सामयिक

शोषण, अत्याचार और आर्थिक असंतोष बना संताल विद्रोह

 

30 जून 1855 को संताल परगना में अंग्रेजी शासन के खिलाफ विद्रोह शुरू हुआ। संताल विद्रोह का मुख्य कारण था महाजनों और साहूकारों के शोषण और अत्याचारों के खिलाफ संतालों का आर्थिक असंतोष।  महाजनों और साहूकारों को दामिन-ए-कोह में इस महाजनी व्यापार के लिए कानूनी अदालतों में स्वीकृति मिल चुकी थी। जिस कारण बहुत बड़ी संख्या में महाजन और साहूकार यहाँ बस गये थे। उन्होंने संतालों का शोषण कर बहुत कम समय में अत्यधिक संपत्ति अर्जित कर लिया था।  वर्षा  प्रारंभ होते ही संताल लोग महाजनों से खेती हेतु कर्ज लेते थे। जिसके परिणाम स्वरूप बड़ी चालाकी से कुछ ही दिनों में ये साहूकार इनके भाग्य-विधाता बन बैठते थे। कई बार तो ऐसा भी होता था कि कर्ज चुकाने में इन्हें अपनी जमीन तक से हाथ धोनी पड़ती थी और जिसकी जमीन नहीं थी उसे कर्ज के बदले इनकी गुलामी स्वीकार करनी पड़ती थी और इन सबों का साथ दे रहे थे अंग्रेजी हुकूमत, जिन्होंने गुलामी प्रथा को कानूनी स्वीकृति दे दी थी।

आग के लिए एक छोटी सी चिंगारी काफी होती है। अंग्रेज सरकार ने जमीन पर मालगुजारी वसूली कानून लादा था और दिनोदिन उसकी रकम बढ़ाते चले गये। यह संतालों के आक्रोश  का बुनियादी कारण बना। समस्त संताल परगना में संताल जनजाति के लोगों ने जंगल साफ कर खेत बनाये थे। अंग्रेज हुकूमत के रिकार्ड के अनुसार संतालों से 1836 एवं 1837 में जहाँ मालगुजारी स्वरूप 2600 रू. वसूले जाते थे। वहीं 1854 एवं 1855 में यह रकम बढ़कर 5800 रू. हो गये। चूंकि इस वक्त तक पूरे संताल परगना में संतालों के लगभग 1500 गाँव बस चुके थे। जिससे अंग्रेजों का लालच बढ़ता चला गया। अंग्रेजों के तहसीलदार मालगुजारी के साथ-साथ संतालो से अवैध तरीके से अतिरिक्त धन भी वसूलने लगे थे। तहसीलदारों की यह लूट ने संतालों के आक्रोश की आग में घी का काम किया और अंग्रेजों के खिलाफ संताल एकजुट होते चले गये। इसके अतिरिक्त अंग्रेजों की न्याय व्यवस्था विद्रोह का दूसरा सबसे बड़ा कारण बनी। पुलिस थाने लोगों की सुरक्षा के बजाय संतालों पर अत्याचार और उनका दमन करने के अड्डे बन गये थे।

थानेदारों से इन्हें न्याय नहीं मिलता था। एक षड्यंत्र के तहत अंग्रेजों ने संतालों को नील की खेती का सब्जबाग दिख कर नील की खेती हेतु प्रोत्साहित किया। प्रारंभ में इस नील की खेती से संतालों को कुछ लाभ भी हुआ। परन्तु धीरे धीरे नीलहे गोरे साहबों की बड़ी-बड़ी कोठिया आबाद होने लगी और संतालों की झोपड़ी उजड़ने लगे।  दुमका जिला के कोरैया,आसनबनी, साहिबगंज एवं राजमहल के कई स्थान में नीलहों की कोठिया खड़ी हो गयी। तत्पश्चत 25 जुलाई 1855 को संताली बोली और कैथी लिपि में संतालों ने नीलहों के खिलाफ एक घोषणा-पत्र तैयार किया। जिससे संतालों में विद्रोह की बू आ रही थी और इसे स्पष्ट लग रहा था कि यह एक जन आंदोलन का रूप अवश्य लेगी।

पूरे संताल परगना में संतालों के असंतोष की चिनगारी को भोगनाडीह ग्राम के सिदो और कान्हू ने इसे विद्रोह की ज्वाला में बदल डाला । इस विद्रोह में उसके दो और भाई चाॅंद और भैरव ने अपनी बहादूरी का अचूक प्रमाण दिया। उन दिनों 13 जून से 17 अगस्त 1855 तक चंद दिनों में ही इन्होंने अपने कुशल नेतृत्व और पराक्रम के बल पर जनता में मुक्ति का ऐसा जज्बा पैदा किया कि अंग्रेजों को मजबूरन संतालों के खिलाफ फौजी कानून लागू करनी पड़ी। बागी सरदारों की गिरफ्तारी हेतु बड़े-बड़े इनामों की घोषणा की गयी। यहाँ तक कि विद्रोह को कुचलने हेतु सनापुर से अतिरिक्त सेना बुलायी गयी। मेजर जनरल लायड ने सैन्य संचालन का पूरा भार अपने हाथ में लिया।

