आज़ादी और जनतन्त्र
सामयिक

आओ आज़ादी-आज़ादी और जनतन्त्र-जनतन्त्र खेलें

 

स्वाधीनता दिवस व्यतीत हो गया है जी। तब भी हमें अक्सर महात्मा गांधी याद आते रहे। वे कहा करते थे- “भारत की स्वाधीनता तब तक अधूरी है, जब तक दुनिया की कोई भी जाति पराधीन है- “इसलिए तथाकथित राष्ट्रवादियों ने उन्हें ही किनारे लगा दिया। न रहेगा बांस और न बजेगी बांसुरी। कोई इस कथन को आपत्ति मानें तो कहा जा सकता है कि ठिकाने लगा दिया। ठिकानेदार तो हर किसी को ठिकाने लगाने पर तुले हैं।

आखिर फ़कीर की बात क्यों सुनी जाए? फ़कीर की औकात ही क्या होती है? वह तो वैसे ही आँसुओं में डूबा हुआ होता है; उनको भरी प्रार्थना सभा में गोलियों से भून दिया गया यानी छलनी कर दिया गया। यह शौर्यगाथा हमारे इतिहास में हमेशा-हमेशा के लिए स्वर्णिम अक्षरों व सुनहरे पन्नों में दर्ज़ हो गई है जी। क्रूरता का अपना भला चंगा संसार होता है जी। उस डेढ़ पसली के इंसान से बदला ले कर राष्ट्रभक्ति और राष्ट्रधर्म निभाया गया। राष्ट्रभक्ति की यही भूमिका होती है। सब लीला है जी। चिंता न करें। गांधी फीनिक्स पक्षी की तरह बार-बार अपनी राख से जन्म लेते रहेंगे। उन्हें कोई कभी भी मार नहीं सकता? उनको मारना शरीर रूप से भले आसान रहा हो। विचार और आचरण के मानक के रूप में तो कतई नहीं है।

आज़ादी और जनतन्त्र दिन-ब-दिन घायल हो रहे हैं। इस मुद्दे पर सवाल पर सवाल उठाए जाते रहें हैं। धूमिल के शब्द साक्ष्य हैं- क्या आज़ादी सिर्फ़ तीन थके हुए रंगों का नाम है/ जिन्हें एक पहिया ढ़ोता है/ या इसका कोई खास मतलब होता है?

हम ऐसे समय में हैं जिसमें ज़ल्दी ही पवित्र आत्माएँ नहीं मिलती। खोखले लोग, खोखलें, वादें और खोखला परिवेश हमारे देश और धरती की छाती में मूंग दल रहा है। अब न तो राजनीति में, न सत्ता में, न लोकतन्त्र में, न संविधान में, न मानवीय मूल्यों की, न उसूलों की ज़रूरत है। सब धकाधक चल रहा है। एक विराट खेला की तरह चल रहा है जी, यह निष्णात खेल। आज़ादी भी एक खेल और जनतन्त्र भी एक महाखेल। हम खेलम-खेला और ठेलम-ठेला के बीच फंसे हैं जी। बचपन में गुल्ली डंडा हुआ करता था। तूआ, गिप्पी, रमतूला भी होता था। अब तो शिक्षा भी खेला है और स्वास्थ भी। उसमें मानव मूल्य भी खेला है और आचरण भी।

कोई बच नहीं सकता। किसी न किसी क़ीमत पर ख़रीद ही लिया जाता है। सांसद और विधायक बड़े पैमाने पर बिकाऊ हो गए हैं। धरे धरान बैठे हैं कि आओ हमें ख़रीद लो। बस पैसा तो लगेगा ही कुछ हिस्सा चाहिए और मंत्री पद आदि भी; तब से धड़ल्ले से बिकने का धंधा जारी है जी। यदि राष्ट्रीय स्तर पर धड़म- धड़ैया चल रहा है तो इसी स्तर पर बिकम-बिकइया और लुटम-लुटइया हो तो क्या हर्ज है? इसमें शामिल हो गए हैं ठुकम-ठुकइया भी। ये जी निछोह लीलाएँ भी जारी हैं। जब ज़मीर नहीं होता, अपने अलावा किसी पर ऐतबार भी नहीं होता, तब तो यह सब कुछ होना है जी और झूठ बोलने की टकसाल खुली हुई है जी। बोलो जिसको जितना झूठ बोलना हो। झूठ बोलने की कोई सीमा नहीं।

