नेपाल के साथ कूटनीतिक सम्बन्ध
सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक, भौगोलिक, आर्थिक एवं धार्मिक सम्बन्धों के कारण नेपाल, भारत के लिए विदेश नीति में महत्त्वपूर्ण स्थान रखता है। 31 जुलाई, 1950 को पहला भारत-नेपाल शांति एवं मैत्री संधि हुआ। यही वह संधि है, जो दोनों देशों के बीच लोगों और वस्तु की मुक्त आवाजाही, रक्षा एवं विदेशी मामलों के बीच घनिष्ठ सम्बन्ध तथा सहयोग की अनुमति देती है। इस संधि के उपरान्त दोनों देशों के बीच आर्थिक एवं राजनीतिक सम्बन्ध और सुदृढ़ हुए।
नेपाल के राजनीतिक विवाद गहराने के कारण वहाँ के तत्कालीन राजा त्रिभुवन को 1951 में देश छोड़ना पड़ा था। उस समय भारत के प्रधानमन्त्री जवाहरलाल नेहरू ने राजा त्रिभुवन का पूरा समर्थन किया। नेपाल सरकार ने सेना एवं प्रशासन के पुनर्गठन के लिए भारत सरकार से सेना की मांग की। भारत ने नेपाल को हर तरह की सहायता देकर नेपाल की राजनीति में स्थायित्व लाने का प्रयास किया। भारत के इस प्रयास से पहली बार नेपाल के राजा और नेपाली कांग्रेस के बीच समझौता एवं संसद हेतु चुनाव हुए। उस समय नेपाल का राजनीतिक अड्डा भी बनारस हुआ करता था।
सन् 1956 में पहली बार भारत के राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद ने नेपाल की यात्रा की। सन् 1970 के दशक में भारत-नेपाल सम्बन्धों में एक कटुता आयी जिसका मुख्य कारण सिक्किम का विलय था। इन्दिरा गाँधी के समय दोनों देशों के मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों में और अधिक सुधार एवं सहयोग देखा गया। 1991 के चुनाव में नेपाली कांग्रेस को बहुमत मिला और गिरजा प्रसाद कोइराला नेपाल के प्रधानमन्त्री बने। दिसम्बर, 1991 में कोइराला के नेतृत्त्व में अन्य मन्त्रियों तथा अन्य उच्चाधिरियों का एक शिष्टमंडल भारत आया। कोइराला के इस यात्रा के दौरान दोनों देशों के बीच पाँच समझौते हुए। इन समझौतों के कारण दोनों देशों के कूटनीतिक सम्बन्धों में सुधार हुआ।
21 वीं सदी के आरम्भ में तीन घटनाओं (राजशाही का समापन, माओवाद का राजनीति सत्ता में प्रवेश और लोकतांत्रिक, मधेशी एवं जनजातीय आन्दोलन) ने नेपाल के सामाजिक और राजनीतिक परिदृश्य में शोषणकारी तत्त्वों को खारिज कर प्रगतिशील मूल्यों का रोपन किया। आज नेपाल एक धर्मनिरपेक्ष एवं गणतांत्रिक राष्ट्र के रूप में सर्वस्वीकृत है।
नेपाल के साथ द्विपक्षीय सम्बन्धों में प्रगाढ़ता लाने के उद्देश्य से अगस्त, 2001 में भारतीय विदेश एवं रक्षा मन्त्री जसवंत सिंह ने नेपाल की यात्रा की। राजपरिवार हत्या के पश्चात दोनों देशों के बीच यह पहला उच्चस्तरीय राजनीतिक सम्पर्क था। फरवरी, 2002 में भारत-नेपाल के बीच हुई सचिव स्तरीय वार्ता में आतंकवादी गतिविधियों पर चिंता व्यक्त की गयी। नेपाल के राजा ज्ञानेंद्र 30 सदस्यीय प्रतिनिधि मंडल के साथ 23 जून, 2002 को भारत यात्रा पर आये। भारतीय नेताओं के साथ उनकी बातचीत में नेपाल में चल रहे माओवादी विद्रोह के अतिरिक्त नेपाल के आर्थिक विकास में भारत से सहयोग की अपेक्षाएँ प्रमुख मुद्दें थीं। सितम्बर, 2004 को नेपाल के प्रधानमन्त्री शेर बहादुर देउबा अपनी 5 दिवसीय भारत यात्रा पर आये। उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान सेना की शक्ति के विस्तार एवं माओवादी संघर्ष से निपटने के लिए भारत सरकार से सहायता की मांग की।
