भारत युवाओं का देश है। देश में 65 प्रतिशत आबादी युवाओं की है, मगर उनकी स्थिति ठीक नहीं है। उनके लिए न शिक्षा की उचित व्यवस्था है, न रोजगार की। शिक्षा के व्यवसायीकरण के कारण यह काफी महंगी एवं आम आदमी के पहुंच से बाहर होती जा रही है। देश में सरकारी और निजी शिक्षा संस्थानों की कमी नहीं है, मगर गुणवत्तापूर्ण शिक्षा का पूर्ण अभाव है। भारत सरकार द्वारा नई शिक्षा नीति पर टी आर एस सुब्रमनियम समिति की रिपोर्ट का मानना है कि 90 प्रतिशत स्नातक रोजगार की योग्यता नहीं रखते हैं।
देश में रोजगार की स्थिति बहुत ही खराब है। स्थिति का अंदाजा इसी से लगाया जा सकता है कि रेलवे द्वारा हाल ही में ग्रुप डी श्रेणी के 90 हजार पदों के विज्ञापन लिए दो करोड़ से ज्यादा लोगों ने आवेदन किए। 2014 के लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने युवाओं से देश में प्रतिवर्ष एक करोड़ रोजगार उपलब्ध कराने का वादा किया था। इसलिए देश की युवा पीढ़ी ने बड़े उत्साह के साथ उनका समर्थन किया और भारी बहुमत से उन्हें विजयी बनाया। मगर पिछले 4 साल में रोजगार की स्थिति और खराब हुई है।
भारत सरकार द्वारा किए गए रोजगार एवं बेरोजगारी संबंधी सर्वेक्षण के अनुसार केवल 50% कामगारों की ही रोजगार में भागीदारी है।
जबकि हर वर्ष 1 करोड़ 20 लाख युवक एवं युवतियाँ रोजगार के बाजार में आते हैं मगर नौकरियां नहीं है। निजी क्षेत्र हो या सरकारी क्षेत्र रिक्त पद तो हैं मगर उन पर बहाली रुकी हुई है। अप्रैल 2017 में भारत सरकार के वित्त मंत्रालय ने एक अध्यादेश जारी कर कहा कि पिछले दो-तीन सालों में विभिन्न मंत्रालयों के विभागों में जो रिक्त पद है उन्हें निरस्त किया जाता है। कई विभाग ऐसे हैं जहां कई सालों से रिक्तियां भरी नहीं जा रही हैं, हालांकि उनके भरने के लिए हर साल विज्ञापन जारी किए जाते हैं। अब वित्त मंत्रालय के अध्यादेश के बाद ये पद ही समाप्त किए जा रहे हैं। सिर्फ मंत्रालय के विभाग की बात नहीं है, न्यायपालिका में भी जजों की रिक्तियां कई सालों से भरी नहीं गई हैं।
केंद्र सरकार के विभिन्न मंत्रालयों में 13 -14 लाख रिक्त पद हैं, सिर्फ रेलवे में ढाई लाख पद खाली हैं जिन्हें भरा नहीं जा रहा है। कार्मिक, जन शिकायत और पेंशन मंत्री जितेंद्र सिंह ने लोकसभा में बताया कि लोक सेवा में भी काफी पद खाली है जिनमें आईएएस-आईपीएस और वन सेवा के पद हैं। उन्होंने बताया कि कुल 1470 पद रिक्त हैं। एक अनुमान के अनुसार अगले 3 साल में आईटी क्षेत्र में नौकरियों में 20 से 25% की गिरावट आ सकती है। सरकारी आंकड़े बताते हैं कि बेरोजगारी की दर जो वर्ष 2013 में 4.9 थी अब बढ़कर 5 प्रतिशत हो गई है। सरकार द्वारा संसद में पेश किए गई आर्थिक सर्वेक्षण रिपोर्ट भी इस बात की पुष्टि करती है कि चीजें ठीक नहीं चल रही हैं और रोजगार वृद्धि दर में सुस्ती है।
अर्थशास्त्री विनोद अब्राहम के एक अध्ययन के अनुसार, जिसमें लेबर ब्यूरो द्वारा इकट्ठा किए गए आंकड़ों का उपयोग किया गया है, 2012 से 2016 के बीच में रोजगार में भारी कमी आई है, जो कि आजाद भारत में पहली बार हुआ है। कृषि-क्षेत्र और उससे जुड़े कार्यों में जिन पर भारत की आधी आबादी रोजी कमाने के लिए निर्भर है, रोजगार कम हो रहा है। सूखे एवं फसल की सही कीमत नहीं मिल पाने से लोग खेती-किसानी से दूर जा रहे हैं। मैककिंसे ग्लोबल इंस्टिट्यूट के एक अध्ययन के अनुसार पिछले 4 सालों में 2.6 करोड़ नौकरियां खत्म हो गई हैं।
नोटबंदी और जीएसटी ने भी आंशिक रूप से रोजगार-सृजन में गिरावट में आग में घी का काम किया है। इसके कारण सर्वाधिक रोजगार-सृजन वाले क्षेत्र कृषि, निर्माण एवं निजी व्यापार बुरी तरह प्रभावित हुए और रोजगार को भारी झटका लगा। इंडियन एक्सप्रेस के एक विश्लेषण के अनुसार धातु, पूंजीगत माल, खुदरा बाजार, ऊर्जा निर्माण और उपभोक्ता सामान बनाने वाली 120 से अधिक कंपनियों में नियुक्तियों की संख्या घटी है। आर्थिक सर्वेक्षण कहता है कि रोजगार-सृजन मुख्य चुनौती है। साल 2030 तक हर साल 1 करोड़ 20 लाख भारतीय नौकरी पाने की कतार में खड़े होंगे। फिलहाल 2.6 करोड़ भारतीय नियमित रोजगार की तलाश में बैठे हैं। मोटा-मोटी यह संख्या ऑस्ट्रेलिया की आबादी के बराबर है।
