लम्बे समय से चल रहा किसान आन्दोलन अब देश ही नहीं दुनिया में चर्चा का विषय बन चुका है। दर्जनों किसानों ने अपना आत्मबलिदान दिया है। 8 दिसम्बर 2020 के भारत बन्द की सफलता के बाद यह कहा जा सकता है कि यह देश का पहला आन्दोलन है, जिसने मुद्दे से शुरू होकर इतनी जल्दी जन आन्दोलन का आकार ग्रहण कर लिया। पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश की सीमाओं को लाँघता हुआ यह आन्दोलन अब पश्चिम भारत से लेकर उत्तर भारत की सीमाओं तक अपनी पैठ बना चुका है। इतना ही नहीं, यह पहला आन्दोलन है जिसने कुछ ही दिनों में दुनिया के अधिकांश देशों में जनमत इकट्ठा कर लिया है।
जंगल की आग तरह फैलने वाले इस किसान आन्दोलन को काफी गम्भीरता से समझने की जरूरत है। अफसोस यह है कि देश का सत्ता पक्ष और अधिकांश कारपोरेट घराने इसकी गम्भीरता को समझ नहीं पा रहे हैं। और कारपोरेट घराने समझे भी क्यों? वे तो महज अपना हित देखते हैं। लेकिन वे यह क्यों भूल जा रहे हैं कि उनका वजूद भी उपभोक्ताओं के सामर्थ्य पर और मर्जी पर टिका हुआ है। कोई भी कारपोरेट घराना उपभोक्ताओं के सहयोग और समर्थन के बिना बाजार में नहीं टिक सकता, अपना अस्तित्व बनाए नहीं रख सकता।
आइये, किसान आन्दोलन के मुद्दों को समझें। कोरोना काल में माननीय प्रधानमन्त्री ने एक भाषण में देश को सम्बोधित करते हुए यह कहा था कि हमें इस संकट को अवसर में तब्दील कर देना है। तब किसी ने भी यह अनुमान नहीं लगाया था कि यह अवसर आम लोगों के हित में होगा या कारपोरेट के हित में। वैसे यह कयास लगना शुरू हो गया था कि नोट बन्दी की तरह कोई जन विरोधी कदम सरकार उठा सकती है। हुआ ठीक ऐसा ही। देश के किसानों के हित के नाम पर एक किसान अध्यादेश लाया गया। इस अध्यादेश को लाते वक्त यह आश्वासन दिया गया कि सन् 2022 तक किसानों की आमदनी दुगुनी कर दी जायेगी। पहले तो यह बात कुछ हद तक अच्छी लगी लेकिन इसका पोल तब खुल गया जब इसे एक बिल के रूप में लाया गया। और कुछ ही दिनों में लोकसभा से जैसे तैसे ध्वनिमत से पास करवा लिया गया। भारत संसदीय इतिहास में यह पहला अवसर था कि विपक्ष के सदस्य वोटिंग की मांग करते रहे लेकिन अखबार को आन्दोलन बनाने वाले एक पूर्व सम्पादक, जो राज्य सभा के उपाध्यक्ष हैं, की अध्यक्षता में इसे ध्वनिमत से पास कर दिया गया। देश में इसका पुरजोर विरोध हुआ।
“किसान बिल “के कानूनी स्वरूप लेते ही इस कानून के विरोध में पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी उत्तर प्रदेश के लाखों किसान सड़कों पर उतर आए। तब से लेकर अब तक यह आन्दोलन जारी है। लेख लिखे जाने के दिन तक किसानों और सरकार के प्रतिनिधियों के बीच छ: राउंड की वार्ता हो चुकी है लेकिन सभी वार्ताएँ बेनतीजा रही हैं। किसान इस बात पर अड़े हुए हैं कि पूरा कानून निरस्त किया जाए। सरकार इसमें कुछ संशोधन के लिए राजी हो रही है, लेकिन किसान किसी प्रकार के संशोधन को स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं। दिलचस्प बात यह है कि किसानों ने इस दौर में ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ (एमएसपी) के लिए एक अलग तरह के कानून बनाने की मांग रख दी है।
