कोरोना: महामारी या सामाजिक संकट
पिछले कुछ महीनों में कोरोना विश्वभर में एक महामारी के रूप में फैली चुकी है। इस महामारी की चपेट में विकसित, विकासशील और गरीब, तकरीबन सभी देश आ गये हैं। इस गंभीर महामारी के पीछे सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और पर्यावरणीय शोषणकारी मानसिकता है जिसे बहुत सालों से नजरंदाज किया जाता रहा है। मनुष्य ने अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए प्रकृति और प्राकृतिक संसाधनों का अन्धाधुन्ध दोहन और शोषण किया है जिसका परिणाम जलवायु परिवर्तन, सूखा, बाढ़, और विभिन्न महामारियों के रूप समय-समय पर हमारे सामने आने लगा है।
ऐतिहासिक तौर पर देखा जाए तो महामारियाँ पहले भी हमारे सामने आ चुकी है, लेकिन कोरोना की प्रकृति, इसका व्यवहार और विस्तार बाकी महामारियों से काफ़ी अलग है। यह वायरस बड़ी बेफ़िक्री और विस्तृत रूप से दुनियाभर में फैल रहा है और सम्पूर्ण मानव जाति को अपने घरों में कैद होने पर मजबूर कर दिया है।
गम्भीर संकट में वैश्विक अर्थव्यवस्था
21 अप्रैल 2020 तक पूरे विश्व में कोरोना वायरस से पीड़ित लोगों की संख्या लगभग 24,90,097 थी, जिसमें 6,53,231 लोग ठीक हुए और लगभग 1,70,561 लोगों की मौत हो चुकी है। इस महामारी ने एक बार फिर से पूँजीवादी व्यवस्था और समाज की असफलताओं को उजागर किया है। इस बात को रॉब वालेस और उनके सहलेखकों द्वारा अंग्रेजी पत्रिका मंथली रिव्यु (27 मार्च, 2020) में लिखे लेख ‘कोविड-19 एँड सर्किट ऑफ कैपिटल’ में बताते हैं कि कोरोना की उत्पत्ति और प्रसार दोनों ही पूँजी की परिधि से सम्बन्धित हैं। इनके अनुसार पूँजीवाद ही मुख्य रोगवाहक है। लेकिन पूँजीवादी विचारकों और विद्वानों ने इसे एक ‘बीमारी’ तक सीमित कर दिया है। इसी कड़ी को आगे बढ़ाते हुए मंथली रिव्यू के संपादक तथा मार्क्सवादी पारिस्थिति शास्त्री जॉन बेलामी फोस्टर ने अपने एक साक्षात्कार में सैद्धान्तिकृत किया है।
उनके साक्षात्कार ’Catatrophe Capitalism: Climate Change, COVID-19, and Economic Crisis‘ में फोस्टर कहते हैं कि ऐतिहासिक रूप से कोरोना और ऐसे ही बहुत से वायरस केवल एक महामारी या बीमारी नहीं हैं, बल्कि ये हमारी पूँजीवादी व्यवस्था से उपजे पारिस्थितकी तन्त्र, सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक संकट है और हमारी ‘प्रकृति के सार्वभौमिक उपापचय में एक दरार’ का परिणाम है। इसी में आगे वो जिक्र करते हैं कि प्राणीशास्त्री रे लैंकेस्टर ने अपनी किताब ‘किंगडम ऑफ मैन’ (1911) में ‘नेचर्स रेवेंज’ नामक अध्याय में चेतावनी दी थी कि मानव द्वारा पारिस्थितकी में पूँजीवादी विज्ञान के जरिये संशोधन से सभी आधुनिक महामारियों का पता लगाया जा सकता है।
पूँजीवादी चेतना और उदारवादी लोकतन्त्र इस सन्दर्भ में घुटने टेकता हुआ नजर आ रहा है तथा सार्वजनिक क्षेत्र (चिकित्सा, रोजमर्रा की जरूरतों को पूरी करने वाली संस्थाएँ), उद्योग और समाजवाद के लिये लड़ रहे लोग व संगठन इसमें महत्वपूर्ण योगदान दे रहे हैं। इसी के साथ समाजवादी व्यवस्था का महत्व सबको समझ भी आ रहा है।
