किसान आन्दोलन में गतिरोध
लगभग 4 महीने बीतने के बावजूद 25 नवम्बर से शुरू किया गया दिल्ली की सीमाओं का घेराव अभी तक जारी है। सिंघू बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर पर किसानों का जमावड़ा है। यह लम्बे समय से जारी धरना सितम्बर माह में केंद्र सरकार द्वारा बनाये गए तीन कृषि कानूनों के विरोध में है। दिल्ली की सीमाओं की इस घेराबन्दी और 26 जनवरी की दुस्साहसिक घटना ने मध्यकालीन युद्धों की यादें ताजा कर दी हैं। उस समय राजतंत्रात्मक व्यवस्था थी और बाहरी आक्रमणकारी (ख़ासतौर पर अफगानिस्तान की ओर से आने वाले) इसीप्रकार किलों की घेराबन्दी किया करते थे। यह घेराबन्दी जीत का नायाब नुस्खा थी। आज एक बार फिर उसी मध्यकालीन नुस्खे के बलबूते सरकार और किसानों के बीच रस्साकशी जारी है। आज हम आधुनिक समय में जी रहे हैं और संसदीय व्यवस्था वाले लोकतान्त्रिक देश के नागरिक हैं। लेकिन चिंताजनक है कि इस किसान आन्दोलन ने तमाम लोकतान्त्रिक संस्थाओं, प्रक्रियाओं और प्रतीकों में अविश्वास व्यक्त किया है। यह विडम्बनापूर्ण ही कहा जायेगा कि जिन संस्थाओं और प्रक्रियाओं को इस आन्दोलन ने ख़ारिज कर दिया है; उन्हीं से न्याय की माँग भी की जा रही है।
दरअसल, यह आन्दोलन विपक्ष की भ्रम और झूठ की राजनीति का विषवृक्ष है। तमाम विपक्षी दल इसे सत्तारूढ़ भाजपा के खिलाफ एक अवसर के रूप में देख रहे हैं। भाजपा का प्रभाव और विस्तार निरंतर बढ़ते जाने से विपक्षी खेमे में स्वाभाविक ही हताशा और बौखलाहट है। इस आन्दोलन की जड़ में इस हताशा और बौखलाहट के बीज हैं। नागरिकता संशोधन कानून के समय भी विपक्ष ने ऐसा ही भ्रमजाल फैलाया था। उस समय जिसप्रकार मुसलमानों को नागरिकता छिनने और ‘देश निकाले’ का डर दिखाया गया था; ठीक उसीप्रकार इसबार किसानों को जमीन छिनने और कॉरपोरेटों का बंधुआ मजदूर बनने का डर दिखाया गया है।
निश्चय ही, विपक्ष को अन्नदाताओं को बहकाने का अवसर इसलिए मिला क्योंकि सरकार सही समय पर किसानों को सही बात बताने और समझाने में नाकामयाब रही। संपर्क और संवाद की कमी इस आन्दोलन की उपज का एक बड़ा कारण है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति-2020 लागू करते समय सरकार ने सभी हितधारकों के साथ अभूतपूर्व विचार-विमर्श किया था। कृषि प्रधान देश भारत में कृषि का महत्व शिक्षा से कम नहीं है। भारत में जितनी दुर्दशा आज शिक्षा की है; उससे कहीं अधिक दयनीय हालत खेती-किसानी और अन्नदाताओं की है। इसी चिंता से प्रेरित होकर ये कृषि कानून लागू किये गए थे। किन्तु इन किसान हितैषी कानूनों को लागू करते हुए हितधारक किसानों और किसान संगठनों से पर्याप्त संवाद और संपर्क नहीं किया गया।