भारत हमारी माँ है। ‘जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादापि गरीयसी– यह स्वर्ग से भी महान है। यह हमारी आत्मा में लगातार झंकृत होती है। स्‍वतन्त्रता अमर रहे। आज़ादी जि़न्‍दाबाद का हम उद्घोष करते ही रहेंगे; लेकिन आज़ादी हमारे नारों भर में नहीं, हमारे आचरण में भी तो होनी चाहिए। एक बीमार और अपाहिज़ मनोविज्ञान ने उसे लगातार कृत्रिम बनाया है। आचरण कोई गोबर के कंडे पाथने जैसा नहीं है जी, कि उसे किसी की पीठ पर पाथ दिया जाए, या चिपका दिया जाए और आकाश में तरह-तरह की कलाबाजियाँ खाई जाएँ। लोग टकटकी लगाए देख रहे हैं। हे भारत भाग्यविधाता! हमारी यह कामना कबूल हो कि हमारा देश बेहद बेहतर बने।

हर आँख के सपने हों और किसी की आँखों में दुःख के आँसू नहीं हों। आज़ादी मनाते हुए एक लंबा अरसा हो गया है जी। अब पूर्व जैसा उत्साह क्यों नहीं उमगता? हम बार -बार अपने से ही प्रश्न पूछते हैं जी और बिना किन्हीं उत्तरों के धड़ाम -धड़ाम सेंसेक्स की तरह गिर जाते हैं जी। उछाल लेते हैं मंहगाई की तरह और गिर जाते हैं देश के नागरिकों की तरह। गिरना हमारी नीयति में शामिल हो गया है जी। उत्तर देने के लिए जिम्मेदारों के पास वक्‍़त ही नहीं हैं। एक तरह की उदासी बार-बार क्यों पसर -पसर जाती है? स्‍वतन्त्रता की बाधाएँ क्‍या इसी तरह हमारा भविष्‍य तय करेंगी? क्‍या सच्‍चाई से आँख मूँदकर हम किसी कल्‍याण की कामना कर सकते हैं? देश का काम केवल योजनाएँ बनाना भर नहीं है; बल्कि उस पर दृढ़ता से अमल करना भी होता है। देश मनमानेपन से भी नहीं चला करते। उसे राष्ट्रीय अस्मिता और सहमति की दरकार होती है। प्रश्न है कि यह हम कह किससे रहे हैं और आख़िर क्यों कह रहे हैं? है कोई सुनने वाला।

आज़ादी और जनतन्त्र

आज़ादी और जनतन्त्र आदेश और संदेशों की दुनिया भर नहीं है जी, उनकी लोक में भरपूर चाहत है। वही तो हमारी राष्ट्रीय अस्मिता है। क्या हमारे भीतर असहमति के इलाके नहीं होने चाहिए जी। ज़रूर होने चाहिए; है कि नहीं। वह राष्ट्र का सचमुच निर्माण है। असहमति में ही सहमति के विविध क्षेत्र हैं। इस देश के अंतिम आदमी को खुशहाल बनाने की वास्तविकता है। मन के गोलगप्पे खाने से देश का विकास नहीं होता है जी। यह छटपटाहट और बेचैनी ऐसे तो नहीं हो सकती। उसकी ठोस हक़ीक़त लोगों के दिलों में देखी जानी चाहिए।

