सामयिक

दंडकारण्य के द्वन्द

 

जंगल के बाहर रहकर उसके भीतर की बेचैनी को नहीं समझा जा सकता। जीवन के बनने-बिखड़ने की प्रक्रिया वहाँ भी उतनी ही सामान्य होती है जितना कि तथाकथित सभ्य और विकसित दुनिया में। यह लघु आलेख जंगल में रहने वाले उन समुदायों की गुमनाम त्रासदियों को कहने का एक प्रयास है जिन्होंने अपने अधिकारों को पाने के संघर्ष में अपना सबकुछ गँवा दिया। तेलंगाना राज्य के अनेक क्षेत्रों, मसलन भद्राचलम, चेरला, बुर्गमपाडू, चिंतूर, कोथागुदेम, पलोंचा, वेंकटपुरम, खम्मम, और अन्य अनेक ऐसे क्षेत्र हैं जहाँ उन वनवासी समुदायों की छोटी-छोटी बस्तियाँ हैं जो नक्सल आन्दोलन के हिंसक समयों में छत्तीसगढ़ के जंगलों से भागकर आ बसे थे, खासकर वर्ष 2005 से जब सलवा-जुडूम के द्वारा बड़े पैमाने पर हिंसक अभियान चलाया गया था। 

सलवा-जुडूम के बारे में ऐसी धारणा है कि यह नक्सल आन्दोलन को कुचलने के लिए ग्रामीणों और वनवासियों का स्वतः स्फूर्त आन्दोलन था, लेकिन यह मूलतः छत्तीसगढ़ सरकार कीएक रणनीति थी जिसे पूर्ण सरकारी संरक्षण प्राप्त था। इन सरकारी/गैरसरकारी सैन्य अभियानों से बड़ी संख्या में मारे जाने और विस्थापित होने के बाद यहाँ के घने जंगलों में अनेक वनवासी समुदाय के लोग स्वयं को पुनर्स्थापित करने में लगे हैं और इनमे एक बड़ी संख्या गोथी-कोया वनवासियों की भी है।

आंध्र-प्रदेश पुनर्गठन अधिनियम (2014) के अन्तर्गत लगभग बत्तीस प्रकार के वनवासी तेलुगु क्षेत्रों में हैं जो कि राज्य की पूरी जनसंख्या का लगभग नौ प्रतिशत है और जिसमे कोयाओं की संख्या सबसे अधिक है, लगभग चार लाख। छत्तीसगढ़ का दक्षिणी क्षेत्र जैसे कि बीजापुर, दंतेवाडा, आदि तेलंगाना राज्य की सीमाओं के साथ अपनी सीमाओं को साझा करती है जो घने जंगलों वाला क्षेत्र है जिसमें गोथी-कोया के अनेक समूह शदियों से रहते आ रहे थे, लेकिन नक्सल आन्दोलन के इन क्षेत्रों में पाँव पसारते ही इन समुदायों के जीवन में जैसे भूचाल आ गया। इसने इन समुदायों के जीवन को बुरी तरह से प्रभावित किया। इनका जंगल के भीतर ही विस्थापन बड़े पैमाने पर हुआ, जंगल के एक कोने से दूसरे कोने तक भागते रहना इनकी नियति बन गयी। भागकर जिन स्थानों पर गये वहाँ भी ये अनेक प्रकार से उत्पीडित किये गये। इस उत्पीडन में सरकारी तंत्र, नक्सली-संगठन, और अन्य प्रकार के सामाजिक-राजनीतिक संगठनों की बराबर की भूमिका रही।

सामाजिक और राजनीतिक दुनिया में तटस्थता कोई सुरक्षित नीति नहीं होती, और अगर ऐसा करने का प्रयास किया जाता है तो उसकी कीमत चुकानी पड़ती है। गोथी-कोयाओं को भी इसकी कीमत चुकानी पड़ी।नक्सल आन्दोलन के उभार के समय यह धारणा बड़े पैमाने पर फैलाई गयी कि जंगल के सभी आदिवासी समूहों ने सरकार और इसके दमनकारी नीतियों के विरुद्ध हथियार उठा लिया है, और इस धारणा को रचने-गढ़ने में कॉरपोरेट-मीडिया, सरकारी अधिकारीयों,पुलिस और अन्य अनेक प्रकार के संगठनों की बड़ी भूमिका रही जिन्होंने उन भोले-भाले वनवासियों के बारे में बिलकुल ही विचार नहीं किया जो इन आंदोलनों से बिल्कुल अछूते थे और अपने आम जीवन की जरूरतों को पूरा करने में ही व्यस्त थे, लेकिन उनकी तटस्थता ने भी उनको सुरक्षित नहीं रहने दिया, वे नक्सलियों के द्वारा सताए तो गये ही साथ ही साथ सरकारी तंत्र के भी निशाने पर आ गये।

