वंशवादी राजनीति के शिकंजे में छटपटाता लोकतन्त्र
संविधान दिवस (26 नवम्बर) के उपलक्ष्य में आयोजित कार्यक्रम को सम्बोधित करते हुए प्रधानमन्त्री नरेंद्र मोदी ने बड़ी मार्के की बात कही है। उन्होंने कहा है कि वंशवादी दल अपना लोकतान्त्रिक चरित्र खो चुके हैं। इन दलों में आंतरिक लोकतन्त्र नहीं है और ये लोकतन्त्र की रक्षा करने में सक्षम नहीं हैं। दरअसल, काँग्रेस सहित तमाम छोटे-बड़े विपक्षी दलों ने केन्द्र सरकार पर संविधान की अवहेलना करते हुए लोकतन्त्र को क्षति पहुंचाने का आरोप लगाकर इस महत्वपूर्ण राष्ट्रीय आयोजन का बहिष्कार किया था। इसलिए उन्हें आईना दिखाया जाना अपरिहार्य था।
आज भारत में परिवार विशेषों द्वारा नियंत्रित और संचालित अनेक पार्टियां हैं। जम्मू-कश्मीर से लेकर तमिलनाडु तक इन परिवारवादी दलों की अखिल भारतीय उपस्थिति है। इनमें काँग्रेस के अलावा अन्य सभी क्षेत्रीय पार्टियाँ हैं। काँग्रेस भी अब क्षेत्रीय दल बनने की ओर ही अग्रसर है। ये पार्टियाँ प्राइवेट लिमिटेड कंपनियों से भी बदतर तरीके से चलायी जा रही हैं। परिवार विशेष की पार्टियों में काँग्रेस, राष्ट्रीय जनता दल, समाजवादी पार्टी, द्रविड़ मुनेत्र कषगम, नैशनल कॉन्फ्रेंस, पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी, नैशनलिस्ट काँग्रेस पार्टी, शिवसेना, अकाली दल (बादल), तेलंगाना राष्ट्र समिति और वाई एस आर काँग्रेस जैसी अपेक्षाकृत बड़ी पार्टी और अपना दल, निषाद पार्टी, सुभासपा, लोकजनशक्ति पार्टी, ए आई एम आई एम जैसी छोटी पार्टियाँ भी शामिल हैं।
यह सूची बहुत लम्बी है और भारत के राजनीतिक मानचित्र के बड़े हिस्से को घेरती है। काँग्रेस और नैशनल कॉन्फ्रेंस क्रमशः गाँधी-नेहरू और अब्दुल्ला परिवार की पीढ़ी-दर-पीढ़ी चलने वाली वंशवादी राजनीति के सिरमौर हैं। राष्ट्रीय जनता दल और समाजवादी पार्टी ने भी कुनबापरस्ती के अभूतपूर्व कीर्तिमान स्थापित किये हैं। पश्चिम बंगाल की मुख्यमन्त्री ममता बनर्जी और बसपा सुप्रीमो मायावती ने भी अपनी पार्टी की बागडोर अपने-अपने भतीजों को सौंपने की दिशा में कदम बढ़ा दिए हैं। सिर्फ भारतीय जनता पार्टी, कम्युनिस्ट पार्टियाँ और नवोदित आम आदमी पार्टी अभी तक इस सर्वग्रासी व्याधि से बची हुई हैं। लोकतन्त्र और वंशवाद दो सर्वथा विपरीत विचार हैं। लेकिन स्वातंत्र्योत्तर भारत में यह विरोधाभास खूब फला-फूला है।
इस बीमारी की शुरुआत तभी हो गयी थी जब पंडित मोतीलाल नेहरू बड़ी समझदारी और सूझ-बूझ से अपने सपूत पंडित जवाहरलाल नेहरू को पहले काँग्रेस अध्यक्ष और फिर गाँधीजी का करीबी, कृपापात्र और उत्तराधिकारी बनाने में सफल हो गए थे। ऐसा करके उन्होंने नेताजी सुभाषचन्द्र बोस और सरदार वल्लभ भाई पटेल जैसे अत्यंत संघर्षशील, सक्षम और समर्पित नेताओं को पछाड़ते हुए स्वाधीन भारत के भविष्य को अपने परिवार की मुट्ठी में कर लिया।
