- अरुण तिवारी
एक दिन मैने अपनी बेटी से उसकी क्लास में सबसे तेज़ दिमागदार लड़की का नाम पूछा।
उसका जवाब था, ”नूर। वह मुसलमान है।”
मैं सन्न रह गया। मैने उससे यह तो नहीं पूछा था कि उसका मज़हब क्या है।….और फिर नूर, स्कूली वर्दी में आती है। उसके शरीर पर मुसलमान होने का कोई निशान नहीं है; फिर मेरी बेटी को किसने बताया कि नूर, मुसलमान है? मैंने तो कभी नहीं बताया। अपनी आम बोल-चाल में हम हिन्दी, अंग्रेजी, गुरुमुखी, उर्दू, अरबी, फारसी के न जाने कितने ही शब्द इस्तेमाल करते हैं। क्या अरबी व उर्दू भाषा के किसी शब्द को नाम के रूप में अपना लेने मात्र से कोई मुसलमान हो जाता है? क्या मुसलमान होना ही नूर की पहचान है? मेरे मन में सवाल पे सवाल उठने लगे।
दूसरी घटना तब घटी, जब मेरे स्कूल के दिनों के साथी अमरजीत जी जब पहली बार मेरी बेटी से मिले।
उन्होने अपने बारे में पूछा, ”बेटी, मैं कौन हूँ ?”
बेटी ने तपाक से उत्तर दिया – ”सिख”
अमरजीत, हतप्रभ थे और मैं, शर्मिंदा। हम दोनों ने अपेक्षा की थी कि उसका जवाब चाचू या अंकल होगा। उन्होने पूछा कि उसे किसने बताया।
वह बोली – ”आपके सिर पर पगङी है न, इसने।” हालाँकि, दोनो बार बिटिया ने जवाब सहज भाव से ही दिया था, किन्तु इसने मुझे दुखी किया कि उसमें भिन्नता के बीज पङ गया है। मुझे तो आजकल साम्प्रदायिक सद्भाव के नारे लगाते भी संकोच होता है। ये नारे भी तो हमारा परिचय एक इन्सान या भारतीय के रूप में न कराकर, हिन्दू-मुसलमान-सिख-ईसाई के तौर पर कराते हैं। कभी-कभी लगता है कि पाठ्यक्रमों से कौमी भिन्नता के निशानों से परिचय कराने वाले पाठों को हटा देना चाहिए। खैर, मेरी चिन्ता और जिज्ञासा तब और ज्यादा बढ़ जाती है, जब मुझे मेरे कई हिन्दू करीबियों की दिलचस्पी, हिन्दुओं का गौरव गान करने से ज्यादा, मुसलमानों और ईसाइयों को खतरनाक सिद्ध करने में दिखती हैं।
मेरा गांव अमेठी के जिस इलाके में है, वहाँ मुसलिमों की आबादी कम नहीं। पीढ़ियों से इलाके का कपङा सिलने वाले, हमारे सार्वजनिक उत्सवों उत्सवों, और शादियों में गोला-पटाखे दगाने वाले और मंदिरों के बाहर फूलमाला बेचने वाली मालिने…सब मुसलमान हैं। सब से हमारा सुख-दुख का रिश्ता है; आना-जाना है; बावजूद इसके बाबरी मस्जिद विघ्वंस के बाद अपनी पहचान के निशानों के लिए उनकी बेचैनी देखकर भी मैं चिन्तित हूँ।

नेपाल में मधेसियों का आंदोलन
हिन्दूवादी संगठन भी भारत को हिन्दू राष्ट्रवाद के डंडे से हाँकने की कोशिश में इतनी शिद्दत के साथ लगे हैं, मानो हिन्दू राष्ट्र रहते हुए नेपाल ने कुदरत और दुनिया की सारी नियामतें पा ली थी या फिर हिन्दू राष्ट्र रहते हुए नेपाल में आपसी वैमनस्य का कोई आन्दोलन ही नहीं हुआ। आखिर वह क्या है, जो लोकतांत्रिक व्यवस्था अपनाकर नेपाल ने खोया और हिन्दू राष्ट्र होते हुए उसने हासिल कर लिया था? गौर