आवरण कथा

लोकतन्त्र और हमारा समय – रामनाथ शिवेन्द्र

 

  • रामनाथ शिवेन्द्र

 

आज का हमारा समय समतल, सीधा, एकरेखीय, सरल, व तरल नहीं है भले ही दिखता हो सरल, तरल तथा एक रेखीय। दिखने में लगता हो कि भाई चारे, बन्धुत्व, सहभागिता पूर्ण रिश्तों वाले उदार समाज के हम उदारता बोध वाले प्रकृतिमूलक चेतना के जन है और उस प्रकृतिमूलक लोक के निवासी हैं जो न केवल भूगोलों की पाबन्दियों वरन् ताकतवरों द्वारा गढ़े गये इतिहासों व उनके आख्यानों वाली संस्कृति से अलग सहभागी समाज प्रबन्धन वाली संस्कृति के लोग हैं। हम एकबारगी तथा अनायास ही नहीं बल्कि सायास सभै भूमि गोपाल वाली प्रकृतिमूलक सभ्यता के लोग है पर आज हम उससे बिलग हो कर स्वामित्व तथा आधिपत्य के कृत्रिम सभ्यता वाले समाज के लोग बन कर बाजार का एक उत्पाद भर बन कर रह गये हैं। आज हम बाजार की सभ्यता में हैं तथा बिकने वाली किसी वस्तु की तरह हैं। यह जो बाजार नाम की चीज है उसने प्रकृतिमूलक चेतना को लील लिया है और हमें बिकने वाली वस्तु के रूप में उत्पादित कर दिया है फलस्वरूप संवेदनायें, भावनायें, उससे जुड़ी सारी कलायें बिकने के लिए विवश हो चुकी हैं तथा बाजार आज के समय में सत्ता प्रभुओं को भी अपनी गिरफ्त में ले लिया है। फिर भी हमारा समय पूरी तरह से लोकतान्त्रिक बनने के लिए तमाम तरह की बाधाओं को पार करता हुआ दिख रहा है पर कहा जाना चाहिए कि लोकतन्त्र की सहभागी अवधारणाओं को पाने के लिए जो तथा जितनी प्रकार की बाधायें हैं उन्हें समाप्त करने की दिशा में हमारी सरकारों की इच्छाशक्ति जिस अनुपात में दिखनी चाहिए नहीं दिख रही। लोकतान्त्रिक समाज के गठन की दिशा में हमने जिस लोकपाल सृजन के बाबत संकल्प लिया था तथा लोकपाल को पूरी तरह सरकारी दबावों से मुक्त रखने के निर्णय पर जिस शुचिता पूर्ण सहमति को प्रदर्शित किया था वह अब कहीं नहीं दिख रहा। लोकपाल की अवधारणा को घायल करना लोकतन्त्र की अवधारणा को सीमित करना उसे महज दिखाऊ बनाना है। केवल लोकतन्त्र का आवरण दिखता रहे पर भीतर तानाशाही प्रवित्तियाँ उन्मादी तरीके से अपना काम करती रहें, सवाल है आखिर लोकशाह को जनता के प्रति जबाबदेह क्यों नहीं बनाया जाना चाहिए? लोकतन्त्र में तो जबाबदेही ही सत्ताप्रबंधकों को विनम्र तथा उदार बना सकती है। जब जबाबदेही से सत्ताप्रबंधक मुक्त हो जायेंगे या खुद को किसी भी तरह से मुक्त कर लेंगे फिर तो वह लोकतन्त्र केवल दिखावे के लिए ही बचा रह सकता है। भला ऐसे लोकतन्त्र से जनता का कैसे भला हो सकता है जो प्रकृतिमूलक चेतनाओं से विरत हो तथा सत्ताप्रभुओं की कृपा की आकांक्षी हो।