अर्थशास्त्री विजय जोशी के अनुसार गरीबी एवं सामाजिक सुरक्षा की व्यवस्था नहीं होने के कारण अधिकांश लोगों को खुद कोशिश करनी पड़ती है। ऐसे बेरोजगारों की भारी संख्या है जो अपने परिवार पर निर्भर हैं। इसके अलावा छिपी हुई बेरोजगारी भी मौजूद है, क्योंकि बहुत सारे लोग एक ही काम को साथ करते हैं जिसे करने के लिए बहुत कम लोगों की जरूरत होती है। अधिकांश लोग कम आमदनी वाले कार्यों के लिए काम करते हैं। एक अध्ययन के अनुसार कुल श्रमशक्ति का 80% हिस्सा लोग बिखरे एवं असंगठित क्षेत्र के उद्योग में काम करते हैं, जहां काम करने की स्थितियां बहुत विकट हैं और बहुत कम मजदूरी मिलती है। वास्तव में संगठित क्षेत्र में केवल 7% भारतीय ही पूरी सुविधा के साथ काम करते हैं जिनको आमदनी, स्थान और रोजगार की गारंटी होती है। देश की अर्थव्यवस्था टू टियर इकोनॉमी में तब्दील हो रही है। टू टियर यानी दो तरह की श्रमिक आबादी जिनके वेतन में भारी अंतर होता है।
दरअसल, बेरोजगारी पूंजीवादी व्यवस्था की देन है। इसकी बनावट (डिजाइन) ऐसी है कि इसमें बेरोजगारी पैदा होगी ही। जिस अधिशेष पर पूंजीवाद टिका है, उसके उसमें बेरोजगार पैदा होना अनिवार्य शर्त है। यह पूंजीवादी व्यवस्था के हक में है। बेरोजगारों की फौज पूंजीपतियों को सस्ता श्रमिक उपलब्ध कराने में सहायक होती है ताकि वे ज्यादा से ज्यादा मुनाफा बटोर सकें। इसलिए ताज बदलता है, सरकार बदलती है, अगर नहीं बदलती तो युवाओं की तकदीर और तस्वीर। देश ने विकास के लिए पश्चिम का भोगवादी पूंजीवादी मॉडल अपनाया है, इसलिए सरकार चाहे जिस पार्टी की हो, वादे चाहे जो भी हों, मगर बेरोजगारी की समस्या दिन प्रतिदिन बढ़ती जा रही है। ज्यों-ज्यों दवा की, मर्ज बढ़ता गया।
भारत जैसे 130 करोड़ आबादी वाले देश में श्रम आधारित उद्योग धंधों को प्रधानता देने से ही बेरोजगारी की समस्या का समाधान निकल सकता है। सबसे ज्यादा रोजगार कृषि क्षेत्र में मिलता है, लेकिन कृषि एवं ग्रामीण अर्थव्यवस्था सरकार की गलत नीतियों के कारण गहरे संकट में है। खेती-किसानी घाटे का सौदा हो गया है। हताश-निराश किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं।
जरूरत इस बात की है कि कृषि को लाभकारी बनाया जाए। किसानों के साथ जो अन्याय हो रहा है उसे खत्म किया जाए। कृषि एवं कृषि आधारित उद्योग धंधों को बढ़ावा दिया जाए। जिन वस्तुओं का उत्पादन गांव में हो सकता है जिसके लिए बड़ी पूंजी एवं तकनीकी की आवश्यकता नहीं है उसमें बड़ी कंपनियों के प्रवेश पर रोक लगाया जाए। कृषि आधारित गृह, कुटीर एवं लघु उद्योग को बढ़ावा दिया जाए। गांव-गांव में उचित आधारभूत संरचना, उद्यमिता विकास पर जोर दिया जाए।
शिक्षा व्यवस्था में ऐसा बुनियादी बदलाव किया जाए कि माध्यमिक शिक्षाप्राप्त हर युवक-युवती आर्थिक रूप से स्वावलम्बी बन सके। शिक्षा के बारे में महात्मा गांधी ने जो महत्वपूर्ण विचार “नई तालीम” रखा था उस पर अगर अमल किया गया होता तो देश की तस्वीर कुछ अलग होती। न केवल विचार रखे थे बल्कि उस दिशा में ठोस प्रयोग भी शुरू हुए थे, मगर आजादी के बाद उन पर अमल नहीं किया गया। पड़ोसी देश चीन उसका अनुसरण कर आज विश्व महाशक्ति बन गया है। देश अब चीन के मॉडल की कॉपी करने की कोशिश में है। इस देश में ‘मास प्रोडक्शन नहीं, प्रोडक्शन बाई द मासेज’ की नीति कामयाब होगी, तभी हम बेरोजगारी की समस्या से निजात पा सकते और देश सही मायने में महाशक्ति बन सकता है।
अशोक भारत
लेखक सामाजिक कार्यकर्ता हैं।
Mob . 9430918152,
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हिमांशु जोशीFeb 06, 2022डोनेट करें
जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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