भारत ने भी अपने द्विपक्षीय सम्बन्धों को शक्तिशाली बनाने और नेपाल सरकार की हर संभव सहायता देने का विश्वास दिलाया। नेपाल में माओवादी की सरकार बनते ही सितम्बर, 2008 में नेपाल के प्रधानमन्त्री प्रचण्ड ने भारत की यात्रा की। उन्होंने प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह और तत्कालीन विदेश मन्त्री प्रणव मुखर्जी से मुलाकात कर नेपाल में नये संविधान लाने के लिए तथा नेपाल के ढाँचागत विकास एवं पर्यटन के लिए भी सहायता करने को कहा।
जुलाई, 2014 में विदेश मन्त्री सुषमा स्वराज ने अपनी नेपाल यात्रा के दौरान नेपाल सरकार को एक समय सीमा के भीतर और समावेशी संविधान बनाने की सलाह दी, जो सबके लिए स्वीकार हो। इस बैठक में नेपाल के राष्ट्रपति रामबरन यादव सहित नेपाल के अन्य नेता भी शामिल थे। प्रधानमन्त्री मोदी 14 अगस्त, 2014 को अपनी दो-दिवसीय यात्रा पर नेपाल आए। उन्होंने अपनी यात्रा के दौरान नेपाल के प्रधानमन्त्री के पी शर्मा ओली, विपक्ष के नेता प्रचण्ड, मधेशी मोर्चा सहित कई राजनीतिक दलों के नेताओं से मुलाकात की। उनके इस यात्रा के दौरान दोनों देशों में परिवहन, व्यापार, जल ऊर्जा सहित कुल 12 समझौते हुए। जब 2015 में नेपाल में विनाशकारी भूकंप आया तो मोदी सरकार द्वारा बचाव दल, राहत सामग्री और चिकित्सा सहायता पहुँचाई गयी।
सितम्बर, 2015 के बाद भारत-नेपाल के कूटनीतिक सम्बन्ध अपने सबसे निचले स्तर पर पहुँच गया। जब वहाँ मधेशियों का आन्दोलन शुरू हुआ, जिसमें उन्होंने नये संविधान में अपना अपेक्षित प्रतिनिधित्व न होने का विरोध किया। उनका कहना था कि संवैधानिक ढाँचे के साथ न्याय नहीं किया गया है। नेपाल के उपप्रधानमन्त्री व विदेश मन्त्री ने दिसम्बर, 2015 को भारत की यात्रा की। उन्होंने नेपाल सरकार द्वारा मधेशी मुद्दों को निपटने लिए उठाए जा रहे कदमों के बारे में विदेश मन्त्री को अवगत कराया। दिसम्बर में ही मुख्य मधेशी नेता महंत ठाकुर, उपेन्द्र यादव, राजेन्द्र महतो और महेन्द्र राय यादव सहित अन्य नेता भारत आये। इस प्रतिनिधिमंडल ने विदेश मन्त्री तथा अन्य राजनीतिक नेताओं से मुलाकात की।
भारत ने मधेशी और तराई के लोगों के साथ सहानुभूति जतायी और नेपाल सरकार पर अपना प्रभाव दिखाने की कोशिश की। भारत का कहना था कि समझौते के जरिए एक शांतिपूर्ण समाधान निकाला जाए। इसी कारण भारत पर नेपाल में संविधान के मसौदे में हस्तक्षेप करने के लिए दोषी ठहराया गया। सितम्बर, 2015 में मधेशी द्वारा किए गये पाँच माह की लम्बी नाकाबन्दी से नेपाल के लोगों को अत्यन्त कठिनाई हुई। हालांकि भारत ने इस नाकाबन्दी से अपने को अलग रखा था लेकिन नेपाल के अंदर का मानना था कि यह नाकाबन्दी भारत द्वारा प्रायोजित है। फरवरी, 2016 में के.पी. शर्मा ओली 6 दिनों के लिए भारत दौरे पर गये और उन्होंने घोषणा की कि नेपाल के मधेशी लोगों की मांगों को ध्यान में रखते हुए पहला संविधान संशोधन किया जाएगा। उनके इस यात्रा के दौरान दोनों देशों में परिवहन, व्यापार, जल ऊर्जा सहित कुल 9 समझौते हुए। उन्होंने पुनः दोनों देशों के सम्बन्ध सामान्य होने के ओर संकेत किया। अप्रैल 2018 में दोनों देशों के बीच कृषि क्षेत्र में सहभागिता, जमीनी पानी सम्पर्क तथा भारत और काठमांडू के बीच रेलवे सम्पर्क के सन्दर्भ में तीन समझौतों पर हस्ताक्षर हुए।