जिन दो-तीन बिन्दुओं पर विपक्ष को किसानों को भड़काने और भरमाने का मौका मिला; उनमें केंद्र सरकार द्वारा न्यूनतम समर्थन मूल्य-व्यवस्था और सरकारी खरीद-व्यवस्था की समाप्ति, अडानी-अम्बानी जैसे बड़े कॉरपोरेट घरानों द्वारा ठेके पर किसानों की जमीनें लेकर क्रमशः उन्हें हड़प लेने तथा किसानों को बंधुआ मजदूर बना लेने की आशंका और विवाद होने की स्थिति में न्यायालय जाने की विकल्पहीनता प्रमुख हैं। इन्हीं बातों का हौआ खड़ा किया गया है। भोले-भाले किसान पंजाब की वर्चस्वशाली और बहुत बड़ी आढ़तिया लॉबी के दुष्प्रचार के शिकार हो गए और उनके बहकावे में आकर घर से निकल पड़े। दरअसल, इन कानूनों से सर्वाधिक नुकसान बिचौलियों और आढ़तियों को ही होना है।
इसलिए उन्होंने इन कानूनों को रद्द कराने के लिए सारी शक्ति और संसाधन झोंक डाले हैं। भड़के और बहके हुए किसान तमाम टोल प्लाजाओं को ध्वस्त करते हुए दिल्ली की सीमा पर आ पहुंचे। रास्ते में उन्हें रोकने के लिए हरियाणा सरकार द्वारा की गयी ‘हरकतों’ और कड़कड़ाती सर्दी में ठिठुरते किसानों ने देश और दुनिया में आन्दोलन के प्रति संवेदना का संचार कर दिया। धीरे-धीरे पंजाब की कांग्रेस सरकार और आढ़तिया लॉबी द्वारा सुलगायी गयी यह आग हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों में भी फ़ैल गयी। कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडेयु द्वारा कनाडावासी सिख वोटबैंक की चिंता में इस आन्दोलन के समर्थन में दिए गए बयान ने इसे अंतरराष्ट्रीय मुद्दा बना डाला। बिजली संशोधन विधेयक, पराली जलाने पर दंडात्मक कार्रवाई वाले कानून और गन्ना किसानों की लम्बे समय से बकाया राशि के भुगतान में चीनी मिलों द्वारा की जा रही आनाकानी आदि कारणों ने इस आग में घी का काम किया।
सरकार की ग़लती यह रही कि वह शुरू में ही स्थिति का सही आकलन करने में नाकामयाब रही और आन्दोलन, आन्दोलनकारियों और उनके पीछे सक्रिय तत्वों को हल्के में लेती रही। बीच-बीच में सरकार और सरकारी दल के लोगों द्वारा किसान आन्दोलन को खालिस्तानी आन्दोलन, विदेशी षड्यंत्र, अप्रवासी भारतीयों द्वारा प्रायोजित आन्दोलन, अराजक तत्वों और नक्सलवादियों की शह पर खड़ा आन्दोलन आदि मानने/कहने से चिढ़कर बॉर्डर पर भारी संख्या में आ जमे किसानों ने इसे नाक का सवाल बना लिया। इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी भी आन्दोलन में कुछ शरारती और स्वार्थ-प्रेरित तत्व घुसपैठ कर ही लेते हैं। लेकिन उन मुट्ठी भर लोगों की उपस्थिति और उनकी हरकतों के आधार पर पूरे-के-पूरे आन्दोलन को निरस्त या नज़रन्दाज कर देना या उसकी नोटिस न लेना भी समझदारी नहीं है।
हालाँकि, ग्रेटा थनबर्ग और रिहाना द्वारा किसान आन्दोलन के समर्थन में किये गए ट्वीट्स और टूल किट प्रकरण ने सरकारी पक्ष के अंतरराष्ट्रीय साजिश के आरोपों की पुष्टि की है। क्या पर्यावरण कार्यकर्त्ता किशोरी ग्रेटा थनबर्ग को इस बात की जानकारी है कि पंजाब–हरियाणा में जलायी जाने वाली पराली से कितना प्रदूषण होता है और उसका प्रभाव दिल्लीवासियों और पर्यावरण पर क्या होता है? पॉप गायिका रिहाना को गेहूँ और धान का फ़र्क तो खैर क्या ही पता होगा, परन्तु क्या वह पूरे विश्वास के साथ यह भी बता सकती हैं कि दुनिया के नक़्शे में भारत कहाँ है? फिर भी प्रधानमंत्री श्री नरेंद्र मोदी को आन्दोलन में योगेन्द्र यादव जैसे लोगों की उपस्थिति और सक्रियता को नज़रन्दाज करते हुए राज्यसभा में आन्दोलनजीवी और परजीवी जैसे शब्दों के प्रयोग से बचना चाहिए था। बाद में उनके द्वारा लोकसभा में किसानों और किसान आन्दोलन की शुद्धता और भारतीय अर्थव्यवस्था की रीढ़ किसानों की दयनीय स्थिति को रेखांकित करते हुए क्षतिपूर्ति कर दी गयी। प्रधानमंत्री द्वारा यह स्वीकृति और आन्दोलनकारी किसानों के प्रति संवेदना की अभिव्यक्ति संवाद और समाधान की ठोस पहल थी।
