विदेशी गुलामी से स्वतन्त्रता हासिल करने के 75वें वर्ष का उत्सव मनाना एक राष्ट्रीय कर्तव्य है। इस उत्सव वर्ष में इसको याद करना भी हमारी ही जिम्मेदारी है कि आजादी के दीवानों के लिए स्वराज का क्या अर्थ था? ब्रिटिश राज के खात्मे के समय स्वराज-रचना के लिए जरुरी राष्ट्रनिर्माण की क्या शर्तें थीं? क्या समस्याएँ और क्या सम्भावनाएँ थीं?
इस उत्सव प्रसंग में यह याद कराना प्रासंगिक होगा कि गाँधीजी ने 15 अगस्त 1947 को हासिल आजादी को एक सीमित राजनीतिक सफलता बताया था और सचेत किया था कि स्वराज के आर्थिक, सामाजिक और नैतिक पक्ष को पूरा करने का कठिन काम बाकी है। बिना ‘पूर्ण स्वराज’ का संकल्प साकार नहीं होगा। सत्य और अहिंसा पर आधारित नव-निर्माण नहीं हो सकेगा। इसलिए 1. आर्थिक समानता, 2. साम्प्रदायिक एकता, 3. ग्राम-स्वराज, 4. दरिद्रता और बेरोजगारी निर्मूलन, 5. स्त्री-पुनरुत्थान, 6. स्वच्छता-स्वास्थ्य-शिक्षा सुधार, 7. भाषा-स्वराज, 8. विकेंद्रीकरण और 9. देश-दुनिया में शान्ति के लिए प्रभावशाली कदम उठाना विदेशी राज से मुक्ति हासिल करने में सफल भारत की नयी जिम्मेदारी है। इसीलिए स्वतन्त्रता के 75 बरस पूरे होने की खुशी के देशव्यापी अभियान में इस नौ सूत्रीय जिम्मेदारी के बारे में आत्म-मूल्यांकन भी उत्सव कार्यों का एक हिस्सा होना चाहिए। इसीलिए आज गाँधीजी के सपनों, विशेषकर 1946 में ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ के रूप में प्रकाशित दिशा-निर्देशिका और कट्टर पन्थियों द्वारा 30 जनवरी 1948 को सर्वधर्म सद्भाव की प्रार्थना सभा के लिए जाते हुए की गयी शर्मनाक ह्त्या के तीन दिन पहले 27 जनवरी को तैयार और तीन दिन बाद 2 फरवरी को प्रकाशित ‘वसीयतनामा’ की नयी प्रासंगिकता है (रचनात्मक कार्यक्रम – गाँधीजी, नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, 2015; ‘महात्माजी की अन्तिम इच्छा और वसीयतनामा’, हरिजन, 2 फरवरी ’48)।
इस बारे में भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के एक महानायक, संविधान सभा के अध्यक्ष और स्वाधीनता के बाद के प्रथम राष्ट्रपति डॉ. राजेन्द्र प्रसाद ने गाँधी विचार के एक महत्वपूर्ण संकलन के प्राक्कथन में 8 अगस्त 1947 को ही लिखा कि “हमने जो स्वतन्त्रता प्राप्त की है उसके फलस्वरूप हमारे ऊपर गम्भीर जिम्मेदारियाँ आ पड़ी हैं – हम चाहें तो भारत का भविष्य बना सकते हैं और चाहें तो बिगाड़ भी सकते हैं। हमारी यह स्वतन्त्रता अधिकांश में महात्मा गाँधी के ही महान नेतृत्व का फल है। सत्य और अहिंसा के जिस अनुपम हथियार का उन्होंने उपयोग किया आज दुनिया को उसकी बड़ी आवश्यकता है; इस हथियार के द्वारा ही वह उन सारी बुराइयों से त्राण पा सकती है जिनसे आज वह पीड़ित है। जिस तरह हमारी लड़ाई का हथियार अनुपम था उसी तरह स्वतन्त्रता की प्राप्ति ने हमारे सामने जो संभावनाएं खोल दी हैं वे भी अनुपम हैं।” ( ‘प्राक्कथन’ – मेरे सपनों का भारत – गाँधीजी , नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अहमदाबाद, पृष्ठ iv)
