किसान आन्दोलन और उससे आगे
आशीष कोठारी और के जे ज्वाय के सम्पादन मे प्रकाशित किताब ‘अल्टर्नटिव फ्यूचर्ज़: इंडिया अनशैकल्ड’ (2019) में यह उम्मीद ज़ाहिर की गयी है कि भारत अगली सदी के आरम्भ होने तक अपने सम्भावित विकास की किन दिशाओं को खोल सकता है? यह किताब हमें इस उम्मीद से जोड़ती है कि भारत धीरे धीरे सत्ता के विकेन्द्रित होने और आम आदमी की भूमिका के अहम होने की दिशा में आगे बढ़ सकता है। स्थानीय आधार पर संसाधनों के, आत्म-स्वायत्त होने की कोशिश करने वाले सहकारी प्रबन्धन के द्वारा, विकास के नये मॉडल की तलाश की जा सकती है। मौजूदा किसान आन्दोलन की हकीकत को समझने के संदर्भ में इस किताब में प्रस्तुत ऐसे विचारों की ओर देखने का मतलब यह है कि यहाँ कुछ तो है, जो इन दोनों को एक दूसरे से जोड़ता है।
हम आज एक ऐसे किसान आन्दोलन के साक्षी हो रहे हैं, जो इस अर्थ में अभूतपूर्व लग रहा है कि उसकी मंज़िल, ज़मीनी हालात को आम आदमी के पक्ष में लाकर खड़ा कर देने से जुड़ गयी मालूम हो रही है। बेशक यहाँ विकास के वैकल्पिक मॉडल की बात केंद्र में नहीं है, तथापि इससे जन चेतना की, सत्ता का विकल्प हो सकने की सामर्थ्य का पता अवश्य मिलने लगा है। इसके राजनीतिक पहलू बहुत साफ हैं। इसे उस विकल्प के प्रकट होने की घटना की तरह देखा जा सकता है, जिसकी मंज़िल ‘विकेन्द्रित सामाजिक प्रजातन्त्र’ के रूप में सामने आ सकती है।
वैकल्पिक भविष्य के नक्शे, उस विकेन्द्रित प्रजातन्त्र की लकीरें खींच सकते है, जिसकी ‘अंतश्चेतना’, बकौल अंबेडकर, ‘सामाजिक’ होती है। सिद्धांत के तौर पर यह बात हमें लुभा सकती है, पर असल सवाल है कि इसका ब्यावहारिक रूप क्या हो सकता है?
राजनीतिक व्यवस्था की आधारभूमि किसी न किसी विकास मॉडल में होती है। मौजूदा दौर में, वाम और दक्षिण विचारधाराओं के आधार पर, जो समाजवाद और प्रजातन्त्र के मॉडल विकसित हुए हैं, वे राज्याधारित एवं बाज़ारवादी विकास की बात करते हैं। वे दोनों सत्ता के केन्द्रीकरण से सम्बन्ध रखते हैं। ये दोनों विकास मॉडल पूँजीवाद के गर्भ से पैदा हुए हैं। यहाँ सत्ता के विकेन्द्रीकरण की बात समाज के उन्हीं वर्गों के हितों की हिफाज़त करती है, जिन तक पूँजीवादी विकास का लाभ पहुंच पाता है। इसलिये मौजूदा दौर के सभी सत्ता व्यस्थागत विकल्प, अंततः मध्यवर्ग के हितों की रक्षा तक सीमित होकर रह जाते हैं। इस परिदृश्य को सामने रखेंगे, तो मौजूदा किसान आन्दोलन के उन सरोकारों को समझना आसान होगा, जो भारत के भविष्य के लिहाज से सम्भावित रूपान्तर की एक कड़ी हो सकते हैं।
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इस किसान आन्दोलन में जितनी बड़ी तादाद में स्वतः स्फूर्त जन सैलाब उमड़ रहा है, वह इस बात का सुबूत है कि उसका नेतृत्व ‘बड़े ज़िमींदार’ के हाथों मे सीमित न रह कर, सामूहिक तौर पर छोटे किसान के आत्म निर्भर होने की आकांक्षा से जुड़ गया है। इसलिये सरकार से वार्त्ता करने वाले चालीस किसान नेता भी इस स्थिति मे नहीं रह गये हैं कि सामूहिक जन आकांक्षाओं की अनदेखी करके सरकार से कोई समझौता कर सकें।