मन की बातों का इतना तूमार है कि जि़न्‍दगी की वास्तविकताओं, जटिलताओं , सूक्ष्मताओं को बाहर ठेल दिया जाता है; तब किसी से क्‍यों शिकायत की जाए? शिकायत अपने आप से कीजिए। अपने गरेबान में झांकिए। जो देश में घट रहा है, वह किसी भी तरह सामान्य तो नहीं कहा जा सकता है जी। अब न कुछ विचित्र लगता, न कुछ विचित्र जैसा अनुभव होता। सब स्‍वाभाविकता के दायरे में आता जा रहा है धीरे-धीरे। हम लगातार एयर कंडीशन की तरह अनुकूलित हो रहें हैं। खुशहाली को आँसुओं में परिवर्तित होते हुए भी हम देख रहे हैं। मौतों को भी हमने भरपूर देखा।

इस कोरोना काल में इस देश के प्रत्येक आदमी ने अपने निजी लोगों को बेरहमी से मरते हुए देखा है; लेकिन राष्ट्रीय स्तर पर उसे भी झुठलाया गया। आँकड़ों की धुँआधार बैटिंग हुई। बैटिंग न मानें तो बरसात हुई है जी। बाजीगिरी भी लगातार सजाई गई। यह इस कठिन समय की जलती सच्चाई है। इसे कोई भी अस्वीकार नहीं कर सकता, केवल स्वार्थ के खिलाड़ियों के अलावा। जो झूठ से ही सच के बादलों की वर्षा कर रहे हैं जी। खुशियों का आचमन किया जा रहा है। एक हलचल मन के दर्पण में लगातार उजागर हो रही है।

क्‍या यह सच नहीं है कि समूचा देश घृणा का स्‍थायी बाज़ार बनता जा रहा है। झूठी-झूठी घोषाणाओं को हाँकने का चलन निरंतर बढ़ा है। भारी भरकम आवाज़ में झूठ राष्ट्रीय स्तर पर ठेला जा रहा है जी और उसी की ‘ब्रांडिंग और मार्केटिंग मीडिया और इंटरनेट में अहर्निश परोसी जा रही है। यह भी कि हम जो सोचते हैं जैसा हम दिखाते हैं और जैसा हम सजाते हैं- उसी तरह देश के नागरिक अपना-अपना मनोविज्ञान बदल लें। देश को उसकी असलियत में मत विचारो- उसके ध्वस्त संसार को मत देखिए। यह सब तो चलता ही रहता है। यह एक विराट खेला है। आज़ादी और जनतन्त्र उसी खेला में नाथ दिए गए हैं।

व्यवस्था कहती है कि जब हम सोच रहे हैं, तो आपको सोचने का कोई अधिकार नहीं? फिर भी नागरिक सोचता है और किसी हालत में सोचना नहीं छोड़ता; लेकिन जहाँ भी हमारी नज़र जाती है एक तरह का उत्‍साह, जय-जयकार और भावनात्‍मकता की छटाएँ बिखरी हुई दिखती देती हैं। देश का नागरिक खुशफ़हमियों में जिए, वादों को ओढ़े- बिछाए। वादों के संसार में रमा रहे। मौतें तो आनी-जानी हैं। रोज़गारी से देश को क्या लेना देना? इसलिए किसी को कभी भी नौकरी नहीं मिलनी चाहिए। मोबाइल से बड़ी कोई नौकरी हो ही नहीं सकती?

