्षण जानकीबल्लभ शास्त्री से लंबी बातचीत है। यह बातचीत उनकी रचना-प्रक्रिया का खुलासा करती है। इन्होंने 1932 में संस्कृत में लिखना आरंभ किया था। पहला काव्य-संग्रह भी संस्कृत में आया। लेकिन यह काव्य-संग्रह संस्कृत काव्य-परम्परा में नहीं है, बल्कि तत्कालीन हिन्दी कविता की प्रवृत्तियों से संम्पन्न है, ऐसा दावा शास्त्री करते हैं। शास्त्री ने अपने महाकाव्य ‘राधा’ पर विचार किया है और विचार करने का आग्रह भी करते हैं। शास्त्री को निराला का आशीर्वाद मिला था। उन्होंने निराला के काव्य-वैविध्य पर बात की है। मुक्तिबोध और त्रिलोचन के संघर्ष के पार्थक्य पर बात की है। रामचंद्र शुक्ल के संदर्भ में शंकराचार्य भी विचार की परिधि में आते हैं। यह साक्षात्कार जानकीबल्लभ शास्त्री को जानने-समझने का एक प्रामाणिक दस्तावेज है।
यह पुस्तक इस मायने में मुक्कमल है कि यह समकालीन कविता, आलोचना और उसकी विचारधाराओं की पूरी समझ देती है। इस पुस्तक में नामवर सिंह और मैनेजर पांडेय विचार के दायरे में हैं तो अशोक वाजपेयी भी हैं। अशोक वाजपेयी के बारे में गोपेश्वर सिंह का मानना है,’ भारत के ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ के रूप में हिन्दी समाज की ओर से बोलने वाले कवि-लेखकों में उनकी आवाज सबसे ऊंची है।’ अशोक वाजपेयी को इतनी आस्था से देखने वाले संभवतः गोपेश्वर सिंह अकेले हैं। इस पुस्तक में कमलानंद झा की पुस्तक ‘तुलसीदास का काव्य-विवेक और मर्यादा बोध’ के रामकथा के बहुवचनात्मक पाठ पर एक महत्वपूर्ण लेख है। यह लेख भक्ति साहित्य को सिंगुलर रूप में देखने के खतरे से सावधान करता है। इस लेख को पढ़ते हुए गोपेश्वर सिंह के लेख भक्तिकाल और गाँधी की याद बरबस आती है। यह पुस्तक गोपेश्वर सिंह की वैचारिक यात्रा और पक्षधरता की पूरी समझ देती है। आत्मावलोकन की साहित्यिक समझ विकसित करती है यह पुस्तक।