यह फर्क है, आज़ादी की लड़ाई के दौरान प्रकट हुए आन्दोलनों और मौजूदा दौर के शाहीन बाग या किसानों के आन्दोलनों में। नेतृत्व केन्द्रित आन्दोलन की आखिरी कड़ी की तरह हमारे यहाँ अन्ना हज़ारे वाला आन्दोलन सामने आया था। उसका जो हश्र हुआ, उसने उस तरह के आन्दोलनों को संदेहास्पद बना दिया। उससे पहले का रथ यात्रा आन्दोलन भी नेतृत्व केन्द्रित था। उनसे नये सत्ता समीकरण सामने आये। रथयात्रा भाजपा को सत्ता के शीर्ष पर ले गयी। और अन्ना हज़ारे के आन्दोलन के बिखराब से आम-आदमी पार्टी के सत्ता पर काबिज होने के रास्ते खुले। इनकी तुलना में इस किसान आन्दोलन की स्थिति, नेतृत्व के एक हद तक ‘सामूहिक हो जाने की शक्ल ले रही है।
हालांकि कोशिश की गयी कि इस किसान आन्दोलन को फिर से अन्ना हज़ारे की झोली में डाल दिया जाये, पर वह उपक्रम शुरू होने से पहले ही ठुस्स हो गया। सामूहिक नेतृत्व वाले जन आन्दोलन अभी अपनी शैशवावस्था में हैं। कहना कठिन है कि इनका भावी स्वरूप क्या होगा और ये कितने सफल होंगे और कितने असफल। तथापि यहाँ जिस बात का एक मर्यादा के रूप में पालन हो रहा है, वह यह है कि शाहीन बाग आन्दोलन की तरह किसान आन्दोलन भी, न सत्ता पक्ष का प्रतिपक्ष होने की स्थिति को छोड़ पाता है और न परम्परागत प्रतिपक्ष के हाथो में पनी नकेल देने को राज़ी होता है। वह परम्परागत प्रतिपक्ष के समर्थन को नकारता नहीं है, परन्तु स्वयं को उसका हिस्सा बना देने को भी तैयार नही है।
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यानी वह एक तरह का तीसरा मोर्चा है, जो पक्ष और प्रतिपक्ष, दोनों से अलहदा खड़ा होना चाहता है। यानी वह न वाम है, न दक्षिण। वह इन दोनों विकल्पों के असलियत में एक ही तरह के होने की बात को समझ गया लगता है। पूँजीवादी विकास के गर्भ से प्रकट हुए मध्यवर्ग के उभार का वाम या दक्षिण किस्म का राजनीतिकरण, गहरे में जन-विकल्प के उभार का रास्ता रोकता है। वाम हो या दक्षिण, दोनों के पास एक ही तरह का विकास मॉडल है और वह अनिवार्यतः पूँजीवादी विकास मॉडल होने और बने रहने को अभिशप्त है। वाम होकर वह जन कल्याणकारी नीतियों की ओर थोड़ा अधिक झुकता है, पर इन दोनों में से किसी की नीतियाँ ऐसी नही, जो पूँजी के विकास की बजाय, जन के विकास को तरजीह देती हों। ऐसे में किसान अब यह माँग कर रहा है कि जो कानून बनें या जो नीतिगत सुधार हों, वे उनके नुक्तेनिगाह से तय हों। उनसे पूछा जाये कि उन्हें क्या चाहिये, तब ही कोई सुधार लाया जाये। ध्यान से देखें, तो पायेंगे कि यह मामला जितना सीधा सादा नज़र आता है, उतना है नहीं।