किसी की कूबत के बारे में मत पूछिए। कूबत है तो देखिए-घृणा, मारकाट और धर्म के ज़हर से देश को पाट दिया गया है। देश, नगरों और शहरों के नाम बदलना ठेके में देख रहा है। यह एक सोचा समझाँ मनोविज्ञान है। शांति, सद्भाव और सहिष्‍णुता को देश निकाला दे दिया गया है। उत्‍साह के अतिरेक में बहुसंख्‍यकों की तानाशाहियत ने प्रजातन्त्र की छाया तले एक विशेष प्रकार का विष बो दिया है और नफरत की खेती हम लार्ज-स्‍केल पर लगातार करते जा रहे हैं।

न कहीं लज्‍जा है, न कहीं शर्म, न कहीं हया। बलात्‍कारों के परचम लहराए जा रहे हैं, उनका ऐसा इंतजाम कर लिया गया है कि राष्‍ट्रवाद के अंधड़ में राष्‍ट्रभक्ति के अलावा कुछ भी दिखाई न पड़े। हमारी आँखों में पट्टी बांध दी गई है, जैसे- जादूगर एक अदृश्‍य पट्टी बांधकर एक विशेष प्रकार का तात्‍कालिक सुख देने का प्रयत्‍न करता है। जादूगर आया है मनभावन संसार सजाया है। सबको बार-बार भरमाया है। तरह-तरह के लाई-लुप्प में फंसाया है जी। आज़ादी को मात्र बाहर भर से नहीं देखा जाना चाहिए; उसकी अंदरूनी परतों और सतहों में क्‍या-क्‍या कारगुजारियाँ हो रही हैं- उसमें क्‍या-क्‍या जल रहा है और क्‍या-क्‍या गल रहा है। इसकी गहन तफ़तीश और अन्‍वेषण भी किया जाना चाहिए।

हम भ्रम के पाले पड़े हैं और जि़न्‍दगी के लाले पड़े हैं। अनुच्‍छेद 370 को 35 ‘ए’ को भारत शासन ने खत्‍म किया। है तो स्‍वागत योग्‍य कदम, लेकिन यह नोटबंदी की तरह ,जीएसटी की तरह की कार्रवाई तो नहीं हो जाएगा। यह संवैधानिक ढाँचें को तो प्रभावित नहीं करेगा। हाँ, इसके लिए एक ग़जब का उत्‍साह वातावरण में हिलोरें मार रहा है। पूर्व में किस वातावरण ने किन परिस्थितियों में या मज़बूरियों में यह प्रावधान किया गया था- इसे भी तो देखा जाना चाहिए। मात्र निंदा पुराण रचकर क्‍या इस समस्‍या से निजात मिल सकती है। यदि इस अनुच्‍छेद से हमें मुक्ति मिलती है तो इस सपने को और इस परिवर्तित यथार्थ को सलाम।

काश! 370 की समाप्ति यथार्थ में बदले और लगातार हो रही हिंसा, मारकाट और आतंकवादी गतिविधियों से छुटकारा मिले, लेकिन सच मानिए बहुसंख्‍यक मनोविज्ञान के निशाने पर क्‍या-क्‍या होगा? इसका फिलहाल आप कोई अंदाज़ा नहीं लगा सकते। न इसका कोई खाका है जी। वातावरण में कुछ व्‍यक्तियों की धूम मच जाएगी और महात्‍मा गांधी के विचारों को पाताल में गाड़ दिया जाएगा। स्‍वाधीनता संग्राम के योद्धाओं को राष्‍ट्रीय नक्‍शे से बाहर कर दिया जाएगा। 370 और 35 ‘ए’ सत्‍ता के द्वारा चुनाव जीतने का जरिया न बने, जैसे- राष्‍ट्रवाद की आँधी के झाँसे और भारत के कठिन यथार्थ को तोप-तापकर लोक सभा चुनाव 2019 को जीता गया। जिसमें बेरोज़गारी दरकिनार, मॉबलिंचिंग अलग, बलात्‍कार बेवज़ह और किसानों की आत्‍महत्‍याएँ दूर ठेल दी गईं। यही नहीं साम्‍प्रदायिकता और बहुसंख्‍यकों के वितान का एक नशा परोसा गया। मंदिर निर्माण हो रहा है और क्या चाहिए आपको।

