स्त्रीकाल

‘लॉक-डाउन’ का स्त्रीवादी परिप्रेक्ष्य

 

  • आकांक्षा

 

आज सम्पूर्ण विश्व महामारी के दौर से गुजर रहा है और इस संकट की स्थिति से निपटने के लिए सरकारों द्वारा ‘लॉक-डाउन’ (घर के भीतर रहने का आदेश) की घोषणा की जा रही है। भारत सरकार ने भी पूरे देश में ‘लॉक-डाउन’ की घोषणा की। भारतीय समाज पुरुषवर्चस्व वादी समाज के रूप में जाना जाता है इसलिए यहाँ पर इतने लम्बे समय के लिए ‘लॉक-डाउन’ की व्यवस्था का समाज पर बहुत सारे सकारात्मक प्रभाव के साथ-साथ कुछ नकारात्मक प्रभाव भी पड़ रहे हैं। वैसे अगर भारतीय समाज की सामाजिक-संरचना को देखा जाए तो यहाँ की महिलाओं का एक बहुत बड़ा वर्ग सदियों से ‘लॉक-डाउन’ का पालन करते आ रहा है पर, हमारी संस्कृति के नाम पर इस व्यवस्था को जायज माना जाता रहा है।

परन्तु, कोरोना नामक महामारी से बचने के लिए जब प्रत्येक व्यक्ति खासतौर पर समाज के पुरुष-वर्ग को भी इस आदेश के अनुपालन की जरूरत हुई तो पूरा देश आतंकित और अवसादग्रस्त होने लगा। सोशल मीडिया से लेकर मीडिया के तमाम माध्यमों द्वारा तरह-तरह की खबरें, चुटकुले और वीडियो लगातार देखने को मिल रहें है जिसमें घर के पुरुष सदस्यों को घरेलू काम करते हुए दिखाया जा रहा है और उनका मज़ाक बनाया जा रहा है कि, घर की चारदीवारी में रहने पर तथाकथित स्त्रीयोचित कार्य (झाड़ू-पोछा, बर्तन धोना, खाना बनाना) करना आपकी मजबूरी है।

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अब इस तरह की संदर्भों को मज़ाक में लेना कहाँ तक उचित है इसपर भी विचार करने की आवश्यकता है? बहुत कम संख्या में ही पर, इस घरेलू काम में पुरुषों के योगदान को सकारात्मक रूप में भी लिया जा रहा है कि कम से कम उन्हें महिलाओं के रोजमर्रे की जिन्दगी को समझने में मदद मिलेगी। हमारे समाज में बहुत सारे ऐसे पुरुष भी हैं जिन्हें घरेलू काम भी करने में अपनी तौहीन नहीं लगती है और शायद वर्तमान परिस्थिति में ऐसे पुरुषों से अन्य पुरुषों को भी सीखने की जरूरत है कि घरेलू काम करना अपना तौहीन कराना नहीं होता है। घर के बाहर के अन्य कामों की तरह यह भी कम महत्वपूर्ण कार्य नहीं है और इस तरह से वो खुद को संवेदनशील मनुष्य बनाने में सफल भी हो सकते हैं।women

“घर की चारदीवारी के अन्दर रहकर घरेलू कामों को करना सिर्फ और सिर्फ महिलाओं की ज़िम्मेदारी है” इस व्यवस्था को बनाने का श्रेय किसे जाता है? परम्परा और रिवाज के नाम पर एक ही घर में जनानखाना और दलान/मर्दाना (घर के बाहर का हिस्सा) के विभाजन की व्यवस्था किसकी देन है? यह समझने की जरूरत है। हमारी समझ से इसके लिए न तो सिर्फ और सिर्फ पुरुष दोषी हैं और न ही सिर्फ महिलाएँ शायद यह, उस समय की तात्कालिक जरूरत रही होगी पर, धीरे-धीरे यह व्यवस्था हमारी परम्परा और संस्कृति बनती चली गयी और आज जब-जब इन परम्पराओं में थोड़ी-बहुत दरार आती है तो कभी उसे माजक के रूप में तो कहीं अपमान के तौर पर इसे देखा जाता है।