जो नये कानून लाये जा रहे हैं, वे विकास और प्रगति के तयशुदा बाज़ारवादी मानदंडों पर खरे उतरते हैं। विश्व व्यापार संघ और अमेरिका की सरकार ने उनकी तारीफ की है। पर ऐसे सुधार जन आकांक्षाओं का दमन कर के कैसे लागू किये जा सकते हैं? ऐसा करना गैर प्रजातांत्रिक होगा। तो वह जो प्रजातन्त्र का परम्परागत ढांचा था, जो पूँजीवादी विकास के गर्भ से पैदा हुआ था, वह इस तरह के व्यापक जन आन्दोलन के प्रकट होने के कारण, संकटग्रस्त होता जा रहा है।
अभी तक होता यह आया है कि जो आन्दोलन प्रजातांत्रिक प्रतिरोध के रूप में सामने आते रहे हैं, उनका नेतृत्व मध्यवर्ग के हाथ में केन्द्रित होता आया है। सशस्त्र क्रांतियाँ भी आखिरकार उसी विकसित मध्यवर्ग की सोच का अतिक्रमण न कर पाने की वजह से, अंततः पूँजीवादी विकास मॉडल के अंतर्विरोधों से ही ग्रस्त होती रही हैं। पूँजीवादी विकास मॉडल, आधुनिक काल में अभी तक के मानवजाति के इतिहास मे, विकल्पहीन मॉडल के रूप में अपनी जगह बनाये हुए है। पर अब इस पर सवाल खड़े होने आरम्भ हो गये हैं।
किसान आन्दोलन ने यह सवाल उठा दिया है कि पूजी के विकास की घुड़दौड़ में घोड़े के मालिक या साइस की झोली ही भरती रहेगी, या घोड़ों के दानों का इंतज़ाम पहले नंबर पर आयेगा? यानी इस सोच को बदलने की ज़रूरत सामने आ रही है कि घोड़ा जीतेगा, तभी साइस से दाना पायेगा। इस की बजाय अब बात यह हो सकती है कि घोड़ा जीयेगा, तभी तो साइस की झोली भर सकेगी। ‘जीने लायक हालात’, इससे पहले कभी समाज की मूल चिंता नही बने थे। इसकी बजाय मूल चिंता थी, मुनाफे वाले हालात।
अब भी उसी आधार पर किसान को समझाया जा रहा है, बाज़ार को आने दो, मुनाफा होगा। पर किसान कह रह हैं, मुनाफा अपने पास रखो, हमें तो बस उतने का भरोसा दे दो कि हम जीते जी मरते नहीं रहें।
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इसलिये किसान न्यूनतम खरीद मूल्य को कानून बनाने की माँग पर अड़ गया है। इसे हम किसान का ‘नैरेटिव’ कह सकते हैं। वह बात हर आम आदमी को समझ में आती है। पर वह बात किसी सरकार को, व्यापारिक संघ को या कार्पोरेट को समझ में नहीं आ रही है।
यह सोच के धरातल पर ‘पैराडाइम शिफ्ट’ है। पर चिंता की बात यह है कि किसान अपनी इस नयी सोच के आधार को अमली जामा पहनाने के लिये अपने वैकल्पिक विकास मॉडल की बात न सोच पा रहे हैं, न अभी सोचना ही चाहते हैं।
यह संक्रमण काल का अनिश्चय जन्य भंवर है, जिस में किसान आन्दोलन गोते खा रहा है। यह सब उस पुरानी आदत की वजह से हो रहा है, जो उन्हें सरकार के सामने फरियादी की भूमिका में बनाये रखती है। किसान अभी तक खुद को किसी राजा की प्रजा की तरह देख रहा है। उसकी हताशा की वजह भी यही है। उसे लगता है कि वह जो माँग रहा है, वह कोई ऐसी बड़ी बात नहीं, जो सरकार उसे दे ही न सके। उसे लगता है, सरकार अड़ियल है, इसलिये उसे ज़िद करही पड़ रही है। पर जल्द ही यह बात साफ हो जाने वाली है कि किसान जो माँग रहा है, उसे बदले हालात में कोई सरकार अंततः उसे नहीं दे पायेगी।