इस प्रसंग में यह निर्विवाद है कि स्वतन्त्रता आन्दोलन के नायकों- नायिकाओं की शानदार शृंखला में मोहनदास करमचंद गाँधी (1869-1948) का अद्वितीय स्थान है। इसी कारण कविवर टैगोर और स्वामी श्रद्धानन्द ने उन्हें ‘महात्मा’, नेताजी सुभाष ने ‘राष्ट्रपिता’ और अनगिनत स्वतन्त्रता सेनानियों ने ‘बापू’ कहा था। गाँधी ने स्वराज को एक निर्गुण आदर्श से सगुण सच बनाने में 1893 से 1948 के बीच के छ: लम्बे दशकों के दौरान विचार और कर्म के स्तर पर असाधारण योगदान किया। उनके सपनों, प्रयासों और सिखावन ने देश की आजादी का मार्ग प्रशस्त किया। यह भी याद रखना चाहिए कि उनके व्यक्तित्व और चिन्तन के निर्माण में तीन धर्मों – हिन्दू धर्म, इस्लाम और ईसाई धर्म के अनुयायियों के सत्संग का असर था। तीन महाद्वीपों – एशिया, अफ्रीका और यूरोप – के ताजा इतिहास का संगम था। ब्रिटेन में बिताये विद्यार्थी-जीवन की अवधि (1888-1892) और दक्षिण अफ्रीका (1893-1914) में जिये संघर्षमय जीवन के प्रयोगों, अनुभवों और रुझानों का बहुत प्रभाव था। उन्होंने स्वयं अपने मार्ग दर्शकों में जैन साधक श्रीमद राजचन्द्र, रुसी चिन्तक लियो ताल्स्तॉय, अमरीकी दार्शनिक हेनरी डेविड थोरो और ब्रिटिश विचारक जान रस्किन को गिनाया है। गाँधी द्वारा प्रवर्तित विमर्श को ‘सर्वोदय’ की संज्ञा दी गयी है। सत्य और न्याय की प्रतिष्ठा के लिए कत्ल और कानून के सहारे चलनेवाली दुनिया के लिए करुणा और अहिंसा की राह बनाना उनकी जीवन यात्रा का सारांश था और सत्याग्रह उनकी मानव समाज को सबसे बड़ी देन है।
गाँधीजी की ‘हिन्द स्वराज’ (1909), ‘दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह का इतिहास’ (1924), ‘सत्य के प्रयोग’ (1924), ‘अनासक्ति योग’ (1930) और ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ (1946) जैसी बहुचर्चित पाँच पुस्तकें हैं।
सत्य और अहिंसा गाँधी जी की जीवन व्यवस्था के दो मूल आधार थे। उनकी ईश्वर में आस्था थी और ‘आत्म-साक्षात्कार’ को व्यक्ति के जीवन का सर्वोच्च लक्ष्य मानते थे। उन्होंने अपने को ‘सनातनी हिन्दू’ माना और ‘वैष्णव जन तो तेने कहिये जे पीर पराई जाने रे!’ को अपना जीवन दर्शन बनाया। सर्वधर्म समभाव उनकी आध्यात्मिकता की आधारशिला थी। आत्म साक्षात्कार और मानवता के उत्थान के परस्पर-निर्भर लक्ष्यों के लिए उन्होंने स्वराज, एकादश व्रत, रचनात्मक कार्यक्रम, स्वाव लम्बन, स्वदेशी और सत्याग्रह की एक षड्मुखी जीवन-पध्दति का प्रवर्तन किया। वे ‘आचरण की कसौटी’ को सर्वोच्च महत्व देते थे।