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इस महामारी का बुरा असर सभी देशों के समाजों पर पड़ रहा है। भारतीय समाज पर इसका असर अलग-अलग रूप में सामने आया है। उदाहरण के लिए गरीबी, भुखमरी, बेरोजगारी, महिलाओं का शोषण और घरेलु हिंसा। कोरोना महामारी की भयावह स्थिति को रोकने के लिए देश में अब तक दो चरणों में लॉकडाउन का ऐलान किया जा चुका है जिसकी वजह से दूर-दराज के इलाकों, शहरों, महानगरों में काम करने वाले लोग वापस अपने घरों की ओर पलायन करने को विवश हो गये हैं।
इसमें ज्यादातर मजदूर वर्ग के लोग हैं जिनके पास स्थायी तौर पर रहने के लिए आवास की उचित सुविधा नहीं है। यहाँ तक कि खाने पीने के लिए भी इन्हें दैनिक मजदूरी पर ही निर्भर रहना पड़ता है। अब ऐसे में सब कुछ बन्द हो जाने से तथा रोज़गार समाप्त हो जाने से इन लोगों का जीवन संकटों से घिर गया है, और लोग बीमारी से कम परन्तु भूख से ज्यादा परेशान हैं।
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अगर हम कोरोना के संकट को समझने के लिए विश्व और भारत की बात करें, तो सरकारें और राज्य सभी कोरोना संकट से जूझ रहे हैं। लेकिन दूसरी तरफ भारत में सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़े लोग इससे सबसे ज्यादा प्रभावित हैं। भारत में कोरोना की आड़ में अफवाह, साम्प्रदायिकता, घरेलू हिंसा जैसी समस्याओं ने भी जोर पकड़ा है। इस संकट के दौरान देश-विदेश से महिलाओं के खिलाफ बढ़ती घरेलू हिंसा की ख़बरें भी आ रही हैं। अन्तर्राष्ट्रीय एजेंसियों और संगठनों के अनुसार पारिवारिक हिंसा के मामले यूरोप, अमेरिका, चीन और भारत तक में बढ़ गये हैं।
संयुक्त राष्ट्र के महासचिव एन्टोनियो गुटरेज ने दुनियाभर की सरकारों से अपील की है कि कोरना महामारी से निपटने के तरीकों के साथ-साथ घरों में महिलाओं की रक्षा को प्राथमिकता दें। इसी सन्दर्भ में प्रस्तुत लेख कोरोना के दौरान हो रही घरेलू हिंसा और समाज में महिलाओं की स्थिति पर प्रकाश डालने का प्रयास करता है।
कोरोना और भारत में महिलाएँ
भारतीय समाज में स्त्रियों की स्थिति पर गौर करें तो यह समाज हमेशा से पितृसत्तात्मक समाज रहा है। इस मर्दवादी समाज में औरत हमेशा से अधिकारविहीन एवं पुरुषों के अधीन ही रही है। लॉकडाउन ने पुरुषों को घरों तक सीमित कर दिया है। कोरोना की वजह से स्कूल, कॉलेज, ऑफिस, फैक्ट्री आदि सब बन्द है। वहीं बेरोजगारी, वेतन कटौती और नौकरी जाने का खतरा और कम होती नौकरियों की आशंका ने उन्हें भविष्य के बारे में और भी चिन्तित कर दिया है। सभी को घर पर रहने और सभी आवश्यक सावधानियाँ बरतते हुए सुरक्षित रहने का निर्देश दिया गया है। लेकिन सवाल यहाँ पर यह है कि क्या हमारे समाज में औरतें घर पर पूरी तरह सुरक्षित हैं? हालाँकि घरेलू हिंसा एवं महिलाओं का यौन शोषण पहले भी होता था, किन्तु वर्तमान समय में कोरोना महामारी के कारण लगे लॉकडाउन में कहीं अधिक बढ़ गया है।