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26 जनवरी याकि गणतंत्र दिवस का स्वातंत्र्योत्तर भारत के इतिहास में विशेष महत्व है। यह उस संविधान के लागू होने का पवित्र दिन है जो जाति, पंथ, क्षेत्र, लैंगिक-आर्थिक स्थिति आदि के आधार पर होने वाले हर प्रकार के भेदभावों को निरस्त करते हुए और आम आदमी को भेदभाव से संरक्षण प्रदान करता है। संविधान सबको समता और न्याय की गारंटी सुनिश्चित करता है। इसी दिन किसानों ने दिल्ली पर धावा बोल दिया और न सिर्फ हिसंक घटनाओं को अंजाम दिया; बल्कि लाल किले पर निशान साहिब फहरा दिया। यह सचमुच बड़ी दुखद और दुर्भाग्यपूर्ण घटना थी। इस घटना ने अबतक अहिंसक और अ-राजनीतिक रहे आन्दोलन की वैधता और नैतिकता को भारी ठेस पहुंचाकर उसे कमजोर किया। गाँधी जी मानते थे कि आन्दोलन की सफलता के लिए नैतिक बल सबसे बड़ा बल होता है। किसानों को इस बात को समझने की आवश्यकता है। तीन महीने से अधिक लम्बी दिल्ली की घेराबन्दी ने न सिर्फ दिल्ली के बल्कि आस-पास के गैर-किसान नागरिकों की रोजमर्रा की ज़िन्दगी में तमाम मुश्किलात खड़ी कर दी हैं। किसानों और किसान नेताओं को इन निर्दोष नागरिकों की परेशानियों की भी चिंता करनी चाहिए और अपनी जिद छोड़नी चाहिए। जनता की सहानुभूति खोकर कोई भी आन्दोलन सफल नहीं हो सकता है।
एक दर्जन से ज्यादा दौर की वार्ता हो चुकी है। लेकिन अब वार्ताओं का दौर थम गया है और आन्दोलन एक खास तरह के गतिरोध और ठहराव का शिकार हो गया है। केंद्र सरकार ने तीनों कानूनों को तत्काल रद्द करने के अलावा किसानों की सभी माँगें मान ली हैं। साथ ही, समझौते और समाधान के लिए गंभीरता और प्रतिबद्धता दिखाते हुए सरकार ने तीनों कानूनों को 18 महीने तक स्थगित रखने और इस बीच आन्दोलनरत किसान संगठनों और सरकार के प्रतिनिधियों की संयुक्त समिति बनाने का भी वायदा किया है। यह संयुक्त समिति 18 महीने की अवधि में इन कानूनों पर तमाम हितधारकों से व्यापक विचार-विमर्श कर लेगी और जो भी प्रतिगामी और किसान विरोधी प्रावधान होंगे उन्हें हटा दिया जायेगा। आवश्यकता पड़ने पर इस अवधि को 18 महीने से बढ़ाकर दो साल भी किया जा सकता है; जैसाकि कांग्रेस की पंजाब सरकार ने मध्यस्थ की भूमिका निभाते हुए प्रस्तावित किया है। यह बहुत ही व्यावहारिक प्रस्ताव है और सरकार की ओर से पूरी संवेदनशीलता दिखाते हुए समाधान की दिशा में बढ़ने की निर्णायक पहल है। इस संयुक्त समिति के पास किसानों की दशा सुधारने के लिए कुछ ठोस और जमीनी प्रस्ताव देने का भी अवसर रहेगा। लेकिन किसान नेता इस प्रस्ताव को लेकर गंभीर नहीं हैं। इससे पहले भी वे माननीय उच्चतम न्यायालय द्वारा इन कानूनों के परीक्षण और मध्यस्थता के लिए बनायी गयी विशेषज्ञ समिति का बहिष्कार कर चुके हैं।