स्वाधीनता-प्राप्ति के बाद गांधीजी एक राजनीतिक दल के रूप में काँग्रेस की कोई भूमिका नहीं चाहते थे। लेकिन अन्यान्य कारणों से ऐसा न हो सका और काँग्रेस ने स्वाधीनता संघर्ष की विरासत को हड़प लिया। पंडित नेहरू ने काँग्रेस को अपनी जागीर बना लिया। उन्होंने इस जागीरदारी को सांस्थानिक वैधता प्रदान करते हुए अपने जीवनकाल में ही अपनी इकलौती संतान इंदिरा गाँधी को काँग्रेस अध्यक्ष और बाद में अपने मंत्रिमंडल में शामिल कर लिया। उसके बाद इंदिरा गाँधी, संजय गाँधी, राजीव गाँधी, सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी तक की यात्रा काँग्रेस पूरी कर चुकी है। अभी तक अविवाहित राहुल गाँधी से बैटन सँभालने के लिए प्रियंका गाँधी तैयार हैं और परिपार्श्व में उनके सुपुत्र रेहान गाँधी वाड्रा भी झकास कुर्ता-पायजामा पहनकर लोकतन्त्र की रक्षा को सुसज्जित हैं।
गैर-काँग्रेसवाद और गैर-परिवारवाद का नारा देने वाले डॉ. राममनोहर लोहिया के उत्तराधिकारियों का ‘समाजवाद’ भी काँग्रेस से इतर नहीं है। समाजवादी आन्दोलन और सम्पूर्ण क्रांति से उद्भूत तमाम क्षेत्रीय दल या तो परिवार विशेष की निजी जागीर हैं या निजी कम्पनियां हैं। यह परिवार की शिक्षा-दीक्षा पर निर्भर करता है कि पार्टी सामन्त की तरह चलायी जाएगी या फिर मुख्य कार्यकारी अधिकारी की शैली में चलायी जाएगी। दोनों ही स्थितियों में लोकतन्त्र के खोल में मनमानी चल रही है।
लोकतन्त्र तो आवरण और आडम्बर मात्र है। इन दलों का लोकतन्त्र सामन्तशाही का विकृत आधुनिक संस्करण है। कार्यकर्ताओं की भावना, इच्छा, क्षमता, मेहनत और विचार का कोई सम्मान और सुनवाई नहीं है। उनके लिए जगह और अवसर परिवार-विशेष की कृपादृष्टि का परिणाम हैं और पार्टी में उनका स्थान परिवार के प्रसाद-पर्यंत ही है। इन दलों में परिवार विशेष की चाटुकारिता और गणेश परिक्रमा मुक्तिमार्ग है। जो ऐसा नहीं कर सकते उनका राजनीतिक निर्वासन अथवा वनवास सुनिश्चित है। काँग्रेस आदि वंशवादी राजनीतिक दलों की नीति प्रतिभा दलन और नियति प्रतिभा पलायन है।
इन दलों में नियमित अंतराल पर लोकतान्त्रिक प्रक्रिया द्वारा नेतृत्व परिवर्तन की कोई सांस्थानिक व्यवस्था नहीं है। वे चुनाव आयोग की नियमावली को धता बताते हुए उसके साथ आंखमिचौली खेलने में माहिर हैं। इन दलों के तमाम सांगठनिक पदों पर चुनाव नहीं मनोनयन होता है। वंशवादी दलों में आरोपित नेतृत्व होता है और सत्ता का प्रवाह ऊपर से नीचे की ओर होता है। यह राजतंत्रात्मक व्यवस्था का पर्याय है। जबकि लोकतन्त्र में नेतृत्व नीचे से सहमति/स्वीकृति प्राप्त करते हुए ऊपर की ओर संचरित होता है। वाद-विवाद-संवाद लोकतन्त्र का आधारभूत लक्षण है। इससे ही लोकतन्त्र विकसित और परिपक्व होता है।