वे राज्यसत्ता और बाजार शक्ति की तुलना में समुदाय-शक्ति को ज्यादा महत्त्व देते थे। उन्होंने राष्ट्रनिर्माण के लिए लोकशक्ति के आधार पर रचनात्मक कार्यक्रम को सर्वोच्च प्राथमिकता दी और स्वाव लम्बी समुदाय निर्माण को स्वराज का पर्यायवाची बनाया। लेकिन गाँधी ने युगान्तरकारी चिन्तकों की किताबों का अध्ययन करते हुए भी ठोस कार्यों से मिले अनुभवों को ही अपने सपनों और विचारो का आधार बनाया। उनके चिन्तन में देश-काल-पात्र का महत्व था। कबीर की तरह उनका आधार जनसाधारण के बीच काम करने से मिली सीख थी:‘तू कहता कागद की लेखी, मैं कहता आंखन की देखी।’
वैसे भी गाँधी के सपनों और आदर्शों को समझने के लिए उनकी 1933 में दी इस हिदायत का ध्यान जरुर रखना चाहिए कि “मेरे लेखों का मेहनत से अध्ययन करनेवालों और उनमें दिलचस्पी रखनेवालों से मैं यह कहना चाहता हूँ मुझे हमेशा एक ही रूप में दिखाई देने की कोई परवाह नहीं है। सत्य की अपनी खोज में मैंने बहुत से विचारों को छोड़ा है और अनेक नई बातों को सीखा भी हूँ। उमर में भले ही मैं बूढा हो गया हूँ, लेकिन मुझे ऐसा नहीं लगता कि मेरा आन्तरिक विकास होना बन्द हो गया है या देह छूटने के बाद मेरा विकास बन्द हो जाएगा। मुझे एक ही बात की चिन्ता है, और वह है प्रतिक्षण सत्य-नारायण की वाणी का अनुसरण करने की मेरी तत्परता। इसलिए जब किसी पाठक को मेरे दो लेखों में विरोध जैसा लगे, तब अगर उसे मेरी समझदारी में विश्वास हो तो वह एक ही विषय पर लिखे दो लेखों में से मेरे बाद के लेख को प्रमाणभूत माने।’ (हरिजनबन्धु, 30 अप्रैल, ’33)
तमाम शंकाओं और आलोचनाओं के बावजूद ‘देह छूटने के बाद भी’ सत्य-अहिंसा-स्वराज-स्वदेशी-सर्वोदय-सत्याग्रह आधारित विमर्श के विकास की निरन्तरता की भविष्यवाणी देश-दुनिया में विस्मयकारी रूप से सच साबित भी हुई है। अमरीका में डॉ. मार्टिन लूथर किंग, पकिस्तान में खान अब्दुल गफ्फार खान, तिब्बत में दलाई लामा, दक्षिण अफ्रीका में नेल्सन मण्डेला और यूरोप में ‘ग्रीन मूवमेंट’ इसके आकर्षक उदाहरण रहे हैं। दुनिया के देशों के वैश्विक संगठन संयुक्त राष्ट्रसंघ ने भी 2007 से गाँधी जन्मतिथि 2अक्टूबर को पूरी दुनिया में ‘अहिंसा दिवस’ के रूप में मनाने का वन्दनीय कार्य शुरू किया है।
गाँधी जी की इतिहास दृष्टि और जीवन दर्शन
गाँधी विचार के प्रामाणिक अध्येता समाजवैज्ञानिक प्रो. निर्मल कुमार बोस (स्टडीज इन गान्धीज्म ,नवजीवन पब्लिशिंग हाउस, अहमदाबाद, 1972) के अनुसार यह ध्यान में रखना जरुरी है कि गाँधीजी की एक निश्चित इतिहास दृष्टि और जीवन दर्शन था। उनकी मान्यता थी कि अबतक के मानव इतिहास में, कुछ अपवादों को छोड़कर, जीव-जगत में बुनियादी एकता की तरफ प्रगति हुई है और मानव समुदायों के बीच अवरोध घटे हैं। मानव जीवन का उद्देश्य इस सार्वभौमिक एकता में