शुरू से लेकर आजतक किसान नेता तीनों कानूनों को रद्द करने की माँग पर अड़े हुए हैं। इसप्रकार की एकसूत्रीय जिद समाज के लिए, लोकतंत्र के लिए और स्वयं किसानों के लिए भी घातक है। प्रत्येक आन्दोलन की एक आयु होती है। उसे अनंत काल तक नहीं चलाया जा सकता। जो किसान नेता अपनी राजनीति चमकाने की फ़िराक में इस आन्दोलन का अधिकतम दोहन कर लेना चाहते हैं और अक्टूबर तक धरना चलाने की घोषणाएं कर रहे हैं; वह इस बात को समझ लें कि सबकुछ पाने के फेर में सबकुछ से हाथ भी धोना पड़ जाता है। जब लम्बा खिंचता आन्दोलन गुटबाजी और अंतर्विरोधों का शिकार होकर टूट-बिखर जायेगा तो आज जिन किसानों ने उन्हें कन्धों पर बैठा रखा है, वही किसान उन्हें कभी माफ़ नहीं करेंगे। उनकी सारी राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं स्वाहा हो जायेंगी और बेचारे किसान जो सचमुच ‘सर्वहारा’ और शोषित हैं, इतने लम्बे आन्दोलन और संघर्ष के बावजूद उनके हाथ कुछ भी नहीं आएगा। रबी की फसल- गेहूँ,सरसों,गन्ना,आलू आदि की कटाई/खुदाई का समय निकट आ गया है।
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अगर इस वक्त किसान वापस लौट जायेंगे तो आन्दोलन बेनतीजा ख़त्म हो जायेगा और अगर वे जिद में आकर जमे रहेंगे तो उनकी फसलें बर्बाद हो जायेंगी। इससे पहले से ही तबाह अन्नदाता और तबाह हो जायेंगे। कोरोना के कारण धराशायी अर्थव्यवस्था को भी इससे भारी नुकसान होगा। संभवतः सरकार ने इसी पहलू को ध्यान में रहकर इतनी निर्णायक पहल की है। अब बारी किसान नेताओं की है कि वे जिद को छोड़कर अपने किसान-प्रेम और देश-प्रेम का परिचय दें। उनकी जिद के चलते इस ऐतिहासिक जीत के हार में बदलने में देर नहीं लगेगी। और यह हार किसानों और किसान राजनीति की कब्रगाह साबित होगी।
धीरे-धीरे धरना-स्थलों से भीड़ कम हो रही है और आन्दोलन चलाने के लिए इकट्ठे किये जाने वाले चंदे की आवक भी क्रमशः कम हो रही है। किसानों का धैर्य चुक रहा है। कुछ लोग धरना-स्थल पर पक्का निर्माण कर रहे हैं। कुछ किसान नेता चुनाव वाले राज्यों में भाजपा के खिलाफ प्रचार के लिए निकल गए हैं। इससे आन्दोलन का अबतक रहा गैर-राजनीतिक चरित्र, नैतिक बल एवं वैधता प्रभावित होगी। प्रतिरोध प्रतिशोध में नहीं बदलना चाहिए। प्रतिशोध से उत्पन्न होने वाले ‘डेडलॉक’ की समाप्ति असंभव हो जाएगी। सरकार और सरकारी एजेंसियों को भी प्रतिशोधात्मक कार्रवाई से बचना चाहिए। इस ‘डेडलॉक’ के लिए फेसबुकिया एक्टिविस्ट भी जिम्मेदार हैं। उनका खेती-किसानी से कुछ लेना-देना नहीं है। बिना वस्तुस्थिति और वास्तविकता को समझे वे आन्दोलन के पक्ष में घर बैठकर गोलंदाजी करते रहे और उसे ऐसे भँवर जाल में फँसा दिया है कि अब न उगलते बन रहा है, न निगलते बन रहा है। क्या इन सोशल मीडिया एक्टिविस्टों ने एकदिन का उपवास रखकर वह धनराशि किसान आन्दोलन को समर्पित की है? या किसान आन्दोलन में कुछ भी सगुण और सक्रिय सहयोग किया है!