जब यह बात साफ होगी, तब एक ही रास्ता बचेगा। वह यह होगा कि किसान खुद कमर कसेंगे। आत्म स्वायत्त होने की ओर आगे बढ़ते हुए विकास के जन केन्द्रित मॉडल को अमली जामा पहनाने के लिये एकजुट होंगे।
पर जन केन्द्रित विकास मॉडल की बात जैसे ही ज़मीन पकड़ेगी, किसान अकेले नही रहेंगे। मज़दूर, बनवासी, आदिवासी और दूसरे वे तमाम लोग जो पूँजीवादी विकास मॉडल के द्वारा दमित हुए है या हाशिये पर धकेल दिये गये हैं, उन के साथ आकर खड़े हो जायेंगे। इस आलेख के आरम्भ में ऊपर जिस किताब का ज़िक्र है, वह इस वृहत्तर संदर्भ में कुछ विकल्प हमारे सामने लाता है।
जन केन्द्रित विकास विकल्प की अनेक दिशाओं को खोलने की कुछ संभावनाएं निम्न रूप में दिखाई दे सकती हैं। जैसे मेंधा-लेखा में आयी एक तब्दीली की बात है। वहाँ उगाए जा रहे बांसों की सरकारी तौर पर जो खरीद होती आ रही थी, उसका विकल्प वहाँ के स्थानीय ग्राम प्रतिनिधियों के द्वारा खोजा गया। वे सीधे बाज़ार तक और उपभोक्ता तक गये। आय में वृद्धि उम्मीद से कई गुणा हो गयी।
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इस संभावना को और आगे बढ़ाते हुए श्रीनिवासन और रंगराजन ने एक नये मॉडल के विकास की रूपरेखा हमारे सामने रखी है। वे पच्चीस तीस गांवों की इकाई के गठन की बात करते हैं, जो आसपास के किसी कस्वे में केन्द्रित मंडी या बाज़ार की मदद से आत्म निर्भर आर्थिक इकाई होने का प्रयास कर सकती है।
मौजूदा किसान आन्दोलन जो शक्ल ले रहा है, उस में ऐसे विचारों के प्रवेश की बात नितान्त अव्यावहारिक नहीं लगती। 26 जनवरी के बाद किसान आन्दोलन खाप केन्द्रित महापंचायतों के सक्रिय हो उठने की दिशा में आगे बढ़ रहा है। ये महापंचायतें इस बात के सुबूत की तरह सामने आयी हैं कि किसानों की उत्पदनशील दुनिया की बुनियादी इकाइयाँ पच्चीस तीस गांवों के महापंचायती अन्तर्गठन वाली हैं।
इसके निहितार्थ स्पष्ट हैं। ज़मीन पहले से तैयार है, ज़रूरत है तो बस उसे आत्म निर्भर होने की दिशा में लामबन्द करने की है।
अभी तक किसान सरकार से माँग कर रहे हैं कि उनके उत्पादन के लिए न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी तौर पर गारन्टी दी जाये। सरकार किसानों की उपज को बाज़ार की ऊंच-नीच वाली अनिश्रय भरी दुनिया के भरोसे छोड़ना चाहती है। कांट्रैक्ट फार्मिंग उससे एक कदम और आगे, बाज़ार की पूँजी को, किसान की उपज के तौर तरीकों को निर्धारित करने वाली, नयी आधारभूमि बनाना चाहती है। पर किसान बाज़ार को इस रूप में अपनी दुनिया में हस्तक्षेप नहीं करने देना चाहता। ऐसा उसके सामूहिक मनोविज्ञान में मौजूद हिचकिचाहट की वजह से है।
किसान के सामूहिक चित्त में बाज़ार के प्रति घोर अविश्वास का भाव है। इस अविश्वास की जड़ें व्यापारियों की भोखाधड़ी और महाजनों की बेईमानी के इतिहास में है। महाजन की जगह भले ही बैंक आ गये हैं। पर कर्ज़े के लेनदेन में वह जो ब्याज की अनिवार्य भूमिका है, वह किसान की सोच के लिये अजनबी बनी रहती है। कर्ज़ पर ब्याज बढ़ता जाता है। पर किसान की उपज उस अनुपात में नहीं बढ़ती।