पुशकुंटा गाँव, चेरला के दिनेश कोया कहते हैं  “जब मै मात्र सात वर्ष का था तो छत्तीसगढ़ से मुझे अपने पिता के साथ रात में भागकर यहाँ आना पड़ा था। सुरक्षा बलों ने हमारे बहुत सारे सम्बन्धियों और पड़ोसियों को केवल इस संदेह  के आधार पर मारा डाला कि वे नक्सली थे। हमारी जमीने आज भी वहाँ हैं,मैं कभी कभी वहाँ जाता हूँ”।

सरकार की विभिन्न वैकासिक मोर्चों पर विफलताओं और परिणामस्वरूप नक्सलियों के जनसामान्य पर बढ़ते हुए प्रभावों को देखते हुए सरकार ने इस सम्बन्ध में सख्ती अपनाना प्रारंभ कर दिया और इस सन्दर्भ में छत्तीसगढ़ विशेष पुलिस सुरक्षा अधिनियम 2005 के अन्तर्गत बड़ी संख्या में फर्जी मुठभेड़, गिरफ्तारियाँ और अनेक प्रकार के दमन कारी कृत्य किये गये, जैसा कि सुरक्षा बलों और पुलिस का यह सामान्य चरित्र रहा है। इन निरीह वनवासियों पर नक्सली होने का आरोप लगाना और फिर उन्हें सताना अत्यंत ही आसान था, क्योंकि इनके पास न तो आधुनिक कानूनी प्रक्रियाओं की समझ थी और न कोई ऐसा प्रभावी संगठन जहाँ से वे अपने निर्दोष होने की बात को प्रमुखता से रख सके।

CRPF और अन्यसैन्य बलों ने इसका खूब लाभ उठाया और जिन्होंने थोड़ा भी प्रतिरोध किया उनके स्वर को सदा के लिए बन्द कर दिया। इसके अतिरिक्त महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार भी बड़े पैमाने पर हुए। इन सभी बातों का उल्लेख मानवाधिकार आयोग की 2014 की एक रिपोर्ट में भी किया गया। पुश कुंटा के ही वंजम भीमा बताते हैं “एक दिन सलवा जुडूम के कुछ सदस्य हमारे गाँव आये और हमें मारना प्रारम्भ कर दिया। उन्होंने हमारी संपत्तियों को बर्बाद कर दिया या लूट लिया। बस्तियों में आग लगा दी और गाँव की महिलाओं और लड़कियों के साथ बलात्कार किया। अपने परिवार की रक्षा के लिए मैं अपनी पत्नी और बच्चों के साथ जंगल के भीतर ही भीतर यहाँ भाग आया”।

कालांतर में छत्तीसगढ़ राज्य की सरकार जब नक्सल आन्दोलन को कुचलने में नाकाम होने लगी तो इसने सलवा-जुडूम नामक एक गैर-कानूनी सैन्य संगठन का निर्माण किया, वैसे तो यह एक प्रकार से गैर-सरकारी संगठन था लेकिन यह सभी जानते हैं कि यह तत्कालीन सरकार की एक सुनियोजित रणनीति थी। सलवा जुडूम जहाँ एक तरफ भरपूर सरकारी सैन्य सहायता प्राप्त कर रही थी, वहीँ दूसरी तरफ यह सरकारी और प्रशासनिक प्रक्रियाओं और दबावों से भी मुक्त थी जिस कारण इसने बड़े वीभत्स तरीके से वनवासियों को उजाडा, हिंसा और उत्पीडन के मामले में इसने सरकारी सैन्य दलों को भी पीछे छोड़ दिया, लेकिन बाद में इसके निर्माण के अवैधानिक आधारों और इसके द्वारा किये गये उत्पीडन की भयावहता को देखते हुए सर्वोच्च न्यायालय के द्वारा इसपर प्रतिबन्ध लगा दिया गया। लेकिन अपने अल्प काल में ही इसने वनवासियों का पर्याप्त नुकसान कर दिया। सरकारी आंकड़ों की ही माने तो करीब सात सौ गाँवों के लोग गाँव छोड़कर भाग गये या मारे गये थे।

रामचंद्रपुर, चेरला में विस्थापितों का एक नवगठित पूर्वा है जिसे बाद में ग्राम पंचायत में शामिल कर लिया गया। इस गाँव के नागी रेड्डी की कहानी नक्सलियों के आतंक को बताने के लिए पर्याप्त है। वे कहते हैं “मै छत्तीसगढ़ के उन जंगलों से भागकर यहाँ आया हूँ जहाँ हमारे पूर्वज शदियों से शांति से रह रहे थे। हम नक्सल आन्दोलन के हिस्सा नहीं थे, लेकिन सबने हम पर संदेह किया। पुलिस का कहना था कि हम नक्सलियों को सहायता प्रदान कर रहें हैं, और नक्सलियों का आरोप था कि हम पुलिस के लिए जासूसी करते हैं। भागने के अतिरिक्त हमारे पास विकल्प क्या था”?