अब किसान नेताओं पर सारा दारोमदार है कि वे इस आन्दोलन की अंतिम परिणति क्या चाहते हैं! क्या सरकार को झुकाकर और उसकी नाक रगड़ने से ही उनके अहं की तुष्टि होगी? विवादित विधेयकों को दो साल तक के लिए स्थगित करने का प्रस्ताव करके और न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था को लागू रखने के बारे में तमाम मंत्रियों से लेकर स्वयं प्रधानमंत्री तक ने संसद तक में बयान दिया है। उन्होंने लिखकर भी किसानों को आश्वस्त किया है कि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था थी, है और आगे भी यथावत जारी रहेगी। इस बार भी पिछले सालों की तरह सरकारी खरीद हुई है और न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था भी यथावत जारी है। जिसप्रकार किसान नेताओं ने इसे नाक का सवाल बना लिया है, लगता है उसीप्रकार सरकार भी अब किसानों और किसान संगठनों की ओर पीठ करके सो गयी है। पश्चिम बंगाल, असम और केरल आदि राज्यों में चुनाव की रणभेरी बज उठी है। सरकार और सरकारी लोग अब वहाँ चुनावों में उलझे हुए हैं। इधर किसान दिल्ली के बॉर्डरों पर पर पड़े हुए हैं। जिनकी सुध-बुध लेने के लिए अब सरकार की ओर से कोई आगे नहीं आ रहा है। इसप्रकार अब किसान आन्दोलन एक खास तरह की दोतरफा जिद के चलते गतिरोध का शिकार हो गया है। सरकारी पक्ष और किसान संगठनों के जिम्मेदार लोगों को पटरी से उतरे हुए वार्तालाप के दौर को फिर शुरू करना चाहिए और यथाशीघ्र किसानों की चिंता और समस्याओं का समाधान करते हुए इस आन्दोलन को एक सकारात्मक और सुखद परिणति तक पहुँचाना चाहिए।
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सरकार और किसानों को यह मानने और समझने की आवश्यकता है कि इन कानूनों के अलावा भी किसानों की बदहाली दूर किये जाने के लिए बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता है। सरकारी खरीद व्यवस्था याकि न्यूनतम समर्थन मूल्य व्यवस्था के बावजूद किसानों की दुर्दशा किसी से छिपी नहीं है। पुरानी व्यवस्था में बदलाव की अपरिहार्यता से इनकार नहीं किया जा सकता। कुछ बदलाव करके ही अन्नदाताओं के जीवन में खुशहाली लायी जा सकती है। ये बदलाव क्या हों? इस विषय पर सरकार और किसान संगठनों को मिल-बैठकर विचार-विमर्श करने की आवश्यकता है। ऐसा तभी संभव है, जब आपस में विश्वास और सद्भाव का वातावरण बने। ये क़ानून नाक का सवाल नहीं बनने चाहिए क्योंकि इनके अलावा भी बहुत कुछ सोचने और करने की जरूरत है। स्वामीनाथन आयोग की रिपोर्ट इस दिशा में मार्गदर्शक और दूरगामी महत्त्व की हो सकती है।
और अंत में, लोकतान्त्रिक संस्थाओं यथा- संसद, उच्चतम न्यायालय, राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री; लोकतान्त्रिक प्रक्रियाओं (यह कानून संसद के दोनों सदनों में भारी बहुमत से पारित किये गए हैं) और लोकतान्त्रिक प्रतीकों- लालकिला और राष्ट्रध्वज (तिरंगा) आदि का सम्मान करना और उनमें आस्था और विश्वास रखना भी जरूरी है। धर्मो रक्षति रक्षितः। यह आस्था और विश्वास ही हमें पाकिस्तान, म्यांमार, उत्तर कोरिया और तमाम दक्षिण अफ़्रीकी देशों से अलग करते हैं। जहाँ जनता से लोकतान्त्रिक संस्थाओं और प्रक्रियाओं में विश्वास रखते हुए उनके सम्मान की अपेक्षा की जाती है, वहीं लोकतान्त्रिक संस्थाओं से भी जनभावना का सम्मान करने और जनता के विश्वास को बनाये/बचाए रखने की उम्मीद होती है। चुनावी जीत जन-संवाद और जन-सुनवाई की समाप्ति नहीं है। प्रचंडतम बहुमत की सरकारों को भी जनता के सवालों और चिंताओं के प्रति जवाबदेह और संवेदनशील होना चाहिए। ऐसा करके ही लोकतंत्र की बहाली और मजबूती सुनिश्चित हो सकती है।
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