लोकतन्त्र का एक अर्थ है निष्पक्ष चुनाव तथा चुनाव आयोग को सरकारी दबावों से पूरी तरह मुक्त रखना पर अभी तक हम ऐसा नहीं कर सके। चाहे चुनाव आयोग को ताकतवर बनाने एव उसे निष्पक्षता से काम करते रहने के लिए प्रयास करना हो तथा लोकपाल को आजादी के साथ लोकशाहों की कार्यशैलियों के मूल्यांकन एवं समीक्षा करने का अधिकार हो इस दिशा में हम उल्लेखनीय ढंग से प्रगति नहीं कर पाये हैं। जिस लोकतान्त्रिक ढाचें की हमने कल्पना की थी कि वह तानाशाही वाले ढांचे से पूरी तरह अलग तथा कार्यशैली में भी प्रभावकारी दिखे वैसा करने में हम अभी तक सफल नहीं हो पाये हैं। गम्भीरता से अगर देखा जाये तो कुछ काम जिसे मौजूदा सरकार ने किया है उन कामों में साफ साफ तानाशाही वाली प्रवित्तियाँ दिखती हैं। नोटबन्दी का सन्दर्भ हो, सीबीआई की कार्य पद्धतियों में सरकार का दखल रहा हो या योजना आयोग के ढांचे को नीति आयोग में बदलने का काम रहा हो ये सारे कार्य किसी न किसी रूप में तानाशाही शैली के प्रतीक की तरह प्रभाव छोड़ने वाले थे। तानाशाही वाले कार्य प्रारूपों से सरकार चाहे तो खुद को बचा सकती है तथा अपने प्रयासों को लोकल्याणकारी कार्यों की दिशा में मोड़ने का काम कर सकती हैं पर दुर्भाग्य से ऐसा सम्भव नहीं हो पा रहा है।

लोकतान्त्रिक सरकर का अर्थ है लोक की सरकार, लोक द्वारा चुनी हुई कल्याणकारी सरकार, उससे सन्दर्भित अर्थ है लोक की इच्छाओं, भावनाओं एवं आवश्यकताओं को पूरी करने वाली सम्प्रभुता संपन्न सरकार। राष्ट्र की सम्प्रभुता की सुरक्षा के साथ-साथ राष्ट्र के भीतर निवसने वाली जनता के सम्मान, मर्यादा, एवं उनके आर्थिक एवं सामाजिक हितों की सुरक्षा करने वाली सरकार। कहा भी जाता है कि शासितों की सहमति ही सरकार होती है असहमति नहीं। वैसे यह ठीक है कि लोकशाही का गठन ही लोक की सहमति से होता है पर इससे अधिक यह भी ठीक है कि लोकशाही के गठन के बाद लोकशाही को लोकतान्त्रिक मूल्यों को किसी भी हाल में नहीं तोड़ना चाहिए। लोकतान्त्रिक सरकारों के लिए आवश्यक हो जाता है कि वे तानाशाही प्रारूप वाले निर्णयों से खुद को बचायें ऐसा न करें जिससे आभास हो कि उन्हें पाँच साल तक कोई रोक नहीं सकता, वे मनमानी कर सकते हैं। यह जो पाँच साल की कार्यावधि है लोकतान्त्रिक सरकार को निरंकुश बनने का लाइसेन्स नहीं देती है कि सरकार संसद में स्पष्ट बहुमत का मनचाहा उपयोग कर सकें। स्पष्ट बहुमत तो लोक के प्रति विशेष तरह की कल्याणकारी एवं जनता के प्रति समर्पण की भूमिका प्रस्तावित करता है। आप को जनता ने चुना है इस लिए आपका दायित्व है कि जन भावनाओं का पूरी संवैधानिक क्षमता के साथ सम्मान करें। आप संवैधानिक पद पर हैं तो इसका अर्थ यह नहीं कि पाँच साल तक लगातार मनमानी करते रहें और जन भावनाओं का अनादर करते रहें। संसद में  आपका बहुमत है, किसी भी तरह का कानून बना सकने की क्षमता संविधान द्वारा आपको हासिल है तो क्या आप ऐसे कानून बना सकते हैं जो जनभावनाओं का अनादर करने वाले हों? कतई नहीं, जन भावनाओं का अनादर करने वाले कानूनों को बनाने एवं लागू करने का अर्थ ही होता है लोकतान्त्रिकता के विधिक रूपों का समापन। बारीकी से देखा जाये तो हाल के वर्षो में तीन तलाक वाला कानून या हरिजन सवर्ण वाला कानून दोनों ऐसे ही है जो साबित करते हैं कि सरकार ने मनमानी किया है, लोकतान्त्रिक मर्यादाओं का हनन किया है। माननीय उच्चतम न्यायालय के निर्णय के विरोध में लोकतन्त्र की कानून बना सकने वाली प्रविधियों का उपयोग कुछ अटपटा सा जान पड़ता है। लोकतान्त्रिक सरकारों से अनिवार्य रूप से अपेक्षा की जाती है कि वे उच्चतम न्यायालय के निर्णयों को संवैधानिक मर्यादा प्रदान कर उसे महत्वपूर्ण तथा आवश्यक बनायें न कि उसे खण्डित करे, तोड़ें, जनविरोधी परिवर्तन करें। भोजन का अधिकार तथा सूचना के अधिकार को जनता के हितों की सुरक्षा के लिए तत्कालीन सरकार द्वारा बनाये गये कानूनों को हम जनहित के पक्ष में बनाये गये कानूनों के रूप में उद्धृत कर सकते हैं। आपात काल के काले कानूनों का किस प्रकार से जनप्रतिरोध हुआ उसे किसी भी लोकतान्त्रिक सरकार को नहीं भूलना चाहिए। हमें यह भी नहीं भूलना चाहिए कि हमारे देश के लोकतन्त्र की उमर दो तीन साल ही की थी यानि 1954 में  उस समय निहत्थे मजदूरों पर गोली चलाने वाली केरल की सरकार से डा. लोहिया ने त्यागपत्र माॅग लिया था तथा अपने दल का समर्थन वापस ले लिया था। तो यह होता है लोकतान्त्रिक होने का प्रमाण। लोकतान्त्रिक होना केवल सरकार के लिए ही नहीं सबसे आवश्यक है उस व्यक्ति का लोकतान्त्रिक होना जो सरकार तथा जनता का प्रतिनिधित्व करे। लोकतान्त्रिकता वैयक्तिक गुण कर्म व धर्म होना चाहिए और उसी का अभाव हर तरफ दिख रहा है भले ही कुछ लोग चाल, चेहरा तथा चरित्र की बातें किया करते हों पर वे खुद लोकतान्त्रिक भेष-भूषा, भाषा, भोजन, भवन में भी लोकतान्त्रिक नहीं हैं, उनका गठन या तो सामन्ती सोच वाला है या तानाशाही सोच वाला… लोकतान्त्रिक मिजाज का जो नहीं है भले ही जनता उसे अपना प्रतिनिधि मान ले पर वह होता है जन विरोधी ही।