अपनी जीवन पद्धति से वृद्धि करना है। हमें मनुष्य मात्र की स्वतन्त्रता और एकता की प्रगति के ऐतिहासिक दायित्व में अपना योगदान करना है। परस्पर सहयोग के जरिये जीवन निर्वाह की जरूरतों को पूरा करने के लिए विकेन्द्रित उत्पादन प्रक्रिया के अंतअन्त शरीर-श्रम जीवन का प्रथम नैतिक नियम है। इससे धरती पर मानव अस्तित्व का निर्वाह होगा और राष्ट्र-राज्यों द्वारा निर्मित आधुनिक बाधाओं के बावजूद स्वराज और समता आधारित मानव सभ्यता सम्भव हो सकेगी।
हिंसा हमारी आत्मरक्षा का सही उपाय नहीं है। इससे हथियारों की होड़ को बढ़ावा मिलता है और बड़े हथियार-समूहों पर निर्भरता बढ़ सकती है। इसकी बजाय अहिंसक तरीकों के अपनाने से समुदायों की आत्म-सुरक्षा की क्षमता में वृद्धि हो सकती है जिससे एक छोटे समूह में भी आत्म-रक्षा की शक्ति आ जायेगी। क्योंकि अहिंसक परिवेश में एक उचित उद्देश्य के लिए कष्ट उठाने की क्षमता का महत्व होता है। इस प्रकार से रची स्वतन्त्रता हर समुदाय को दूसरे समुदायों से बराबरी के आधार पर सहयोग करने में मदद करेगी और स्वराज आधारित लोकतान्त्रिक विश्व महासंघ की नींव बनाएगी।
निर्मल कुमार बोस द्वारा ही यह इंगित किया गया है कि गाँधी चिन्तन में दो विशिष्ट प्रवृत्तियाँ दीखती हैं – (क) किसी भी प्रश्न के सन्दर्भ में आत्म-समीक्षा (‘टर्निंग लाईट इन्वर्ड्स’) और इससे जुड़े ‘आन्तरिक’ सुधार और ‘व्यवस्थागत’ परिवर्तन का आग्रह, और (ख) समस्या की तात्कालिक तस्वीर और सत्य आधारित समाधान की सम्भावना की तलाश (‘मेरे लिए एक कदम ही काफी है।’)। पहली प्रवृत्ति के कारण ही गाँधी ने भारत की पराधीनता का कारण देशी राजाओं की परस्पर फूट की बजाय भारतीयों में ‘चाँदी के सिक्कों के लोभ’ और विदेशी शासकों के भय को बताया। इस आधार पर दरिद्रनारायण की सेवा का रचनात्मक कार्य, विदेशी शासन से असहयोग और सत्य –अहिंसा आधारित सत्याग्रही निडरता के समन्वय से स्वराज पाने का अचूक उपाय सिखाया। इस दूसरी प्रवृत्ति के कारण एक ही समस्या के लिए दो भिन्न दशाओं में गाँधी द्वारा दो अलग अलग समाधान अपनाना आलोचना का कारण रहा। जबकि गाँधी इस फर्क के लिए सत्य के निरंतर निरन्तर विस्तृत होते रूप को आधार बताते थे।
गाँधी की कार्यपद्धति की यह भी विशेषता थी कि अपने किसी विचार और सुझाव को व्यवहार में लाने के लिए नयी संस्थाएँ बनाने की बजाए उपलब्ध असरदार संगठनों को ही माध्यम बनाते थे। यदि नयी संस्थाएँ बनाना जरुरी भी हुआ तो उसको किसी पूर्वस्थापित संगठन के अन्तर्गत सहमति बनाकर निर्मित करते थे जिससे नयी संस्था को एक अनुकूल परिवेश में विकसित किया जाए।