1854 में संताल परगना के गाँव में खेतौरी राजवीर सिंह ने संतालों का संगठन बनाने का काम शुरू किया। इस दौरान रांगा ठाकुर वीर सिंह मांझी कोलाव प्रमानिक एवं डोमा मांझी जैसे संताल नेता पूरे झारखण्ड क्षेत्र में विद्रोह का अलख जगा रहे थे। 1855-56 में संताल परगना की पूरी जनता विद्रोह के लिए उठ खड़ी हुई।  लाड  कानर्वानिस द्वारा लादी गयी स्थायी जमींदारी प्रथा के खिलाफ हुए इस संघर्ष को संताल विद्रोह कहा जाता है। इस विद्रोह की लपटे संताल परगना और भागलपुर से लेकर बंगाल की सीमा और छोटानागपुर के हजारीबाग जिले तक फैली। तत्कालिन अंग्रेज अधिकारियों के अनुसार वीरभूम जिले में विद्रोह बहुत उग्र रूप धारण कर चुकी थी। वीरभूम के दक्षिण-पुर्व में ग्रैंड-टंक रोड पर स्थित तालडंगा से लेकर उत्तर-पुर्व में गंगा नदी के तट पर भागलपुर और राजमहल तक विद्रोह की भीषण आग फैल चुकी थी।

इसी बीच 7 जुलाइ 1855 को संतालो के नायक सिद्धो ने अपने अपमान का बदला लेते हुए जंगीपुर के दारोगा महेश लाल की हत्या कर दी। इस घटना के साथ ही विद्रोह का स्वर तेज हो गया और पूरे संताल परगना की जनता भूखे शेर की तरह दहाडे़ मारने लगी। विद्रोह जंगल की आग की भांति फैल गयी। चारो ओर युद्ध छिड़ गये। कान्हू ने पंचकठिया में संतालों के विरोधी नायक सगावल खाँ की हत्या कर दी। गोड्डा के नायब प्रताप नारायण का सोनारचक में वध किया गया। संताल परगना के डाकघर जला दिये गये। तार और लाईने काट दी गयी। सिदो के नेतृत्व में संताली सेना भी तैयार थी। उसकी करीब 20 हजार बहादुर संताली सेना ने अंग्रेजों के अंबर परगना पर हमला बोल दिया।

वहाँ के राजा को भगाकर उसके राजमहल पर कब्जा कर लिया। जुलाई 1855 को राजभवन सिद्धो-कान्हू के हाथ में आ गया। संतालों की एक दुकड़ी नीलहे गोरों की कोठियों की ओर बढ़ी। संतालों ने कई निरंकुश नीलहे गोरों को मार डाला और कदमसर की कोठी पर कब्जा भी कर लिया।

बेरो की सेना से उनकी टक्कर हुई। उस मुकाबले में सर्जेट ब्रोडोन मारा गया। अंग्रेज फौज के पांव उखड़ गये। वह भाग खड़ी हुई। नीलहों की कोठियाँ लूट ली गयी। संताली फौज पाकुड़ की ओर बढ़ी। राजमहल, कहलगाँव रानीगंज एवं वीरभूम सहित कई इलाकों में संताली फौजों का कब्जा हो गया। रघुनाथपुर और संग्रामपुर में भी अंग्रेज सेना को मुह की खानी पड़ी। परन्तु महेशपुर में संताली विद्रोहियों की टुकड़ी पराजित हो गयी। तीर-कमान और भाला-बर्छा जैसे हथियारों से लैस संताली सेना को पाकुड़ में बम-बारूद एवं बंदूक से लैस अंग्रेज सेना के मुकाबले में जबरदस्त हार का सामना करना पड़ा।

पाकुड़ में कम्पनी सरकार ने अंग्रेजों की सुरक्षा हेतु 30 फीट ऊॅंचा और 20 फीट घेराकार ऊष्मारोधी टावर बनवाया था। इस टावर के अन्दर से गोली चलाने हेतु इसमें छिद्र बनाये हुए थे। भागती अंग्रेज सेना ने इसी टावर में पनाह ली थी। अंग्रेजों ने टावर में बने छिद्रों से संताली सेना पर गोलियाँ चलायी थी। आज भी यह टावर संताल विद्रोह की व्यापकता और इसकी बहादूरी की कहानी बयां करता है। अंग्रेज हुक्मरानों के तत्कालिन दस्तावेज बताते हैं कि भोगनाडीह के चुन्नू मुर्मू के चार बेटों सिदो, कान्हू, चाँद और भैरव को इस विद्रोह में लोहार चमार ग्वाला तेली डोम के अतिरिक्त मोमिन मुसलमानों से भी विद्रोह में सक्रिय सहयोग मिला था। जिसे कभी भी भुलाया नहीं जा सकता है

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कैलाश केशरी

लेखक स्वतन्त्र टिप्पणीकार हैं। सम्पर्क +919470105764, kailashkeshridumka@gmail.com
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