इसी तरह इंटिग्रेटेड ट्राइबल डेवलपमेंट एजेंसी के एक अधिकारी ने चेरला मण्डल के कुर्नापल्ली गाँव के भ्रमण के दौरान हमसे एक अन्य ऐसी ही करीब दो वर्ष पुरानी घटना को साझा किया। उन्होंने बताया कि इस गाँव में नागेश राव नामक एक कोया वनवासी था, जिसका प्रारम्भ में नक्सलियों से सम्बन्ध था, लेकिन बाद में उसने स्वयं को इससे अलग कर लिया, लेकिन ऐसा करने पर नक्सलियों ने उन्होंने गोली मार दी। एक जगह एक अन्य वन-अधिकारी ने भी स्वीकारा की सरकारी स्तर पर जो तरीके अपनाए जा रहें हैं वे हिंसा और समस्याओं को बढ़ाने वाला ही है।

एक समुदाय जब अपने सैकड़ों वर्ष पुराने परिवेशों से विस्थापित होकर किसी नए जगह आश्रय लेता है तो जीवन आसान नहीं रह जाता, उनके सामने नयी समस्याएँ आती हैं और गोथी-कोया भी इस मामले में भाग्यशाली नहीं थे। तेलंगाना के इन हिस्सों में इनका प्रवेश इतने गुपचुप तरीके से हुआ कि बहुत दिनों तक आसपास के गाँवों के लोगों को भी पता नहीं चल पाया, लेकिन धीरे-धीरे इनकी पहचान हो सकी। अपनी पहचान या उपस्थिति छुपाने के पीछे उनका मूल उद्देश्य किसी संभावित खतरे से स्वयं को बचाए रखना था।

इस तरह की एक अन्य बसती चेरला के घने जंगल के अन्दर थी, जिसे बाद में रामचंद्रपुर का नाम देकर क्रिस्तादनपाडू-ग्राम-पंचायत में शामिल कर लिया गया। एक ग्राम्य-अधिकारी ने बताया “2005 से  पहले तक  यह कोई गाँव नहीं था, और न कोई लोग थे। ये छत्तीसगढ़ से भागकर यहाँ आ बसे हैं। इन्होने अपनी पहचान को यथासम्भव छुपाये रखने का प्रयत्न किया क्योंकि उन्हें भय था कि पहचान उजागर होने की स्थिति में सरकारी वन अधिकारी, पुलिस आदि उन्हें उत्पीडित कर सकते हैं। और ऐसा होता भी रहा है”।

आज तेलंगाना की सरकार इनके पुनर्वास के लिए कार्य कर रही है, लेकिन राजकीय नीतियों में दूरदर्शिता का स्पष्ट अभाव दिखता है। सरकारी नीतियों में इन्हें मात्र भागे हुए लोगों की भीड़ सदृश मानकर इन्हें तथाकथित मुख्यधारा में जोड़ने का प्रयास किया जा रहा है, लेकिन इनप्रक्रियाओं में गोथी-कोयाओं की अपनी जीवन शैली और सांस्कृतिक-सामाजिक विशिष्टता के लिए कोई स्थान नहीं दिखता, मसलन इनकी अपनी भाषा ‘कोई’ है, लेकिन इनके शिक्षण-प्रशिक्षण के दौरान तेलुगु या अंग्रेजी ही एकमात्र माध्यम प्रयुक्त किया जाता है। कोयाओं के बच्चे के लिए बने एक आश्रम विद्यालय के शिक्षकों से जब हमने पूछा कि यहाँ इन्हें इनकी भाषाओँ की भी शिक्षा क्यों नहीं दी जा रही तो उन्होंने कहा कि इसकी कोई लिपी नहीं है। उनके प्रत्युतर ने हमें भाषा और लिपी के सम्बन्धों पर विचार करने के लिए बाध्य कर दिया- क्या लिपी के बिना भाषा का अस्तित्व सम्भव नहीं है?

ऐसे में तो दुनिया के अनगिनत समुदायों की हजारों वर्ष पुरानी पहचान, पारंपरिक ज्ञान-विज्ञान को भी समाप्त किया जा सकता है! और दुखद है कि ऐसा किया भी जा रहा है।इनके आवास सम्बन्धी मामलों में भी सरकार की योजनायें अपरिपक्व दिखी। इन्हें टुकड़ों में उठा-उठा कर शहर या आसपास के किसी स्थान पर पक्के आवासों में पुनर्स्थापित करने का प्रयास किया जा रहा है, जो आकर्षक तो दिखता है, लेकिन यह अदूरदर्शी और अव्यवहारिक है जो उनकी सामुदायिक जीवन के प्रतिकूल है। इनके पुनर्वास के सिलसिले में अपनी तमाम परियोजनाओं में ऐसा प्रतीत होता है जैसे सरकार ने वनवासियों को व्यवस्थित वनों से उखाड़ कर अस्त-व्यस्त और अराजक नगरों में फेंक देने की ठान ली है जहाँ न तो उनका कोई वर्तमान है और न भविष्य।

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केयूर पाठक

लेखक लवली प्रोफेशनल यूनिवर्सिटी, पंजाब में असिस्टेंट प्रोफेसर (स्कूल ऑफ सोशल साइंसेज) हैं। सम्पर्क +919885141477, keyoorpathak4@gmail.com
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