चीन सार्क के सभी देशों को आर्थिक सहायता का लालच देकर अपने प्रभाव में लाना चाहता है। चीन द्वारा नेपाल में भारी निवेश इसी का उदाहरण है। नेपाल सरकार ने चीन के साथ दस समझौतों पर हस्ताक्षर किये हैं। जिनमें प्रमुख है रेलवे लाइन और दूसरा तेल। नेपाल ने भारत पर तेल की निर्भरता को समाप्त कर चीन से तेल आयात प्रारम्भ कर दिया है। इन पाँच सालों में नेपाल का झुकाव चीन के तरफ अधिक देखा गया है। अब चीनी निवेश के सामने भारत की चमक फीकी पड़ रही है। हाल ही में लिपुलेख समस्या को लेकर भी नेपाल ने चीन कार्ड का इस्तेमाल किया जो नेपाल के लिए भविष्य में खतरनाक साबित हो सकता है।
हाल के दिनों में भारत-नेपाल विवाद का मुख्य कारण उतराखण्ड के धाराचुला को लिपुलेख से जोड़ती एक सड़क है। नेपाल का कहना है कि कालापानी के पास पड़ने वाला क्षेत्र नेपाल का हिस्सा है और भारत ने नेपाल से बिना वार्ता किए इस क्षेत्र में सड़क निर्माण का कार्य किया है। भारत-नेपाल सम्बन्धों में मुख्य चुनौतिययों में से एक कालापानी का मुद्दा है। साल 1997 में भारत के तत्कालीन प्रधानमन्त्री इंद्र कुमार गुजराल की नेपाल यात्रा के दौरान दोनों देशों के प्रधानमन्त्रियों ने कालापानी समेत अन्य इलाको के बारे में एक महीने के अंदर ज़रूरी सबूतों और सुझाव प्रस्तुत करने का निर्देश दिया। परन्तु बाद में कोई रिपोर्ट पेश नहीं किया गया।
साल 2014 में भी प्रधानमन्त्री मोदी की नेपाल यात्रा के दौरान दोनों देशों के विदेश सचिवों को निर्देश दिया गया कि कालापानी एवं सुस्ता सीमा सम्बन्धी विवादों को विदेश सचिव स्तरीय बातचीत का मदत से हल किया जाए। लेकिन एक बार भी यह बैठक नहीं हुई है। 2019 में नेपाल द्वारा अधिकारिक रूप से नेपाल का नवीन मानचित्र जारी किया गया, जिसमें उतराखण्ड के कालापानी, लिंपियाधुरा और लिपुलेख को अपने क्षेत्र का हिस्सा मानता है। साल 1816 में तत्कालीन ईस्ट इंडिया के बीच हुई सुगौली संधि में अधिकांश सीमांकन हो चुके थे। दो क्षेत्र सुस्ता और कालापानी का निर्णय अधूरा था।
मानसरोवर यात्रा के लिए भारत द्वारा लिपुलेख-धाराचुला मार्ग के उद्धघाटन करने के बाद नेपाल के विदेश सचिव ने इसे एक तरफा गतिविधि बताते हुए आपत्ति जतायी। नेपाल के विदेश सचिव ने यह भी दावा किया कि महाकाली नदी के पूर्व का क्षेत्र नेपाल की सीमा के अन्तर्गत आता है। निश्तित रूप से नेपाल के इस प्रकार के बयान से भारत को अचम्भित कर दिया है। नेपाल सरकार ने स्पष्ट रूप से यह भी कहा है कि वह दो देशों के मध्य घनिष्ठ और मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के भावना को ध्यान में रखते हुए ऐतिहासिक संधि, दस्तावेजों तथ्यों के आधार पर सीमा विवाद का कूटनीतिक समाधान करने के लिए प्रतिबद्ध है। यह मुद्दा अब नेपाल के संविधान में भी शामिल है।