सरकार द्वारा बनाए कानून के खतरे
अगर एक शब्द में कहना हो तो यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि यह एक खतरनाक कानून है। भारत के पिछले पाँच हजार साल की ‘खेती किसानी की संस्कृति’ को समाप्त कर ‘कारपोरेट फार्मिंग’ की औद्योगिक सभ्यता थोपने की एक सुनियोजित साजिश है यह। यह सभ्यता जहाँ एक ओर खेती किसानी संस्कृति को चौपट कर देगी वहीं दूसरी ओर अनाज के मामले में स्वावलम्बी बने भारत में फिर से खाद्यान्न संकट की ओर धकेल देगी।
दुनिया के कई देशों में इस तरह के प्रयोग किये गए हैं। जिसका दुष्परिणाम और दुष्प्रभाव दुनिया ने देखा है। इथियोपिया और सोमालिया इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। अभी अभी वोलिविया ने ‘पानी के कारपोरेटाइजेशन’का दुष्प्रभाव झेलते हुए ‘अमेरिकी वाटर कंपनी’ को वहाँ से भगाया है।
इस कानून का दूसरा सबसे खतरनाक पहलू यह है कि इसमें बेतहाशा अनाज की होर्डिंग्स का अधिकार दे दिया गया है। और पाठकों को यह जानकार आश्चर्य होगा कि इस कानून के बनने के पहले ही अडाणी ने हरियाणा में अपने अनाज गोदाम खड़े कर लिए हैं। इस तरह की होर्डिंग का दुष्परिणाम यह होगा कि कोरपोरेट्स घराने औने पौने भाव में किसानों से अनाज खरीद लेंगे और फिर कृत्रिम अभाव पैदा कर भारी मुनाफा कमाते हुए अपना माल बेचेंगे। ऐसी स्थिति में बाजार में अनाज का भयंकर अभाव पैदा होगा और देश दुर्भिक्ष के कगार पर पहुंच सकता है। (याद कीजिये सन् 42-43 का बंगाल का अकाल।)
इसलिए अपने देश के किसानों ने समय रहते अपने आन्दोलन के माध्यम से देश को सजग किया है। और अच्छी बात यह है कि देश में चारों तरफ किसान आन्दोलन को समर्थन देकर आम लोगों ने इसे जन आन्दोलन बना दिया है। इस आन्दोलन से देश के तमाम लोगों का भविष्य जुड़ा हुआ है। क्योंकि भोजन हमारा संवैधानिक अधिकार भी है और नैसर्गिक जरूरत भी। और इसकी पूर्ति किसानों की मेहनत और लगन से होती है।
किसान आन्दोलन की खासियत
इस आन्दोलन ने कई मानक तय किये हैं। हाड़ कंपा देने वाली ठंढ में भी पिछले एक महीने से किसानों ने बड़े बूढ़ों सहित महिलाओं ने भी खुले आसमान के नीचे सोते जागते जिस धैर्य, साहस और शालीनता का उदाहरण पेश किया है, इससे दूसरे तमाम आन्दोलनों को ही नहीं बल्कि सरकारी नुमाइन्दों को भी सीखने की जरूरत है। इन आन्दोलनकारियों ने अपने संतों की वाणी को सरजमीन पर उतारते हुए अद्भुत सहनशीलता, नम्रता, शांति और सद्भावना का परिचय दिया है, जिसका वंदन होना चाहिये। लेकिन इसकी जगह उन सब को खालिस्तान समर्थक, माओवादी समर्थक, टुकड़े टुकड़े गैंग समर्थक बता कर सरकार खुद अपना छीछालेदर करवा रही है।