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जैसा कि आज के संदर्भ में देखा जा सकता है और इसकी चर्चा भी ऊपर की जा चुकी है। दरअसल, भारतीय संस्कृति में सावर्जनिक स्थान को पुरुषत्व के हवाले कर दिया गया है और निजी को स्त्रीत्व के हवाले। अत:, नतीजा यह हुआ कि पुरुषों का सार्वजनिक दायरे के साथ-साथ निजी दायरे में भी दखल बरकरार रहा पर, खासतौर पर मध्यमवर्ग की स्त्रियाँ निजी दायरे में ही सिमटती चली गयी और वहाँ भी कहीं-न-कहीं पुरुष-वर्चस्व से बच नहीं पाईं। हालाँकि, पिछले कुछ दशकों से तमाम तरह के विमर्शों के हस्तक्षेप से स्थिति में थोड़ा बदलाव आना शुरू हुआ है पर, वर्चस्ववादी मानसिकता (स्त्री-पुरुष दोनों के मामले में) के ही घेरे में।

इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि मजदूर वर्ग और छोटे-मोटे व्यापारियों को महामारी के साथ-साथ भुखमरी का भी सामना करना पड़ रहा है और इसमें स्त्री-पुरुष और बच्चे-बूढ़े सभी को तमाम तरह की परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है और वहीं कुछ डाक्टरों और सेवा में लगे अन्य लोगों को अपनी जान भी गंवानी पड़ी। पर, यहाँ पर इन सबसे इतर सामाजिक और पारिवारिक सम्बन्धों पर पड़ने वाले प्रभाव की चर्चा करने की कोशिश की गयी है।

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‘सोशल डिस्टेन्सिंग’ के नाम पर ग्रामीण इलाकों में लोग एक-दूसरे से जहाँ दूरी बनाये शहरी इलाकों में संसाधन की कमी की वजह से या एक ही बिल्डिंग में अलग-अलग फ्लेट्स या कमरे में रहने वाले लोग अकेलापन से जूझने की स्थिति में एक-दूसरे के सम्पर्क में आए और यथासंभव एक-दूसरे की मदद भी की, जो कि अबतक एक-दूसरे को जानते तक नहीं थे। सामुदायिक रसोई की माध्यम से एक-बार फिर से सामूहिक जिन्दगी को जानने-समझने और कम संसाधन में जीवन व्यतीत करने का अनुभव मिला। इसी तरह पारिवारिक सम्बन्धों में भी अलग-अलग तरह के बदलाव देखने को मिल रहें हैं। जिन माता-पिता को आज के मशीनी दौर में अपने बच्चों के लिए समय नहीं था वे इन दिनों को बच्चों के साथ बिता रहे हैं और यही चीज बच्चों पर भी लागू हो रहा है।work from home

वैसे महानगरों में लोग घर से ही दफ्तर का काम कर रहें हैं फिर भी, पहले की अपेक्षा ज्यादा समय अपने परिवार को दे पा रहे हैं। रामायण और महाभारत जैसे धारावाहिक प्रसारित होने से बुजुर्गों को भी परिवार के साथ बैठने अवसर प्राप्त हो रहा है। वहीं लगातार घरों में तनाव के भी समाचार सुनने को मिल रहे हैं। तमाम तरह के घरेलू हिंसा और पारिवारिक कलह से भी मीडिया लगातार हमें रू-ब-रू करा रही है। इसके क्या कारण हो सकते हैं इस पर भी हमें ध्यान देने की जरूरत है।

कहीं ऐसा तो नहीं है कि, इस मशीनी युग में हम भी धीरे-धीरे इंसान से मशीन में तब्दील हो गये हैं। एक घर में होने के बावजूद भी इंसान एक-दूसरे से बहुत दूर होता है और आभासी दुनिया के ज्यादा करीब। वर्तमान परिदृश्य जिसमें घर की चारदीवारी के अन्दर रहकर ही जीवन के सारे जद्दोजहद से निपटना एक चुनौती से कम तो नहीं ही है।

