एक बार फिर दिल्ली का रंग लाल हो गया है। लाखों किसान देश के अलग-अलग कोने से दुःख-दर्द सुनाने दिल्ली आ पहुँचे हैं। शांतिपूर्ण तरीक़े से लम्बी यात्रा कर आए किसानों का दिल्ली के छात्रों और मज़दूर संस्थाओं ने स्वागत किया। किसानों की समस्या अब केवल उनकी नहीं रही। समाज के अन्य हिस्सों की हालत भी कोई अच्छी नहीं है। नोटबंदी ने किसानों के साथ-साथ छोटे व्यापारियों की हालत भी ख़राब कर दी है।
किसानों के साथ भारत सरकार की दोहरी नीति सर्व विदित है। मोदी सरकार के चार वर्षों में किसानों की हालत पहले से भी ख़राब हो गई। वादों को जुमला कहने वाली सरकार कहती रही कि किसानों की आमदनी दो गुणी हो जाएगी, लेकिन किसानों का कहना है कि उनकी बदहाली कई गुणी बढ़ गई है। न तो उन्हें फ़सल की क़ीमत सही मिलती है और न ही सही क़ीमत पर बीज और खाद मिलता है। फ़सल बीमा की पोल भी अब खुल गई है। बीमा का फ़ायदा किसानों को मिलना था लेकिन जादू कुछ ऐसा है कि पहुँच जाता है अम्बानी जी के पास। सरकार का पूँजीपतियों से प्रेम और किसानों के लिय प्रेम का इज़हार जगविदित है।
चुनाव आने वाला है और मोदी जी के समर्थक लोगों को रामजन्म भूमि बनवाने का आश्वासन दे रहे हैं। किसानों का कहना है उन्हें मंदिर नहीं क़र्ज़ माफ़ी चाहिये और उन्हें फ़सल की सही क़ीमत चाहिये। यही एक तरीक़ा हो सकता है उन्हें आत्महत्या से रोकने का। इसमें कोई शक नहीं है कि सरकार का यह दायित्व है कि खेती-किसानी की समस्याओं का ध्यान रखे और उनके नाम पर पूँजीपतियों को फ़ायदा देना बंद करे।
विशेषज्ञ मानने लगे हैं कि किसानों के ग़ुस्से का प्रभाव अभी-अभी हो रहे राज्यों के चुनावों पर पड़ेगा। सम्भव है कि इन राज्यों में तख़्ता पलट जाए। और ऐसा हुआ तो आनेवाले संसदीय चुनाव में भी किसानों का ग़ुस्सा रंग ला सकता है।
समय आ गया है जब किसानों की समस्याओं के हल के लिये निर्णयात्मक लड़ाई शुरू हो। नवउदारवादी आर्थिक नीतियों के ख़िलाफ़ की लड़ाई का नेतृत्व फिर एक बार किसानों के हाथ में देना होगा। देखना यह है किसानों का यह संसद मार्च केवल क़र्ज़माफ़ी तक सीमित रहता है या समय के चक्र को घुमाने की क्षमता भी है उसमें।
यह वक्त प्रधानमंत्री को याद दिलाने का है कि बिना खेती किसानों की बेहतरी के राष्ट्र निर्माण सम्भव नहीं है। भारत सिंगापुर नहीं है। यह किसानों का भी देश है केवल उद्योगपतियों का नहीं। भारत की उन्नति किसानों की ख़ुशहाली में है और किसानों की ख़ुशहाली देश के अन्य वगों की ख़ुशहाली की आवश्यक शर्त है। जिस बाज़ार के विस्तार से भारत दुनिया की अर्थव्यवस्था में दबदबा बना रहा है उनके लिये किसानों के पास क्रय शक्ति का होना ज़रूरी है।
उम्मीद है किसानों का संसद मार्च केवल सांकेतिक नहीं होगा और आने वाले चुनाव में किसान अपने प्रतिनिधियों को सचमुच संसद भेज पाएँगे। करोड़पतियों की की जगह किसान चेहरे वहाँ नज़र आएँगे। केवल एक-दो दिन के मार्च से जुमलेबाज सरकार पर कोई असर पड़ेगा ऐसा सोचना बेमानी होगा, निर्णायक और लम्बी लड़ाई लड़नी होगी।
मणींद्रनाथ ठाकुर
लेखक प्रसिद्ध समाजशास्त्री और जेएनयू में प्राध्यापक हैं।
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