आन्दोलन में शामिल महिलाओं की समझदारी, स्पष्टवादिता और सेवा भाव ने देश का मन जीत लिया है। इतना ही नहीं, इस आन्दोलन ने मुद्दों की एक समग्र समझ का उदाहरण पेश किया है। इसने उन कारपोरेटों के खिलाफ अपने आन्दोलन की सुई मोड़ दी है जिसके इशारे पर सरकार ताताथैया कर रही है। एक ओर अम्बानी के जियो सहित अन्य उत्पाद के सभी बिक्री केंद्रों के वहिष्कार की घोषणा कर गांधी के नमक सत्याग्रह की याद दिला दी है तो दूसरी तरफ अडाणी के उत्पाद और विक्री केंद्रों का वहिष्कार करने की घोषणा कर लोहिया जी की सिविल नाफरमानी को जीवन्त बना दिया है।
अगर गौर से विचार करें तो यह बात स्पष्ट हो जाती है कि किसानों ने दिल्ली के परिसर को चारों तरफ से घेर कर अपनी ताकत और वजूद का प्रदर्शन किया है। इतना ही नहीं अपने आन्दोलन स्थल से ही इन आन्दोलनकारियों ने वैकल्पिक मीडिया के प्रकाशन और प्रसारण की विधा इजाद कर ली है, जो एक आन्दोलन के सबसे कारगर हथियार होते हैं। किसानों पर अनर्गल आरोप लगाकर वे सब नेता खुद बेनकाब हो रहे हैं जो एयरकंडीशनर में आराम फरमाते हैं। ऐसी स्थिति में लोगों का इस लोगों का आन्दोलनके प्रति रुझान और बढ़ता दिख रहा है। यही कारण है कि यह अब तेजी से जन आन्दोलन का स्वरूप ग्रहण करता जा रहा है।
यानि यह कहा जा सकता है कि इस आन्दोलन ने न सिर्फ किसान आन्दोलन की नई परिभाषा गढ़ी है बल्कि अन्य आन्दोलनों के भी मानदंड तय किये हैं। शायद यही कारण है कि पूरी दुनिया में इस आन्दोलन ने अपना समर्थक और सहयोगी बनाया है। इस अर्थ में यह आन्दोलन परिवर्तनकारी आन्दोलनों के लिए नई सम्भावनाओं का द्वार खोलता दिख रहा है। मजेदार बात यह है कि इस आन्दोलन ने सरकार की सारी हेकड़ी गुम करते हुए उनके पाले में ही गेंद फेंक दी है जिसमें सभी पदाधिकारी और शासक उलझते दिख रहे हैं। पहले तो सरकार के नुमाइन्दों को लगा कि कम पढ़े लिखे किसानों को बरगला कर अपनी बात मनवा लेंगे लेकिन इनकी सामूहिकता और विचारों के प्रति प्रतिबद्धता ने सरकार को नाकों चने चबाने को विवश कर दिया है।
कुछ दिन पहले भारत के कृषि मन्त्री ने डब्ल्यू टी ओ का हवाला देते हुए यह कहा था कि यह अंतरराष्ट्रीय समझौता के कारण हमारी विवशता है। लेकिन किसानों ने इसको साफ तौर नकार दिया। इस अर्थ में देखें तो एक तरफ यह आन्दोलन ड्ब्ल्यू टी ओ जैसे समझौते को नकारते हुए भूमण्डलीकरण की अवधारणाओं को भी चुनौती देता है तो दूसरी तरफ तमाम निगमीकरण की प्रक्रिया को भी नकारता है।
जो भी हो, सभी को इस आन्दोलन को सकारात्मक नजरिए से लेना चाहिए ताकि यह आशा की जा सके जैसे भारत किसानों का देश था वैसे ही भविष्य में भी किसानों का एक सक्षम देश बनकर उभरेगा।
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घनश्याम
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता और ‘जुड़ाव’ के प्रमुख हैं। सम्पर्क +919431101974, judav_jharkhand@yahoo.com

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