
‘रेवड़ी संस्कृति’ पर बहस स्वस्थ लोकतन्त्र के लिए बेहद जरूरी
यूं तो चुनाव के समय सभी राजनीतिक दल सत्ता की लालसा में बड़े बड़े चुनावी वादे करते है। या यूं कहें कि मतदाताओं को लुभाने के लिए मुफ्त में चीजें देने की घोषणा करते है। जिसमें बिजली, राशन, पानी से लेकर लेपटॉप, टीवी साईकिल और न जाने कितना कुछ इनके चुनावी पिटारे में रहता है। हालांकि चुनाव जीतते ही ये सारे दावे फ़रेबी हो जाते हैं। फिर भी आज ऐसा कोई दल नहीं जो मुफ़्त की रेवड़ी से खुद को बचा सका। ख़ासकर मुफ्त की घोषणाओं का बाज़ार चुनावी दौर में अपने चरम पर रहता है। लेकिन अभी हाल ही में न्यायालय ने इस बात पर चिंता व्यक्त की है। न्यायालय ने केंद्र सरकार, नीति आयोग, वित्त आयोग व भारतीय रिजर्व बैंक सहित अन्य संस्थाओं से इस गम्भीर मसले पर सुझाव मांगे हैं। साथ ही इस पर एक पैनल के गठन की भी बात कही है। बीते दिनों देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक ऐसी ही बहस को हवा दी थी। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ‘रेवड़ी संस्कृति’ से देश को बचने की सलाह दी थी और कहा कि यह देश के विकास के लिए खतरा है। पीएम मोदी ने यह इशारा किया कि वोट की ख़ातिर राजनैतिक दल मुफ़्त समान या पैसा देने का ऐलान करते हैं। इसे आम जनता को नकारना चाहिए। अब ऐसे में सवाल कई हैं, लेकिन इन सवालों के जवाब कौन तलाशेगा? यह अपने-आपमें एक यक्ष प्रश्न है!
राजनीति में सभी दल अपने लिए फ़िजा बनाने की कोशिश करते हैं। फिर चाहें अरविंद केजरीवाल की पार्टी आप हो, या भारतीय जनता पार्टी या अन्य राजनीतिक दल हो। जब प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रेवड़ी संस्कृति से युवाओं को बचने की बात कही, तो इसका सीधा अर्थ यही था कि आम मतदाता अरविंद केजरीवाल की पार्टी को नकारे, क्योंकि उन्होंने मुफ़्त बिजली-पानी देने की बात कहकर दिल्ली की सत्ता प्राप्त की और अब देश के दूसरे राज्यों में उनका यह फॉर्मूला सफल होते दिख रहा है। वैसे मुफ़्त की राजनीति से कई देश बर्बादी की कगार तक पहुँच गए। फिर भी हमारे देश में मुफ़्त की सियासत दिन-प्रतिदिन फल-फूल रही। अब जब सुप्रीम कोर्ट मुफ्त की संस्कृति पर विचार कर रहा है तो देखना होगा कि आने वाले समय मे इसका वास्तविक धरातल पर कितना असर होगा? वैसे यह पहल तो हमारे देश की संसद को भी करनी चाहिए थी। पर नेताओं की भी अपनी मजबूरियां है। कोई भी दल मुफ़्त की संस्कृति से खुद को बचा नहीं पाया है। सत्ता का सुख पाने के लिए हर दल मुफ्त में चीजें देने की नुमाइश करता है। सत्ता मिल जाने के बाद कुछ हद तक इसे लागू भी करता है। जो कि सही नहीं है, क्योंकि कहीं न कहीं यह देश के विकास में बाधक बनता है।
आजादी के बाद या यूं कहें कि शास्त्री युग तक के नेताओं के लिए सत्ता देशसेवा का माध्यम थी। लेकिन भ्रष्ट नेताओं के हाथों में आने से मुफ़्त की रेवड़ी बांटने की शुरुआत हुई। अब सत्ता जनसेवा न होकर महज स्वयं सुखाय का साधन बन गई है। यही वजह है कि राजनीति में परिवारवाद भी खूब फल फूल रहा है। आधुनिकता के इस दौर में क्षेत्रवाद, जातिवाद और धर्म की राजनीति का बोलबाला है। वैसे भारत के सामाजिक पृष्ठभूमि को देखें तो यहाँ व्यापक स्तर पर आर्थिक असमानता व्याप्त है। मानव विकास के सूचकांक में हम काफी पिछड़े हैं। कुपोषण और बाल मजदूरी देश के सामने बड़ी चुनौती है, लेकिन इन सबसे निपटने का जरिया क्या हो? इस तरफ हमारे सियासतदानों का ध्यान नहीं!