कीजिए कि भारत में भाजपा सरकार आने के बाद से नेपाल को हिन्दू राष्ट्र बनाने की मांग को फिर हवा देने की कोशिश की गयी। सफल नहीं होने पर नाराजगी जताई गयी। नतीजा क्या हुआ ? मात्र पांच वर्ष के छोटे से राजनैतिक कालखण्ड में भारत ने नेपाल के बङे भाई का पद और हक.. दोनो खो दिया। भारत के प्रति भाव में गिरावट इस स्तर तक आई कि नेपाल ने भारतीय चैनलों की एक बङी संख्या का नेपाल में प्रसारण रोक दिया।
दूसरी तरफ दुर्भाग्यपूर्ण यह है कि इतने वर्षों बाद भी पाकिस्तान और भारत आपस में क्रमशः एक मुसलमान और हिन्दू राष्ट्र की तरह ही व्यवहार कर रहे हैं। जर्मनी, रूस समेत दुनिया के कई देशों का विभाजन हुआ, किन्तु विभाजन पश्चात् आपसी सरकारों में ऐसा साम्प्रदायिक रंज किन्ही और दो देशों में नहीं। जिन्ना ने मृत्यु पूर्व भारत-पाकिस्तान के एक हो जाने की इच्छा जाहिर की थी। दोनो मुल्कों के कितने लोगों के मन में आज भी है कि दोनो मुल्कों के शासन, साम्प्रदायिक कट्टरता त्यागें। कश्मीर के मसले को हिन्दू-मुसलमान के तरफदार होकर हल करने की जिद्द छोङें। एक अच्छे पड़ोसी की तरह रहें। अपना ध्यान, एक-दूसरे का नुकसान करने की बजाय, तरक्की में सहयोग के लिए लगायें। कश्मीर में अमन कैसे लौटे? कश्मीर, जन्नत कहलाने के अपने पुराने मुकाम पर फिर कैसे पहुँचे?
ऐसी तमाम आकांक्षाओं और आशंकाओं के बीच मन में सवाल उठा कि हर मुल्क का अवाम, साम्प्रदायिक सद्भाव की आकांक्षा रखता है। दुनिया का कोई मज़हब, साम्प्रदायिक विद्वेष की शिक्षा नहीं देता। फिर भी साम्प्रदायिक सद्भाव के टूटने की आशंका लगातार बनी है। वोट बैंक पक्का करने के लिए नेता, चुनाव में सम्प्रदाय को सम्प्रदाय से भिड़ाते हैं। वोटर भी साम्प्रदायिक बनकर वोट दे आते हैं। क्यों? यह परिस्थिति दुःखी करती है। संभवतः आपको भी करती होगी। चाहे इसे दुर्योग कहें चाहे सोची-समझी अर्थनीति व राजनीति; ज़रूरी है कि दुनिया अब इससे निजात पाए। यह हो कैसे? मेरी राय में यह हम व्यक्तियों और समुदायों के खुद विचारने और करने का विषय है; सरकार या किसी राजनेता की ओर ताकने का नहीं।
आइए, विचारें और करें।
अरुण तिवारी पानी, पर्यावरण, ग्रामीण विकास व लोकतान्त्रिक मसलों के अन्तर्सम्बन्धों के अध्येता एवं लेखक है
सम्पर्क- +919868793799, amethiarun@gmail.com
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जब समाज चौतरफा संकट से घिरा है, अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं, मीडिया चैनलों की या तो बोलती बन्द है या वे सत्ता के स्वर से अपना सुर मिला रहे हैं। केन्द्रीय परिदृश्य से जनपक्षीय और ईमानदार पत्रकारिता लगभग अनुपस्थित है; ऐसे समय में ‘सबलोग’ देश के जागरूक पाठकों के लिए वैचारिक और बौद्धिक विकल्प के तौर पर मौजूद है।
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