यह भी सच था कि किसी भी प्रसंग में गाँधीजी काफी सोच-समझकर अपना मंतव्य प्रकट करते थे और अपने दृष्टिकोण के प्रति प्रबल आग्रह रखते थे। उनके विचारों में परिवर्तन कठिन था। लेकिन वह अपने से असहमत व्यक्तियों से बहुत दूर नहीं जाते थे। ‘मतभेद’ को ‘मनभेद’ और सम्बन्ध-विच्छेद की दिशा में नहीं बढ़ने देते थे। आलोचनाओं और भ्रान्तियों के बावजूद अपने विरोधियों से संवाद करना उनकी मूल प्रवृत्तियों में शामिल था। इसके कई उल्लेखनीय और बहुचर्चित उदाहरण हैं।
स्वराज की गाँधी–परिभाषा
गाँधीजी के लिए ‘स्वराज’ के विमर्श को निरन्तर विस्तार देना सत्य-साधना का अनिवार्य अंग था। इसकी प्रामाणिक शुरुआत 1909 में ‘हिन्द स्वराज’ के प्रकाशन से हुई और इसका प्रयास ‘रचनात्मक कार्यक्रम’ के निरूपण (1946) और ‘अन्तिम वसीयतनामा’ (1948) के लिखने तक जारी रहा। लेकिन सरलीकरण का खतरा उठाते हुए यह कहा जा सकता है कि गाँधीजी ने इस प्रश्न को काँग्रेस के लाहौर अधिवेशन (1929) में ‘पूर्ण स्वराज’ का लक्ष्य स्वीकारने के बाद ज्यादा महत्त्व दिया।
इसमें इस बात का ध्यान रखा गया कि स्वराज के क्या मायने नहीं हैं इसको भी लोकमानस अच्छी तरह ग्रहण कर ले। दूसरे शब्दों में गाँधी ने दो टूक शब्दों में कहा कि (क) स्वराज स्वछन्दता या निरंकुश आजादी नहीं है। इसमें हमारी सभ्यता को अधिक शुद्ध बनाने के लिए नीति पालन की केन्द्रीयता होगी। (ख) स्वराज अमीरों या शिक्षितों का सत्ता पर एकाधिकार नहीं हो सकता। वह सबके लिए – सबके कल्याण के लिए होगा। इस ‘सब’ की गिनती में किसान और करोड़ों मेहनतकश मजदूर से लेकर भूख से पीड़ित और विकलांग स्त्री-पुरुष आते हैं। (ग) कुछ लोगों का अनुमान है कि स्वराज बहुसंख्यकों यानी हिन्दुओं का राज होगा। मैं ऐसा मानने से इनकार करूँगा। मेरे लिए हिन्द स्वराज का अर्थ सब लोगों का राज्य, न्याय का राज्य होगा। (घ) स्वराज का अर्थ है सरकारी नियन्त्रण और निर्भरता से मुक्ति। फिर वह नियन्त्रण विदेशी सरकार का हो या स्वदेशी सरकार का। और (च) सच्चा स्वराज थोड़े से लोगों के द्वारा सत्ता प्राप्त कर लेने से नहीं, बल्कि जब सत्ता का दुरुपयोग होता है तब सब लोगों के द्वारा उसका प्रतिकार करने की शक्ति से होता है।
गाँधीजी ने स्वराज्य के सकारात्मक पक्ष को रखते हुए 1937 में लिखा कि, ‘स्वराज्य की मेरी कल्पना के विषय में किसी को कोई गलतफहमी नहीं होनी चाहिए। उसका अर्थ विदेशी नियन्त्रण से पूरी मुक्ति और पूर्ण आर्थिक स्वतन्त्र है। उसके दो दूसरे उद्देश्य भी हैं; एक छोर पर है नैतिक और सामाजिक उद्देश्य और दूसरे छोर पर दूसरा उद्देश्य है धर्म। यहाँ धर्म शब्द का सर्वोच्च अर्थ अभीष्ट है। उसमें हिन्दू धर्म, इस्लाम, ईसाई धर्म आदि सबका समावेश होता है, लेकिन वह इन सबसे ऊँचा है। इसे हम स्वराज का सम-चतुर्भुज कह सकते हैं; यदि उसका एक भी कोण विषम हुआ तो उसका रूप विकृत हो जायेगा।’ (हरिजन, 2 जनवरी ’37)
देश–दशा की गाँधी–समीक्षा