सीमा विवाद अब पहले से ज्यादा जटिल हो गयी है जिसे सुलझाने के लिए राजनीतिक और कूटनीतिक तन्त्र की भूमिका महत्त्वपूर्ण है। लिहाजा, भारत को कूटनीतिक सुझबूझ का परिचय देना होगा। वहीं नेपाल की आन्तरिक राजनीतिक की बात करें तो, वहाँ दस सालों में दस बार सत्ता परिवर्तन हो चुके हैं। जाहिर है, नेपाल की राजनीतिक अस्थिरता उसकी विदेश नीति को संभलने नहीं दे रही। वहाँ एक कुशल राजनीतज्ञ की जरूरत है, जो पड़ोसी देशों के साथ रिश्ते को बेहतर बना सके। दस सीमा विवाद को सुलझाने के लिए भारत को नेपाल के प्रति अपनी नीति दूरदर्शी बनानी होगी।
मई, 2019 में प्रधानमन्त्री मोदी ने नेपाल की चैथी यात्रा की और अपनी इस यात्रा को प्रधान तीर्थयात्रा का नाम दिया न की प्रधानमन्त्री यात्रा। मोदी और ओली ने एक साथ रामायण सर्किट का उद्घाटन किया, अयोध्या व जनकपुर के बीच सीधी बस सेवा की शुरूआत की। इस यात्रा का उद्देश्य दोनों देशों के लोगों को साझा संस्कृति एवं धर्म सम्बन्धों से गहरे रूप में जोड़ना था। हाल ही में प्रधानमन्त्री मोदी ने बुद्ध के जन्मस्थल, लुम्बिनी, नेपाल का दौरा किया, जहाँ उन्होंने नेपाल के प्रधानमन्त्री के साथ भारतीय सहयोग से बनाए जा रहे बौद्ध विहार के लिए आधारशीला रखी। इस केन्द्र का उद्देश्य दुनिया भर से आने वाले बौद्ध तीर्थयात्रियों और पर्यटकों के लिए विश्व स्तरीय सुविधा एवं खानपान का प्रबन्ध करना है। इस यात्रा के उपरान्त भारत-नेपाल लोगों के बीच सम्पर्क और आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए विभिन्न सम्पर्क कार्यक्रम शुरू किए गये हैं।
भारत ने काठमांडू-वाराणसी, लुम्बिनी-बोधगया और जनकपुर-अयोध्या को जोड़ने के लिए थ्री सिस्टर-सिटी समझौतों पर हस्ताक्षर किए हैं। जुलाई, 2021 को नेपाल के प्रधानमन्त्री ने अपनी द्विपक्षीय भारत यात्रा के दौरान कनेक्टिविटी परियोजनाओं को शुरू करने के लिए समझौता ज्ञापन पत्र पर हस्ताक्षर किया। सन् 2022 में शेर बहादुर देउवा पाँचवी बार नेपाल के प्रधानमन्त्री बने। अप्रैल, 2022 में प्रधानमन्त्री देउवा ने भारत यात्रा के दौरान 132 किलोवाट की डबल सर्किट ट्रांसमिशन का भी शुभारम्भ किया था। ये लाइन नेपाल के टिला से भारतीय सीमा के समीप स्थित मिरचैया को जोड़ती है।
वर्तमान में भारत और नेपाल बीबीआईएन (बांग्लादेश, भूटान, भारत,और नेपाल), बिम्सटेक, गुटनिरपेक्ष आन्दोलन और सार्क जैसे कई बहुपक्षीय मंचों को साझा करते हैं। भारत, नेपाल सेना को उपकरण और प्रशिक्षण प्रदान करके नेपाली सेना को आधुनिकीकरण करने में सहयोग कर रहा है। दोनों देश संयुक्त सैन्य अभ्यास और अन्य रक्षा-सम्बन्धी गतिविधियों में भी संलग्न हैं। भारतीय सेना के गोरखा रेजिमेंट में नेपाल से सैनिकों की भर्ती की जाती है, वर्तमान में नेपाल के लगभग 32,000 गोरखा सैनिक भारतीय सेना में सेवारत हैं।
