प्रासंगिक

व्यवस्था और लेखक

 

 वर्तमान संदर्भों में लेखक और सत्ता के सम्बन्ध को लेकर निरन्तर प्रश्न उठाया जाता रहा है। सत्ता जिस तरह से लेखकों का उपयोग अपने हक में करने का प्रयत्न करती रही है वर्तमान भी उससे भिन्न नहीं। सत्ता की राजनीति और लेखकीय कर्म के बीच छत्तीस का आँकड़ा रहा है, गुँटर ग्रास की कविता से भयभीत हो इसरायल ने उन पर पाबन्दी लगाई तो कितने ही लेखकों को देश निकाला दिया गया। कारण, राज्य अथवा व्यवस्था का निर्माण व्यक्ति ने अपनी सुरक्षा तथा हितों के लिए किया है, किन्तु व्यवहार में सरकारें इतनी अधिक ताकतवर बन जाती हैं कि व्यक्ति और समाज इनके समक्ष बौने बनकर रह जाते हैं।

एक प्रचलित तथ्य के अनुसार व्यवस्था और लेखक के मध्य अक्सर विरोध का सम्बन्ध पाया जाता है। बल्कि यों कहा जाय कि लेखकीय कर्म की सार्थकता ही इस बात से पहचानी जाती रही है कि दोनों का सम्बन्ध विरोध का ही रहे। लेखक के व्यवस्था के भीतर प्रवेश करने और फिर उससे विमुख होने का एक उदाहरण श्रीकान्त वर्मा के रूप में हमारे सामने है जिन्होंने कहा था “जिस समय में हम घिरे हैं वह पहले से कहीं ज्यादा राजनीति की गिरफ्त में है और राजनीति आज विषमीकरणों का कूडाघर बन चुकी है। वह मानव मूल्य तर्क, बुद्धि, विवेक, संवेदना आदि की कब्रगाह है। इससे जीवन के सभी क्षेत्र घिर गए हैं नतीजे में आदमी का आदमी की तरह जीना मुहाल हो गया है।

यह माना और देखा जाता है कि इस कथित समय में व्यवस्था के साथ लेखक का रिश्ता सहयात्री का नहीं हो सकता है, प्रतिस्पर्धा का ही हो सकता है। जब लेखक यह अनुभव करता है कि मौजूदा व्यवस्था के शक्ति सम्बन्धों के अन्तर्गत कोई समाधान सम्भव नहीं तब वह विरोध को अपनाता है इस विरोध का मुख्य कारण यह है कि लेखक सत्ता की व्यवस्था में निहित स्वेच्छाचारिता के विरूद्ध होता है जो मानव की प्रतिष्ठा को नष्ट करने का प्रयत्न करती है। इसके साथ ही वह उन ताकतवर गुटों के स्वार्थ का पर्दाफाश करने का प्रयत्न करता है, इस स्थिति में सत्ता या व्यवस्था की क्रूरता के सामने अवसाद और खिन्नता के अतिरिक्त लेखक प्रतिरोध या आक्रोश की भाषा को प्रयुक्त करते हुए व्यक्ति या समूह के हित में सत्ता के चेहरे से मानव सहानुभूति के मुखौटे को नोचने की चेष्टा कर जनता को क्रांति के लिए प्रेरणा देता है।

“यह सच है कि प्रत्येक जन अभिमुख रचना सत्ता के विपरीत होती है वह इसलिए होती है क्योंकि सत्ताएँ चाहे वह किसी भी प्रकार की हों आदमी की आजादी को किसी न किसी रूप में छीनती जरूर हैं वरना सत्ता नहीं होगी। यह भी सच है कि सत्ता समाज और राज्य का प्रबन्ध करती है इसलिए स्वेच्छा से मानव अपनी आजादी का एक हिस्सा सत्ता को देता है लेकिन सत्ता अक्सर मनुष्य से उसकी आजादी को छीनना चाहती है इसी कारण सता और व्यक्ति विशेष तौर पर सर्जनात्मक व्यक्ति का सम्बन्ध तनाव का होता है। कवि पाश अपनी कविता में कहते हैं “मुझे चाहिए कुछ बोल/ जिनका एक गीत बन सके—यह गीत मुझे उन गूँगों को देना है/ जिन्हें गीतों की कद्र है—मेरी खोपड़ी पर बेशक खनकाए शासन काल का पंजा।”

सता के प्रति यह अविश्वास सत्ता के साथ कवि का सम्बन्ध तनाव पूर्ण बना देता है। वास्तव में, किसी भी राज्य और व्यवस्था के सामाजिक, बाहरी ढाँचे के भीतर बुनियादी रूप से किसी मनुष्य़ जाति के हजारों वर्षों के विश्वास, शोषण, जीवन-व्यवहार, आर्थिक सांस्कृतिक सम्बन्ध होते हैं। बाहरी ढाँचों पर आन्तरिक हमला तब होता है जब इन जीवन विश्वासों, व्यवहारों और सम्बन्ध में क्रान्तिकारी परिवर्तन के लिए काम किया जाता है। शासन या सत्ता की राजनीतियाँ इस बाहरी ढाँचे को बनाए रखने का प्रयत्न करती हैं क्योंकि वे यथास्थिति बनाकर अपनी सत्ता को मजबूत रखना चाहता है। सत्ता या व्यवस्था में परिवर्तन के लिए इच्छुक कवि सदैव इसके प्रतिपक्ष में ही होता है। एक प्रतिपक्ष सत्ता का भी होता है।