भारत के स्वराज के लिए आजीवन प्रतिबद्ध गाँधीजी को अपने समाज के कई खूबियों को लेकर अवश्य अपार गर्व था। उनके अनुसार, “मैं भारत की भक्ति करता हूँ, क्योंकि मेरे पास जो कुछ भी है वह सब उसी का दिया हुआ है। मेरा पूरा विश्वास है कि उसके पास सारी दुनिया के लिए एक सन्देश है। उसे यूरोप का अन्धानुकरण नहीं करना है।” (यंग इण्डिया, 11अगस्त ’20)। 1921 के असहयोग आन्दोलन के दौरान विदेशी वस्तुओं के वहिष्कार पर असहमति प्रकट करने पर उन्होंने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर को लिखा था कि “मैं नहीं चाहता कि मेरा घर सब तरफ खड़ी हुई दीवारों से घिरा रहे और उसके दरवाजे और खिड़कियाँ बन्द कर दी जाएँ। मैं भी यही चाहता हूँ कि मेरे घर के आसपास देश-विदेश की संस्कृति की हवा बहती रहे। पर मैं यह नहीं चाहता कि उस हवा के कारण जमीन पर से मेरे पैर उखड़ जाएँ और मैं औंधे मुँह गिर पडूँ। मैं दूसरों के घरों में अनामन्त्रित व्यक्ति, भिखारी या गुलाम की हैसियत से रहने के लिए तैयार नहीं हूँ।” (यंग इण्डिया, 1 जून ’21)
लेकिन देश में समाज और संस्कृति के कुछ महादोषों को लेकर उन्हें बहुत ग्लानि थी। इस सूची में 1. गुलामी, 2. गरीबों की लाचारी, 3.ऊंच-नीच का वर्गभेद, 4. साम्प्रदायिक वैमनस्य, 5. अस्पृश्यता, 6. स्त्रियों की अधिकार हीनता, 7. शराब और अन्य नशीली चीजों का अभिशाप, और 8. अंतर्राष्ट्रीय शोषण की प्रमुखता थी।
वह स्वराज को इन महादोषों के उपचार का पर्यायवाची समझते थे। इसके लिए वह व्यक्तिगत आचरण और सामुदायिक जीवन को परस्पर सम्बद्ध दो रणभूमि मानते थे। “यह है मेरे सपनों का भारत। इससे भिन्न किसी चीज से मुझे सन्तोष नहीं होगा।”(यंग इण्डिया, 10 सितम्बर ’31)
गाँधीजी की दृष्टि में भारत के सात लाख गाँवों को त्रिविध बीमारी ने जकड़ रखा है – 1. सार्वजनिक स्वच्छता की कमी, 2. पर्याप्त और पोषक आहार की कमी, और 3. ग्रामवासियों की जड़ता। उन्होंने रेखांकित किया कि, “मेरी राय में जिस जगह शरीर-सफाई, घर-सफाई और ग्राम-सफाई हो तथा युक्ताहार और योग व्यायाम हो, वहां कम से कम बीमारी होती है। और, अगर चित्तशुद्धि भी हो, तो कहा जा सकता है कि बीमारी असम्भव हो जाती है। रामनाम के बिना चित्तशुद्धि नहीं हो सकती। अगर देहात वाले इतनी बात समझ जाएँ, तो वैद्य, हकीम या डाक्टर की जरूरत न रह जाए। (हरिजनसेवक, 2जून ’46)
गाँधी की राष्ट्र-निर्माण योजना में इसका क्या निदान था? गाँधीजी के अनुसार, “आदर्श भारतीय गाँव इस तरह से बसाया और बनाया जाना चाहिए, इससे वह सम्पूर्णतया निरोग हो सके। उसके झोपड़ों और मकानों में काफी प्रकाश और वायु आ-जा सके। ये झोपड़े ऐसी चीजों के बने हों जो पांच मील की सीमा के अन्दर उपलब्ध हो सकती हैं। हर मकान के आसपास या आगे-पीछे इतना बड़ा आँगन हो, जिसमें गृहस्थ अपने लिए साग-भाजी लगा सकें और पशुओं को