वैकल्पिक रूप में किसान ऐसे अर्थतन्त्र की बाबत सोचता है, जो पूँजीवादी तौर तरीके वाला न होकर, कुदरत के उपजाये अन्न की व्यवस्था से मेल खाता हो। उत्तर पूँजी की दुनिया में किसान आन्दोलनधर्मी हो कर सामने तो आ गया है, परन्तु उसके प्रतिरोधक संघर्ष के पास, विकास की कोई वैकल्पिक अंतर्दृष्टि नहीं है। इस तरह के संघर्ष से अंततः किसान को नुकसान हो सकता है। यहाँ पूरे समाज की ज़िम्मेवारी बनती है कि हम क्या करें कि किसान को मरने से बचा ले।
प्रधानमन्त्री और खाद्य मन्त्री संसद में खड़े होकर पूछ रहे हैं, हमें बताओ, किसान क्या चाहता है? वे जानते हैं कि किसान क्या चाहता है। वे जानते हैं कि उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य की कानूनी गारन्टी चाहिये और कौंट्रैक्ट फार्मिंग और भंडारण के निजीकरण से होने वाले सम्भावित नुक्सान से निजात पाने के लिये नये कृषि कानूनों की वापसी चाहिये। पर वह जो सवाल है कि किसानी के परम्परागत रूप को बचाने में जब सरकार इसलिये आनाकानी कर रही हो कि वह समय से पिछड़ जाने का पर्याय हो गया है, तो किसान को यह तो बताना पड़ेगा कि वह मौजूदा समय का हमकदम होने के लिये किस तरह के नये कानून चाहता है।
अगर हम ऊपर विवेचित महापंचायत की समाज-राजनितिक भूमिका को एक नये अर्थतांत्रिक मॉडल के विकास की भूमिका मे बदल सकें, तो शायद कोई रास्ता निकले।
भाजपा आज जो कर रही है, उसकी जगह कौंग्रेस होती, तो वह भी ऐसा कुछ करने की बाबत ही सोचती। तरीका शायद इतनी अड़ियल तानाशाही वाला न होता। बाज़ारवाद और निजी क्षेत्र की भूमिका को केंद्र में लाने की शुरुआत नरसिम्हा राव और मनमोहन सिंह की सरकारों के द्वारा की गयी थी। कंप्यूटर क्रांति का श्रेय राजीव गांधी को जाता है। उच्च तकनीकी की मदद से हरित क्रांति करने की दिशा में भारत उससे भी पहले लाल बहादुर शास्त्री के दौर में ही परम्परागत खेतीबाड़ी को पीछे छोड़ कर आगे बढ़ चुका था। आज जो हो रहा है, वह उसी दिशा मे आगे बढ़ने की तार्किक परिणति है।
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परन्तु यह स्थिति इसलिये पहले से बहुत अलग है कि पहली दफा किसान अपनी बात खुद कहने के लिये अखिल भारतीय स्तर पर आगे आ रहा है। वह परम्परापोषी नहीं है। वह भी विकास करना चाहता है। पर वह दोराहे पर आकर इसलिये ठिठक गया है, क्योकि पहली दफा सरकार अपनी जनकल्याणकारी भंगिमा का परित्याग करके, सीधे निजी क्षेत्र के पक्ष में जाकर खड़ी हो गयी है। किसान चाहता है कि जिस सरकार को उसने चुना है, उसे कायदे से उसके साथ खड़े होना चाहिये। गतिरोध की वजह यह है कि सरकार ‘जय किसान’ वाली मानसिकता का और अधिक निर्वाह करने के लिये तैयार नहीं लग रही है। इसे संक्रांति कालीन दुविधा कह सकते हैं।