इस संदर्भ में धूमिल का विचार है – आज का समूचा संकट सही विषय के न होने का संकट है देश की संसद ने हमें एक प्रतिपक्ष जरूर दिया है पर वह आपने हित की लड़ाई लड़ने में मशगूल है। आम तौर पर वह निकम्मा साबित हो चुका है, क्योंकि वह समझौते का ऐसा काम चलाऊ पक्ष है जो व्यवस्था की हर माँग को कमोबेश संशोधन के साथ स्वीकार कर लेता है’। ऐसे में व्यवस्था के विरूद्ध सही प्रतिपक्ष की पहचान लेखक के लिए आवश्यक हो जाती है।

 अभिव्यक्ति की स्वाधीनता के प्रश्न के साथ लेखक और व्यवस्था का सम्बन्ध पुन: विरोध का ही रहता है। कभी-कभी सत्ता द्वारा अभिव्यक्ति की स्वाधीनता को छीनने का प्रयत्न कर जनता से उसकी सच्चाई को छीनने का भी प्रयत्न किया जाता है अथवा पुरस्कार की राजनीति द्वारा लेखकों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की जाती है। व्यवस्था अक्सर लेखकों को धन और सम्मान देकर खरीदना चाहती है हालाँकि इसके बावजूद भी कुछ लोग व्यवस्था के पक्षधर और कुछ विरोधी हो सकते हैं। सत्ता के पक्षधर लेखकों को बनाए रखने के लिए व्यवस्था जैसे लेखन को बढावा देती है वह मनुष्य के अकेलेपन और वैयक्तिक स्वतन्त्रता और जटिल बौद्धिकता से बँधा ऐसा लेखन होता है जो आम जन से परे होता है। दूसरी तरह का साहित्य जिसे बढ़ावा दिया जाता है वह घटिया मनोरंजन प्रधान साहित्य होता है। संसदीय पूँजीवादी व्यवस्था में इसी प्रकार के साहित्य को बढ़ावा दिया जाता है। निराला ने अपनी कविता में इसी स्थिति को स्पष्ट करते हुए कहा, “राजे ने अपनी रखवाली की/ किला बनाकर रहा/ लेखकों ने लेख लिखे/ एतिहासिकों ने इतिहासों के पन्ने भरे।”

मुक्तिबोध ने इसी संदर्भ में कहा था “व्यवस्था की चाँदनी में जाने का अर्थ है घुग्घू बन जाना।” लेखन द्वारा लेखक जब सुविधाएँ पाना चाहता है तब वह लेखन को पायदान की तरह इस्तेमाल करता है- ऐसे में लेखक स्वयं व्यवस्था का अंग हो जाता है ताकि लाभ में हिस्सेदार हो सके। मुक्तिबोध ने इसी को उदरंभरी बन अनात्म हो जाना कहा था। यहाँ तक कि अपने को जनता का पक्षधर कहने वाले लेखक व्यवस्था और सत्ता के मंचों से पत्र-पत्रिकाएँ प्रकाशित करवाते हैं। यह व्यवस्था से लाभ प्राप्त करने का सरल संक्षिप्त और सुगम मार्ग है। इसी प्रकार के साहित्यकार छद्म विद्रोह के साहित्य को जन्म देते हैं। और व्यव्स्था भी तब लेखन को या तो जनता का ध्यान वास्तविक समस्याओं से हटाकर दूसरी तरफ मोड़ने के लिए इस्तेमाल करने लगती है या लेखन को अपना पर्चा बना देती है जैसा साम्यवादी व्यवस्था मे हो चुका है। जहाँ विचारधारा भी व्यवस्था का एक अंग बन गई और लेखन एकांगिकता गतिहीनता का शिकार हो अन्तत: मानव विरोधी हो गया। कितने ही सृजनशील लेखकों को आत्महत्या करनी पड़ी।        

 सत्ता और साहित्य का तीसरा सम्बन्ध भी दिखाई देता है जहाँ कभी-कभी साहित्यकार सत्ता से उदासीन भी दिखाई देता है हालाँकि राजनीति में तटस्थता का चाहे जो महत्व हो साहित्य में कोई भी तटस्थ नहीं रह सकता। जब कोई भी सृजनशील व्यक्ति खासकर लेखक कहता है कि राजनीति बहुत बुरी चीज है और मैं उससे दूर रहता हूँ तो उसकी सृजनशीलता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। राजनीति से आकांक्षा का पूरा नहीं पाना भी लेखकों की उदासीनता का एक कारण माना जाता रहा है। हालांकि यह तय है कि लेखक और व्यवस्था का सम्बन्ध तनाव का ही होता है क्योंकि वह व्यवस्था के राजनीतिक षडयंत्रों और छद्मों के विरूद्ध होता है। उसकी लेखनी और तूलिका में सामाजिक परिवर्तन करने की विशेष क्षमता होती है इसलिए तो उस पर जनता का विशेष अधिकार होता है—शासन का साथ देकर वह अपना पेट भले ही पाल ले पर उसकी प्रतिभा का कोई उपयोग नहीं हो पाता। और यह भी सत्य है सत्ता द्वारा बिछाए गए मंच से भी अपनी बात कहने का साहस वह रख सकता है। प्रश्न यह है कि स्वागत उदासीनता का किया जाए या साहस का

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निशा नाग

लेखिका मिराण्डा हाउस में एसोसिएट प्रोफेसर हैं। सम्पर्क- nishanagpurohit@gmail.com
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