रख सकें। गाँव की गलियों और रास्तों पर जहां तक हो सके धूल न हो। अपनी जरूरत के अनुसार गाँव में कुएँ हों, जिनसे गाँव के सबलोग पानी भर सकें। सबके लिए प्रार्थना घर या मन्दिर हो, सार्वजनिक सभा वगैरह के लिए अलग स्थान हो। गाँव की अपनी गोचर भूमि हो। सहकारी ढंग की एक गोशाला हो। ऐसी प्राथमिक और माध्यमिक शालाएं हों जिनमें उद्योग की शिक्षा सर्व-प्रधान वस्तु हो, और गाँव के अपने मामलों का निपटारा करने के लिए एक ग्राम-पंचायत भी हो। अपनी जरूरतों के लिए अनाज, साग-भाजी, फल, कड़ी वगैरह खुद गाँव में ही पैदा हों। एक आदर्श गाँव की मेरी अपनी यह कल्पना है।” (हरिजनसेवक, 16 जनवरी ’37 )
कुछ समय बाद गाँधीजी ने ग्राम-स्वराज्य की कल्पना को भी स्पष्ट शब्दावली दी। 2 अगस्त ’42, यानी ‘अँग्रेजों! भारत छोड़ो आन्दोलन।’ के एक सप्ताह पहले उन्होंने लिखा था कि “ग्राम स्वराज्य की मेरी कल्पना यह है कि वह एक ऐसा पूर्ण प्रजातन्त्र होगा, जो अपनी अहम जरुरतों के लिए अपने पड़ोसी पर भी निर्भर नहीं करेगा; और फिर भी बहुतेरी दूसरी जरूरतों के लिए – जिनमे दूसरों का सहयोग अनिवार्य होगा – वह परस्पर सहयोग से काम लेगा। इस तरह हर एक गाँव का पहला काम यह होगा कि वह अपनी जरूरत का तमाम अनाज और कपड़े के लिए कपास खुद पैदा कर ले। उसके पास इतनी सुरक्षित जमीन होनी चाहिये, जिसमें ढोर चर सकें और गाँव के बच्चों के लिए मनबहलाव के साधन और खेल-कूद के मैदान वगैरा का बन्दोबस्त हो सके। इसके बाद भी जमीन बची तो उसमें वह ऐसी उपयोगी फसलें बोयेगा, जिन्हें बेचकर वह आर्थिक लाभ उठा सके; यों वह गांजा, तम्बाकू, अफीम वगैरा की खेती से बचेगा।
हर एक गाँव में अपनी एक नाटकशाला, पाठशाला और सभा-भवन रहेगा। पानी के लिए उसका अपना इन्तजाम होगा – वाटर वर्क्स होंगे – जिससे गाँव के सभी लोगों को शुद्ध पानी मिला करेगा। कुओं और तालाबों पर गाँव का पूरा नियन्त्रण रखकर यह काम किया जा सकता है। बुनियादी तालीम के आखिरी दर्जे तक शिक्षा सबके लिए लाजिमी होगी। जहाँ तक हो सकेगा, गाँव के सारे काम सहयोग के आधार पर किये जायेंगे। जात- पांत और क्रमागत अस्पृश्यता के जैसे भेद आज हमारे समाज में पाए जाते हैं, वैसे इस ग्राम-समाज में बिलकुल नहीं रहेंगे। (मेरे सपनों का भारत – गाँधीजी ;संग्राहक – आर. के. प्रभु, प्राक्कथन – डॉ. राजेन्द्र प्रसाद; नवजीवन प्रकाशन मंदिर, अमदाबाद, 1960/ 2015 ; पृष्ठ 101-102)।
गाँधी के सपनों के भारत का आर्थिक पक्ष
इस बात की सर्वत्र जानकारी है कि गाँधीजी उद्योगवाद को अभिशाप मानते थे तथा ‘वर्ग-युद्ध’ के विरुद्द थे। उन्होंने सम्पत्तिवान लोगों से ‘संरक्षकता’ (ट्रस्टीशिप) की राह अपनाने की अपेक्षा की थी। लेकिन इसकी चर्चा कम होती है कि बेकारी के सवाल पर गाँधीजी की मान्यता यह भी थी कि ‘जब तक एक भी सशक्त आदमी ऐसा हो जिसे काम न मिलता हो या भोजन न मिलता हो, तब तक हमें आराम करने या भरपेट भोजन करने में शर्म महसूस होनी चाहिए।’ (यंग इण्डिया, 6 अक्टूबर 1921)।