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इस बात से भी इंकार नहीं किया जा सकता है कि, भागमभाग और प्रतिस्पर्धा के दौड़ ने आपसी रिश्तों को बहुत अधिक प्रभावित किया है जिसे किसी खास जेंडर तक सीमित नहीं किया जा सकता है। कहीं भावनात्मक जरूरतें पूरी करने के लिए तो कहीं प्रतिस्पर्धा और कामयाब होने के लिए तमाम तरह के सम्बन्ध बनने आज के समय में आम हो चला है पर, सरकार द्वारा घोषित इस ‘लॉक-डाउन’ की वजह से एकबार फिर से आपसी सबन्धों को जाँचने-परखने और समझने का मौका भी मिला। घर की चारदीवारी में रहकर कोई भी इंसान पूरी तरह से मशीनी तो नहीं ही हो सकता।Work-from-home job offers for women rise amid COVID-19 crisis ...

‘वर्क फ्राम होम’ करने के बाद भी परिवार के साथ कुछ पल बिताने का तो मौका सबको मिला। घर के सदस्य एक-दूसरे की गतिविधियों को भी बखूबी देख पा रहे हैं जिसकी वजह से तमाम तरह की गलतफहमियाँ भी दूर हुई और दूसरी ओर तमाम तरह की ऐसी चीजें भी सामने आई जिससे घर के सदस्य या पति-पत्नी अंजान थे। लगातार तलाक और अन्य तरह के घरेलू हिंसा की खबरें हमें इनसब पहलुओं पर सोचने को मजबूर करती हैं। इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता कि संस्कृति और परम्परा के नाम पर आज भी भारत में बहुत कुछ ऐसा होता है जिसे स्वीकार करना ही इंसानियत पर सवाल खड़ा करना है।

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आज भी हमारा समाज पुरुषवादी मानसिकता की गिरफ्त से पूरी तरह बाहर नहीं निकाल पाया है और दूसरी ओर लगातार तमाम तरह के चलनेवाले विमर्श से लोगों में जागरूकरता भी आई है और समाज में लगातार बदलाव भी आ रहा है पर, यह बदलाव सिर्फ सतही तौर पर हो रहा है या वास्तविक तौर पर यह जाँचने की भी जरूरत है। आज भी पत्नी को पति की सम्पत्ति मानने का चलन है इसलिए वो जब चाहे अपनी इच्छानुसार उससे जो चाहे करवा सकता है और एक आदर्श पत्नी का धर्म है कि अपने पति के इच्छानुसार आचरण करे। लेकिन, तमाम तरह के संसाधन और जागरूकता आने की वजह से महिलाएँ इन तथाकथित मानकों को चुनौती भी देने लगी हैं और कानून का सहारा भी लेने लगी हैं।

वर्तमान समय में स्त्री-पुरुष दोनों का बाहरी दुनिया से सम्पर्क हो रहा है। आजीविका को लेकर दोनों मिलकर जद्दोजहद कर रहें हैं तो एक तरफ पारम्परिक मानकों पर खरा उतरना और दूसरी ओर बाहरी दुनियाँ का सामना करना दोनों के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। इस ‘लॉकडाउन’ की व्यवस्था में ‘वर्क-फ्राम होम’ का कल्चर बढ़ा और साथ ही साथ घर के काम का बोझ भी। ऐसे में कुछ घरों में तो आपसी सहयोग से घर और आफिस दोनों जगह के काम को करने का भी रास्ता ढूँढा गया पर, अधिकांशत: घरों में घर क़ी महिलाओं पर काम का बोझ ज्यादा बढ़ा चाहे वह कामकाजी महिलाओं हो या गृहणी क्योंकि, पढ़े-लिखे लोग भी यही मानते हैं कि यह तो महिलाओं का काम है।