अब पीएम मोदी ने मुफ़्त की सियासत को नकारने की बात कही है। फिर जिस अनाज को दो-चार रुपए किलो उपलब्ध कराके राजनीति की जा रही और मत प्राप्त करने के लिए प्रचार किया जा रहा। उसे किस श्रेणी में रखा जाए? यह भी एक सवाल है। देश में अरबों-करोड़ों की सब्सिडी प्रतिवर्ष लगभग 950 योजनाओं के माध्यम से लोगों को उपलब्ध कराई जा रही, लेकिन न तो इससे ग़रीबी दूर हुई, न ही मानव विकास के सूचकांकों में हम आगे आ पाए और न ही देश से कुपोषण और बाल मजदूरी दूर हुई। ऐसे में देश के सामने विचारणीय सवाल कई हैं, लेकिन यहाँ हर बात में सियासी फ़ायदा पहले ढूढा जाता है और यही मुफ़्त की रेवड़ी के मामले में भी है।
अन्ना आंदोलन के दौर में मोदी ने भ्रष्टाचार के ख़ात्मे के नाम पर तो केजरीवाल ने गुड़ गवर्नेंस के नाम पर सत्ता हासिल की। अगर बात पंजाब की करें तो किसान कल्याण के नाम पर सबसे ज्यादा वादे अकाली दल ने किए थे। मध्यप्रदेश से लेकर तमिलनाडु तक ऐसा कोई राज्य और कोई सरकार नहीं है। जिसने मुफ़्त की रेवड़ियां बांटकर सत्ता की चाबी हासिल न की हो। यहाँ तक कि राजनेताओं ने धर्म के नाम पर आरक्षण देने तक की घोषणा अपने चुनावी वादों में की, जबकि हमारे संविधान में धर्म के नाम पर आरक्षण का कहीं कोई प्रावधान नहीं है।
देखा जाए तो स्वास्थ्य, शिक्षा और रोजगार मानव की अहम आवश्यकता है। लेकिन इससे एक बड़ा तबका वंचित रह जाए। फिर सवाल तो लोकतन्त्र और लोकतांत्रिक व्यवस्था पर उठना लाज़िमी है, लेकिन यहाँ तो अपनी टोपी, उसके सिर वाली बात हो रही है। अमीरों पर टैक्स लगाने से सरकारें घबराती हैं। दूसरी तरफ वैश्विक भुखमरी सूचकांक 2021 में भारत को 116 देशों में से 101वाँ स्थान प्राप्त हुआ। साल 2020 के मानव विकास सूचकांक में भारत को 189 देशों में 131वां स्थान प्राप्त हुआ। मुरैना में 1500 रुपए एक पिता के पास नहीं निकले, जिसकी वजह से उसके मृत बेटे का शव घण्टों सड़क किनारे बड़े बेटे की गोद में पड़ा रहा। फिर सवाल यही है कि आख़िर ऐसा क्या हो। जिससे ग़रीब के घर भी उजाला हो। बाल मजदूरी बंद हो। शिक्षा-स्वास्थ्य पर सभी का समान अधिकार हो। साथ में रेवड़ी संस्कृति भी लोकतन्त्र में बंद हो जाए। ऐसे में पहला रास्ता यूनिवर्सल बेसिक इनकम का दिखता है, लेकिन इसके भी फ़ायदे-नुकसान दोनों हैं, लेकिन वास्तविक रूप से देखा जाए तो यह रेवड़ी संस्कृति को लोकतन्त्र से दूर कर सकता है और इसके सार्थक परिणाम से भी हम सभी अवगत है।
भारत में ही इस स्कीम को पायलेट प्रोजेक्ट के तहत इंदौर के 8 गांवों की क़रीब 6,000 की आबादी पर चलाया गया था। यह प्रयोग 2010 से 2016 के बीच किया गया था। जिसके अंतर्गत वयस्क पुरुषों और महिलाओं को 500 और नाबालिग बच्चों को हर महीने 150 रुपया दिया गया था। जिसके सार्थक परिणाम देखने को मिले थे और इस स्कीम का फायदा उठाने वाले लोगों के जीवन स्तर, स्वास्थ्य, शिक्षा और मानसिक ख़ुशी जैसे क्षेत्रों में काफी सुधार देखा गया था। ऐसे में यूनिवर्सल बेसिक इनकम की तरफ देश को बढ़ना चाहिए। इससे राजनीति में स्वच्छता तो आएगी ही, साथ में देश की सामाजिक स्थिति भी सुदृढ होगी और जिस सामाजिक न्याय की बात संविधान में की गई है। वह वास्तविक धरातल पर चरित्रार्थ होगा। यूनिवर्सल बेसिक इनकम की राह में रोड़ा बजट का आ सकता है तो क्यों न इसके लिए सब्सिडी को सभी तरह से बंद किया जाए और अमीरों पर टैक्स बढाने की हिम्मत रहनुमाई व्यवस्था कर सकें। जिससे वास्तविक सामाजिक समरसता दीप्तमान हो सकती है।
संविधान के अनुच्छेद 324 के तहत टीएन शेषन ने चुनावी व्यवस्था को दूरस्थ करने का प्रयास जरूर किया। वही मतदाताओं को मुफ्त की चीजें बांटना एक प्रकार से घूसखोरी है, लेकिन उसे रोकने के लिए चुनाव आयोग के पास कोई नीति नहीं दिखती। ऐसे में सवाल यही उठता है कि न्यायालय की इस पहल का वास्तविक धरातल पर कितना असर दिखता है। मुफ्त के वादों का तमाम राजनीतिक दल महिमा मण्डन करते नहीं थकते। बड़े बड़े पोस्टर बैनर लगाकर जोरो शोरो से प्रचार किया जाता है तो क्यों न न्यायालय के द्वारा एक ऐसी पहल की जाए जिससे राजनेता अपने क्षेत्र की आर्थिक बदहाली के आंकड़ो के साथ भी फ़ोटो विज्ञापन छपवाए ताकि कुछ हद तक ही सही मुफ्त की रेवड़ी पर लगाम लग सकें। राजनीति भ्रष्टाचार मुक्त हो सकें।