यदि भारत को अपना विकास अहिंसा की दिशा में करना है, तो उसे बहुत सी चीजों का विकेन्द्रीकरण करना होगा। अन्यायपूर्ण असमानताओं की इस हालत में, जहाँ चन्द लोग मालामाल हैं और सामान्य प्रजा को भरपेट खाना भी नसीब नहीं होता, रामराज्य कैसे हो सकता है? मैं ऐसी स्थिति लाना चाहता हूँ जिसमें सबका सामाजिक दर्जा समान माना जाये। मजदूरी करनेवाले वर्गों को सैकड़ों वर्षों से सभी समाज से अलग रखा गया है और उन्हें नीचा दर्जा दिया गया है। उन्हें शूद्र कहा गया है और इस शब्द का यह अर्थ किया गया है कि वे दूसरे वर्गों से नीचे हैं। मैं बुनकर, किसान और शिक्षक के लड़कों में कोई भेद नहीं होने दे सकता। गाँधीजी की यह भविष्यवाणी थी कि ‘अगर धनवान लोग अपने धन को और उसके कारण मिलनेवाली सत्ता को खुद राजी-खुशी से छोड़कर और सबके कल्याण के लिए सबके साथ मिलकर बरतने को तैयार नहीं होंगे, तो यह तय समझिये कि हमारे देश में हिंसक और खूंख्वार क्रांति हुए बिना न रहेगी।’ ( करेक्टर एंड नेशनबिल्डिंग – एम्. के. गाँधी 1951, सम्पादक वालजी गोविन्दजी देसाई, नवजीवन पब्लिशिंग हॉउस, अहमदाबाद; पृष्ठ 29-30)
उपसंहार
स्वतन्त्रभारत का नव-निर्माण एक ऐतिहासिक जिम्मेदारी रही है और पिछले 75 बरसों में हमने अपने लोकतान्त्रिक संविधान और संसदीय राजनीति का सदुपयोग करके एक ‘कल्याणकारी राज्य’ की रचना की है। पहले चार दशक राज्य द्वारा निदेशित नियोजन का रास्ता पनाया गया। फिर 1992से अबतक के तीस बरस बाजारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण के उद्देश्य से लगाए गए। फिर भी भारत के साढ़े पाँच लाख गाँवों और कई हजार कस्बों-नगरों में एक चौथाई आबादी अर्थात लगभग 30 करोड़ लोग निर्धनता और निरक्षरता के दो पाटों में फँसे हुए हैं। देश की स्त्रियों, किसानों, दस्तकारों, श्रमजीवियों, दलितों, पसमांदा मुसलमानों और आदिवासियों के बीच स्वराज का अधूरा बने रहना चिन्ताजनक है। सदियों से चली आ रही भूख, दरिद्रता, अर्ध-रोजगार दशा, खेती का घाटे का धन्धा बने रहना और विदेशी कम्पनियों का दबाव प्रशंसा की बात नहीं है। इस दुर्दशा से मुक्ति के लिए स्वराज रचना और राष्ट्र-निर्माण के अधूरेपन को रचनात्मक कार्यक्रमों के जरिये दूर करना ही युगधर्म है। इसके लिए कृषि-ग्रामोद्योग-लघु और मंझोले उद्योगों की परस्पर-पूरकता और गाँव-शहर की परस्पर-निर्भरता के ओझल हो गए सिद्धान्त की ओर ध्यान देना चाहिये। इस लक्ष्य को पाने में स्वराज और राष्ट्रनिर्माण के गाँधीमार्ग की समझ और 21वीं शताब्दी के भारतीय समाज की जरूरत और क्षमता के अनुसार अनुकरण की नयी प्रासंगिकता है। शुभस्य शीघ्रम।