साल 2024 में भारतीय विदेशमन्त्री एस जयशंकर के निमन्त्रण पर नेपाल की परराष्ट्रमन्त्री डॉ. आरजु राणा देउवा भारत दौरे पर गईं। नेपाल में नई सरकार के गठन के बाद डॉ. राणा की यह पहली उच्चस्तरीय भारत यात्रा है। इस यात्रा के दौरान नेपाल की परराष्ट्रमन्त्री डॉ. आरजु राणा भारत के प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी, विदेशमन्त्री एस जयशंकर, विदेश सचिव विक्रम मिस्री एवं नेपाल के भारतीय राजदूत नवीन श्रीवास्तव के साथ भेंटवार्ता की। डॉ. राणा ने बताया कि इस वार्ता में आगामी दिनों में भारत-नेपाल सम्बन्ध और प्रगाढ़ एवं द्विपक्षीय सहयोग अभिवृद्धि कैसे की जा सकती है, उस पर चर्चाएँ की गयीं। डॉ. राणा ने अपने भारत यात्रा पर हर्ष जताते हुए बताया कि दोनों देशों की इस उच्चस्तरीय भेंटवार्ता से दोनों देशों के ऐतिहासिक सम्बन्धों को एक नयी ऊँचाई मिलेगी। उसके एक हफ्ते बाद भारत के विदेश सचिव विक्रम मिस्री नेपाल की यात्रा पर आए।
विक्रम मिस्री नेपाल के प्रधानमन्त्री के पी शर्मा ओली, उपप्रधानमन्त्री प्रकाश मान सिंह, वित्त मन्त्री विष्णु प्रसाद पौडेल एवं विदेश मन्त्री डॉ. देउवा से मुलाकात की। विक्रम मिस्री ने बातचीत के दौरान आर्थिक विकास सहयोग के तहत चल रही परियोजनाओं के तेजी लाने और भारत-नेपाल सीमा विवाद से सम्बन्धित समस्याओं सहित विभिन्न मुद्दों पर चर्चा की। विक्रम मिस्री ने नेपाल में शांति, राजनीतिक स्थिरता और समृद्धि को निरन्तर समर्थन देने की भारत की प्रतिबद्धता व्यक्त की। भारत और नेपाल दोनों देशों के लिए महत्त्वपूर्ण द्विपक्षीय विषय राजनीतिक और सुरक्षा से सम्बन्धित है। आतंकवादी समूहों के द्वारा हथियारों, गोला-बारूद, और नकली मुद्रा के तस्करी के लिए नेपाल का प्रयोग किया जा रहा है जो कि भारत की सुरक्षा के लिए खतरा है। विक्रम मिस्री ने भारत की सुरक्षा को लेकर भी अपनी चिंता व्यक्त की।
दोनों देशों के सम्बन्धों को देखते हुए यह कहा जा सकता है कि भारत-नेपाल आपसी सहयोग और मित्रता पर आधारित घनिष्ठ बहुआयामी सम्बन्ध साझा करते हैं। दोनों देशों के बीच पारस्परिक सहयोग की भावना जहाँ दोनों देशों के लिए आर्थिक, राजनीतिक एवं कूटनीतिक दृष्टिकोण से उपयोगी है, वहाँ अंतरराष्ट्रीय पटल पर प्रभावी भूमिका निभाने में भी उपयोगी होगी। नेपाल के अंदर जो भारतीय प्रोजेक्ट व्यापार, ट्रांजिट नदियों तथा अन्य मामलों से सम्बन्धित है, जो लागू नहीं हो पाए हैं, उन्हें प्रमुख विषय मान कर हल करने पर भारत को जोर देना चाहिए। लेकिन सम्बन्धों को पुन स्थापित करने के लिए दोनों देशों को सामानता तथा परस्पर विश्वास के साथ आगे बढ़ाना होगा।
भारत को चाहिए कि वह अपने सभी परियोजनाओं को तय समय में पूरा करने की तत्परता दिखाए। क्योंकि, विकास परियोजनाओं के माध्यम से चीन नेपाल में अपनी पहुँच स्थापित कर भारत को चुनौती देने का कोई भी मौका नहीं छोड़ना चाहता। साथ ही हाल के दिनों में चीनी प्रभाव के कारण नेपाल की भारत पर निर्भरता घटती जा रही है। भारत-नेपाल के नेताओं के बीच प्रायः उच्चस्तरीय दौरे की वार्ता होती रहती है। हाल के कुछ सालों में दोनों देशों के बीच कूटनीतिक सम्बन्धों में भले ही बहुत उतार चढ़ाव देखने को मिले हों पर सांस्कृतिक दृष्टि से नेपाल की अधिकांश जनता आज भी भारत के अधिक समीप है। हालांकि दोनों देशों के रिश्तों में पहले भी उतार-चढ़ाव आते रहे हैं, बावजूद इसके दोनों देशों ने पारस्परिक रिश्तों की परम्परा को बनाए रखा।