परन्तु दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण सत्य यह है कि वर्तमान राजनीतिक परिदृश्य में असहमति और आलोचना के लिए कोई स्थान या अवसर नहीं है। विचार-विमर्श की जगह लगातार सिकुड़ती जा रही है। इस जगह का सिकुड़ना लोकतन्त्र के दम घुटने जैसा है। आज ज्यादातर राजनीतिक दल (आंतरिक) लोकतन्त्र का गला घोंटने की कार्रवाई में मशगूल हैं। वंशवादी दल इस काम में सर्वाधिक तत्परतापूर्वक जुटे हुए हैं। आंतरिक लोकतन्त्र न होने से लोकतान्त्रिक व्यवस्था में ठहराव आ जाता है और सड़ान्ध पैदा हो जाती है। अंततः इसका परिणाम दल विशेष को भी भुगतना पड़ता है। काँग्रेस इसका जीता जागता उदाहरण है।
ये वंशवादी राजनीतिक दल ‘परिवार के परिवार द्वारा परिवार के लिए संचालित गिरोह’ हैं। वंशवादी दलों की यह अनोखी विशेषता अब्राहम लिंकन द्वारा दी गयी लोकतन्त्र की परिभाषा को मुँह चिढ़ाती है। इन दलों की संविधान, संवैधानिक संस्थाओं और दायित्वों में कोई आस्था या प्रतिबद्धता नहीं है। जनकल्याण अथवा राष्ट्र-निर्माण से उनका कुछ लेना-देना नहीं है। ये सब छलावा है और सत्ता-प्राप्ति और स्वार्थ-सिद्धि का आवरण-मात्र है। परिवार विशेष का साल-दर-साल और पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी राजनीतिक दल पर वर्चस्व राजवंशों की परिपाटी अथवा मुगलिया सल्तनत जैसा अनुभव ही है।
इस वंशवादी प्रवृत्ति का आदिस्रोत काँग्रेस और मूल प्रेरणा भले ही नेहरू-गाँधी परिवार हो, किन्तु इसके लिए जनता भी कम दोषी नहीं है। उसने लोकतन्त्र का मुलम्मा चढ़ाये राजवंशों को पहचानने में कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई है। परिणाम यह हुआ कि आज देश के सबसे बड़े दल से रिसते हुए परिवारवाद से पूरा देश बजबजा रहा है। यह प्रवृत्ति संसद, विधान सभाओं और ग्राम पंचायतों तक में फैलकर विकराल होती जा रही है।
इससे राजनीतिक क्षेत्र में नए विचारों, नयी ऊर्जा और नए चेहरों का प्रवेश निषेध होता जा रहा है। ऐसी स्थिति में जनता की आवाज़ और भावना के सगुण-सकर्मक रूप लोकतन्त्र का संरक्षण स्वाभाविक चुनौती है। स्वतन्त्र-चेता और सक्षम नेतृत्व का नियमित उभार लोकतन्त्र के स्वास्थ्य-लाभ की अनिवार्य शर्त है, जोकि वंशवादी राजनीतिक वातावरण में अनुपस्थित होता है। भारतीय लोकतन्त्र को वंशवादी राजनीति के जबड़े से निकालना आवश्यक है।
शिक्षित नागरिक समाज और जागरूक जनता को लोकतन्त्र के वास्तविक उद्देश्य को समझने और दूसरों को समझाते हुए इस तिलिस्म को तोड़ना होगा। चुनिन्दा परिवारों के चंगुल से निकलकर जब लोकतन्त्र खुले मैदानों में फेफड़े भर ऑक्सीजन लेगा, तभी कल्याणकारी राज्य की अवधारणा फलीभूत हो सकेगी और लोकतन्त्र एक खोखला नारा न होकर सामाजिक सशक्तिकरण और चतुर्दिक विकास का संवाहक बन सकेगा।