ऐसे में सरकार से यह अपेक्षा करनी गैर वाजिब नहीं कि वह किसान के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करे। दूसरी ओर वह जो किसान आन्दोलन है, उसमें यह भी जनसमर्थन के प्रति धोखाधड़ी नहीं कि वह यह कह सके कि वक्त आ गया है, जब किसान आत्मनिर्भर होने के नये रास्तों की तलाश की ओर आगे बढ़े। ऐसे रास्ते खोजे जो उसे बाज़ार पर निर्भर होकर रह जाने की विवशता से उबार लें।
अगर हम महापंचायत को सहकारी आधार पर इतना सक्षम बना पायें कि वे अपने लिये अलग किसान भंडारघर बना सकें और अपनी ऐसी आत्म-स्वायत्त मण्डियाँ बना सकें, जिनकी खपतकारों तक सीधी पहुंच हो, तो उन्हें विकास के लिये न तो निजी क्षेत्र के स्टोर हाऊसेज़ की ज़रूरत पड़ेगी, न कांट्रैक्ट फार्मिंग के हाथों में अपनो नकेल पकड़वाने की नौबत आयेगी।
पर इसके लिये महापंचायतों को अपने सहकारी बैंकों की ज़रूरत पड़ेगी। इसके लिये वे सरकार को विवश कर सखते हैं और रिज़र्व बैंक को अपने पक्ष में लाकर खड़ा कर सकते हैं। सहकारी बैंकिंग का बांग्लादेश का अनुभव क्रांतिकारी संभावनाओं वाला रहा है। उसे हम अपने यहाँ महापंचायत स्तर के अनुरूप ढाल कर किसान के हितकोक महफूज़ करने की दिशा में आगे बढ़ सकते है।
ऊर्जा आपूर्ति के लिये ‘बायोमास’ को एक आन्दोलन की तरह बढावा दिया जा सकता है। ये तमाम बातें केवल इस दिशा में एक कदम आगे बढाने भर की तार्किक परिणतियाँ हो सकती हैं। इस में और बहुत कुछ जोड़ा जा सकता है। जैसे परस्पर पूरक उपज के नये मॉडल अपनाये जा सकते हैं, जिनका सम्बन्ध ऐसी विविध फसलों से होता है, जो एक दूसरे के साथ उसी ज़मीन पर सह समांतर रूप में उगायी जा सकती हैं।
प्रधानमन्त्री ने भारत मैं अस्सी प्रतिशत मिकदार वाले ऐसे छोटे किसान के हितसाधन की बात की, जिसके पास दो तीन हैक्टेयर से कम ज़मीन है। वहाँ विविध बहुल किस्म का ऋषि मॉडल आश्चर्यजनक तब्दीली ला सकता है। उत्पादन बढाने के अलावा वह अलग अलग तरह की खाद्यान्न सम्बन्धी जरूरतों की स्थानीय आधार पर आपूर्ति का हेतु हो सकता है।
जैव खेती के मॉडल गाँव की शहर पर निर्भरता को कम कर सकते हैं। इन तमाम संभावनाओं के सम्बन्ध में महापंचायतों को अपनी नयी तरह की भूमिका में सामने आना पड़ेगा। महापंचायतों का पर्याप्त राजनीतिकरण पहले से हो चुका है। वह ऐसा राजनीतिकरण है, जो दलगत राजनीति से खुद को अलहदा रखने की दिशा पकड़ चुका है। इससे सत्ता समीकरण बदल सकते हैं।
पहली दफा जन मूलक राजनिति का सत्ता में रचनात्मक और सकारात्मक हस्तक्षेप हो सकता है।और व्यापक रूप में इससे भारतीय प्रजातन्त्र की आंतरिक बनावट भी अलग तरह की हो सकती है। दिक्कत यह है कि महापंचायतों का अब तक का चरित्र सामंतीय सोच से ग्रस्त रहा है। पर अब जब हालात चिंताजनक हुए हैं, तो यही महापंचायतें धर्म और जाति के सवाल पर पर्याप्त प्रगतिशील होती दिखाई देने लग पड़ी हैं। यह सिलसिला जारी रहा, तो किसान आन्दोलन भारत के नये भविष्य की नक्शावीसी में ऐतिहासिक भूमिका भी निभा सकता है।
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