ये सभी सवाल इस बीमारी को और भी गंभीर बना देते हैं। इस लॉकडाउन के दौरान बहुत सी महिलाओं के साथ घरेलू हिंसा और यौन शोषण की खबरें सामने आ रही हैं। हालाँकि तमाम संगठनों और लेखों के द्वारा इस समस्या पर विचार प्रकट किये गये हैं। सरकार के द्वारा भी लोगों को यह सुझाव दिया गया है कि लोग घरेलु कार्यों में महिलाओं के साथ मिल कर सहयोग करें। महिला आयोग ने घरेलु हिंसा के मामलों को रोकने के लिए दिशा निर्देश जारी किये हैं और ऑनलाइन परामर्श प्रदान करना शुरू किया है। राष्ट्रीय महिला आयोग (NCW) के अनुसार महिलाओं के ख़िलाफ़ हिंसा के 370 मामले कोरोना महामारी के लॉकडाउन के दौरान सामने आये हैं, जिनमें से 123 मामले घरेलू हिंसा से सम्बन्धित हैं।
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अगर हम वर्गीकृत करें तो गरिमा के साथ जीने के 77 मामले, विवाहित महिलाओं की प्रताड़ना के 15 मामले, बलात्कार के प्रयास के 13 मामले दर्ज हुए हैं। घरेलू हिंसा और प्रताड़ना की सर्वाधिक शिकायतें क्रमशः उत्तर प्रदेश (37), बिहार (18), मध्य प्रदेश (11), और महाराष्ट्र (18) से आई हैं। ये मामले महिला आयोग को ईमेल या सन्देश के जरिये भेजे गये हैं। लेकिन इसके अलावा और भी बहुत से मामले ऐसे हैं जिनकी शिकायत ही दर्ज नहीं हुई है, अतः वास्तविक आंकडे और भी अधिक हो सकते हैं।
वहीं दूसरी तरफ लड़कियाँ, किशोरियाँ, महिलाएँ मासिक धर्म (पीरियड) में सैनिटरी पैड की कमी की समस्या झेल रही हैं। कुछ राज्यों से ऐसी ख़बरें आ रही हैं कि पूर्व में स्कूल, कालेज और विश्वविद्यालय से लडकियों को मुहैया कराये जाने वाले सैनिटरी पैड लॉकडाउन की वजह से अभी उन्हें नहीं मिल पा रहे हैं। आज भी हमारे समाज में अधिकांश महिलाएँ ‘पीरियड’ की बात खुल कर पुरुषों के सामने नहीं कर पाती हैं। पुरुष प्रधान समाज ऐसे मुद्दों पर बात करने में काफी असहज महसूस करता है। आज़ादी के इतने सालों के बाद भी स्त्री सशक्तिकरण नहीं हो पाया है। भारतीय समाज का पितृसत्तात्मक दृष्टिकोण स्त्री को देह से ज्यादा कुछ नहीं मानता।
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ये सभी समस्याएँ कोरोना महामारी के इस विकट समय में अधिक मात्रा में उभर कर सामने आ रही हैं। बहुत से लेखों में इस समस्या पर प्रकाश डाला गया है। लेकिन मेरा सवाल यह है कि आज के युग में जब हम बात करते हैं – बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओ, लड़कियाँ चाँद पर जा रही हैं और महिलाओं की पुरुषों के समान ही हर क्षेत्र में भागीदारी देखने को मिल रही है, इस तरह की बातें तो बहुत की जा रही हैं किन्तु दूसरी तरफ औरतें अपने घरों में ही सुरक्षित नहीं हैं। मुझे लगता है कि यह एक ढाँचागत समस्या है। वास्तव में देखा जाए तो यह शिक्षण व्यवस्था की हार ही है, जिसमें ‘सेक्स एजुकेशन’ और ‘जेंडर एजुकेशन’ पर सही तरीके से बात ही नहीं होती है। देश की आधी आबादी को दो तरफा मार पड़ रही है, एक कोरोना महामारी और दूसरा घरेलु हिंसा ।
इस बीमारी ने एक बार फिर से यह बता दिया कि आज भी स्त्रियाँ अधिकांशत: देह से ज्यादा कुछ नहीं समझी जाती हैं। वर्तमान में भी बहुत से समुदायों में, समाजों में अब भी उन्हें स्वतन्त्रता, समानता का अधिकार नहीं है।
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