पिछली सरकारों ने क्या किया क्या नहीं किया उसे सम्बोधित करना वर्तमान सरकार की कार्य सूची में इस लिए नहीं होना चाहिए कि उसके बहाने अपने जनविरोधी कार्यो की समीक्षा को रोकने के प्रयासों की तरह होगा। लोकतान्त्रिक सरकारें अपने कार्यों की समीक्षा किए जाने को प्रत्यक्ष तथा अप्रत्यक्ष तरीकों से अगर रोकने के प्रयास करती हैं तो वे प्रयास अलोकतान्त्रिक ही नहीं तानाशाही प्रयास ही होंगे। जनता की सरकर का मतलब है विपक्ष की भूमिका को प्रश्रय प्रदान कर उसकी आलोचनाओं के सन्दर्भों का संज्ञान लेते हुए खुद को समीक्षित करना तथा तद्नुरूप खुद को रचना तथा गढ़ना। व्यक्ति तथा अभिव्यक्ति का रिश्ता प्रकृतिमूलक चेतना व सोच का प्रतिफलन है, अभिव्यक्ति है तभी तक लोकतन्त्र है अभिव्यक्ति नहीं है तो लोकतन्त्र भी नहीं है, आजादी नहीं है समानता तथा बन्धुत्व भी नहीं है। लोकतन्त्र में ही राष्ट्र तथा समाज दोनों सुरक्षित रह सकते हैं इसी लिए कहा जाना चाहिए कि राष्ट्र वही सरक्षित रह सकता है जिसमें अभेद मूलक स्वतन्त्रता हो, संवधान तथा कानूनों में जाति, लिंग तथा योनि के कटघरे न हों, व्यक्ति की कुदरती सम्प्रभुता का पर्याप्त सम्मान हो, तथा वाणी की आजादियों पर पाबन्दियाँ न हो।

लेखक ‘असुविधा’ पत्रिका के सम्पादक हैं|

सम्पर्क- +917376900866, ramnath.shivendra@gmail.com

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सबलोग

लोक चेतना का राष्ट्रीय मासिक सम्पादक- किशन कालजयी
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