एक जिन्‍दा कहावत है- वर लूट लिहिस कानीतभी किसी ने आवाज़ लगाई- वर खड़ा होय तब जानी। तात्‍पर्य यह है कि कानी लड़की को लड़का मिल गया और लंगड़े दूल्‍हे को लड़की। और क्या समा है सुहाना सुहाना। लो‍कतन्त्र को बहुत करीने से हाईजेक कर लिया गया है, इसलिए उसे‍ किसी ने ‘दि ग्रेट इंडियन डेमेाक्रेटिक सर्कस’ , की संज्ञा दी। लोकतन्त्र स्‍वयं एक सूक्ष्‍म एवं जटिल संरचना है जी। हम ऐसे दौर में आ गए हैं कि लोकतांत्रिक सिद्धांत और संवैधानिक व्‍यवस्‍थाएँ धीरे-धीरे निस्‍सार या व्‍यर्थ होती जा रही है।

हमारे जनतन्त्र में भूख के बदले रोटी न देकर विकास का तर्कशास्‍त्र थमा दिया जाता है। जनतन्त्र पूरी तरह से प्रपंचतन्त्र में तब्‍दील होता जा रहा है। मीडिया एक लंबे अरसे से अर्थहीन, विवेकहीन और जनता की असली समस्‍याओं को पटक-पटककर ठोंक रहा है और सत्‍ता की तरफ़ से लड़ाईयाँ लड़ रहा है। हमारा संबंध भूख और रोटी के स्‍थान पर, जनतन्त्र के स्‍थान पर गहराते संकटों से हो गया है। राजेश जोशी की ये पंक्तियाँ देखें। “जिसमें न स्मृतियाँ बची हैं/न स्वप्न और जहाँ लोकतन्त्र एक प्रहसन में बदल रहा है/एक विदूषक किसी तानाशाह की मिमिक्री कर रहा है। “दिन-ब-दिन जिन चीज़ों को बढ़ावा दिया जा रहा है। उसके निहितार्थ क्या हैं?

इस बात को जाहिर करता है कि जनता ने वोट देकर उन्‍हें अधिकृत कर दिया है कि जो उनकी मर्जी में आए, करें और उन्‍होंने संवैधानिक संस्‍थाओं को शनै:-शनै: श्री हीन कर दिया है और जनता को तमाशबीन। वे चाहे तो अनुच्‍छेदों से खेलें या आज़ादी से वे जनतन्त्र से भी खेलें क्‍योंकि यह इन संवाहकों और जनता के बीच खुली बेईमानी और अविश्‍वास का रिश्‍ता बहुत मजबूती से कायम हो चुका है। प्रजातन्त्र के कीर्तन-भजन अलग हैं। पूरा देश खुशियों में डूबा हुआ आज़ादी और जनतन्त्र का राग अलाप रहा है, लेकिन उसकी वास्‍तविकता अलग है। डॉ0 प्रणय के कुछ दोहे उदाहरण के तौर पर पढ़ें।

“पाँजर माँ जाँगर धरे, औ गणतन्त्र समेट।
राम-राम कहि गाँव से, परदेसै गें पेट।।
लोटिया माँ धर खाय ले, रोटी, नमक, पियाज
गा जन-गन-मन पेट भर, यहै हमार सुराज।।
राजनीति छुतिहर अधम, होइगा धरम अफीम
लूँड़ा लागै देस माँ, तापौ राम-रहीम।। “

  देश में सब करीने से हो रहा है। अधिक भावुक होने की ज़रूरत नहीं। जो घट रहा है उसे झेलो। सरकारें आने वाले समय में बिना जनता के ही चलेंगी। हरिशंकर परसाई ने पहले ही कह दिया है। “जनता उन मनुष्यों को कहते हैं जो वोटर हैं और जिनके वोट से विधायक तथा मंत्रिमंडल बनते हैं। अगर जनता के बिना सरकार बन सकती है, तो जनता की कोई ज़रूरत नहीं…

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लेखक वरिष्ठ साहित्यकार हैं। सम्पर्क +919425185272, sevaramtripathi@gmail.com

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