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हालाँकि, गृहणियों के लिए तो ये ‘लॉकडाउन’ व्यवस्था हमेशा से ही रही है पर, इस समय इन्हें भी अपने निजी-सम्बन्धों को समझने का मौका मिला और तमाम तरह की परिस्थितियों का सामना भी करना पड़ा। पर, कामकाजी महिलाओं के लिए ये समय ज्यादा चुनौतीपूर्ण रहा है। आमतौर पर पढ़े-लिखे लोग भी अपनी रुढ़िवादी मानसिकता से बाहर नहीं निकाल पाएँ हैं और अपने घर की महिलाओं को तमाम तरह की स्वतन्त्रता देने के बाबजूद भी उसे अपने अधीन ही रखना चाहते हैं चाहे वह आर्थिक तौर पर भी मजबूत क्यों न हों?तलाक में पुरुषों का अधिकार | Divorce Laws in ...

आज भी बहुत कम पुरुष अपने घर की महिलाओं को निर्णय लेने का अधिकार स्वेच्छा से दे पाएँ हों। दूसरी तरफ महिलाएँ जबतक चुपचाप इस स्थिति को स्वीकार करती रहती हैं तबतक सबकुछ ठीक रहता है पर, जैसे ही वो अपना मत या विरोध दर्ज करती हैं आपस में टकराव की स्थिति पैदा हो जाती है। भागम-भाग की जिन्दगी में एक-दूसरे के लिए समय न होने की वजह से कई बार टकराव की स्थिति पैदा होने से बच जाती थी पर, आज की परिस्थिति में चौबीस घंटे घर में रहने की वजह से बहुत सारे ऐसे मुद्दे सामने आने लगे जिसपर बात करने की जरूरत लगी और आपसी टकराव भी हुआ। इसी कड़ी में कहीं पर रिश्तों में मधुरता भी आई तो कहीं बात घरेलू-हिंसा और तलाक तक भी पहुँच गयी ।

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इन सबके अलावा एक और महत्वपूर्ण सामाजिक पहलू से हमें रू-ब-रू होने का मौका मिल रहा है। जिस समाज में शादी को एक महत्वपूर्ण और खर्चीला आयोजन माना जाता है, उसे आज अधिक-से-अधिक पाँच लोगों के बीच में करने की इजाजत दी जा रही है और इस तरह से होने वाली शादी की लोग प्रशंसा करते नहीं थक रहें हैं। बिना किसी तांम-झाम के सादे तरीके से रीति-रिवाज के साथ लड़का-लड़की एक-दूसरे से शादी के बन्धन में बंध रहे हैं और धीरे-धीरे यह चलन बढ़ता ही जा रहा है। तमाम तरह की मीडिया लगातार ऐसी शादी की खबरें हम तक पहुँचा रही है और प्रतिस्पर्धा के रूप में ऐसी शादियों की संख्या में लगातार बढ़ोत्तरी देखने को मिल रही है।

तात्कालिक परिस्थिति की वजह से जिस तरह से हमारे समाज में बहुत सारी व्यवस्था धीरे-धीरे परम्परा और संस्कृति में तब्दील होती चली गयी अगर, सादे तरीके से कम खर्च और बिना किसी शक्ति-प्रदर्शन के आज की परिस्थिति में होनेवाली शादी आगे आने वाले समय में परम्परा के रूप में तब्दील हो जाए तो ‘लॉक-डाउन’ की घोषणा किसी भी लड़की या उसके घर वालों के लिए किसी ‘वरदान’ से कम न होगा और सरकार द्वारा घोषित यह व्यवस्था इतिहास के पन्नों में हमेशा के लिए दर्ज हो जाएगी।                                 

लेखिका स्त्री अध्ययन से सम्बन्धित सामाजिक मुद्दों पर स्वतन्त्र लेखन करती हैं|

सम्पर्क- +919773760825, akanksha3105@gmail.com

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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