संविधान को बचाने या बदलने का चुनाव
लोकसभा चुनाव 2024 की समीक्षा विभिन्न आधारों पर की गयी है। मैं यहाँ पर इस चुनाव को संविधान बचाओ या बदलो के संघर्ष के रूप में देखने की कोशिश करूँगा। यद्यपि इस नज़र से चुनाव को देखना ही सम्पूर्ण आकलन नहीं है। फिर भी यह मुद्दा चुनाव के पूरे दौर में आत्मा की तरह सर्वव्यापी रहा है। इसलिए इस दृष्टि से चुनाव का आकलन महत्त्वपूर्ण है।
अभी तक के सारे चुनाव भ्रष्टाचार, घोटाला, तानाशाही, सहानुभूति आदि के संवाद पर लड़ा गया था। भारत की आज़ादी के इतिहास में यह पहली बार है कि यह चुनाव संविधान बचाने के लिए भी लड़ा गया है। संविधान को लागू हुए विगत 74 वर्षों में इस पर कोई ख़तरा कभी नहीं आया था। लेकिन विगत कुछ वर्षों से संविधान की सामयिकता पर सवाल खड़े किए जाने लगे, इसको बदल देने के पक्ष में लेख लिखे जाने लगे, भाषण दिये जाने लगे, सोशल मीडिया में इसकी अनुपयोगिता के सम्बन्ध में मेसेज भेजे जाने लगे और यहाँ तक कि संविधान बदलने के लिए गाँवों-क़स्बों में जनमत संग्रह कराए जाने लगे।
लम्बे समय तक सोशल मीडिया और समाज में संविधान के रद्दी हो जाने के संवाद को पसारे जाने के बाद आख़िर इसे बौद्धिक जामा पहनाया प्रधानमन्त्री के आर्थिक सलाहकार परिषद के अध्यक्ष विवेक देवरॉय ने। ध्यान देने की बात है कि विवेक देवरॉय प्रधानमन्त्री के निकटतम घेरे के बुद्धिजीवी हैं। इसलिए उनके द्वारा की गयी टिप्पणी में प्रधानमन्त्री की सहमति और सरकार की मंशा मानी जाती है। महत्त्वपूर्ण यह भी है कि अपने लेख को प्रकाशित करने के लिए उन्होंने वह दिन ही चुना, जब यह देश स्वतन्त्रता की 76वीं वर्षगाँठ मना रहा था। ठीक 15 अगस्त, 2023 को मिंट में उनका लेख प्रकाशित हुआ – ‘देयर इज ए केस फॉर वी द पीपुल टू इम्ब्रेस ए न्यू कंसटीच्यूसन’ । अपने इस लेख में उन्होंने बौद्धिक रूप से सामान्य स्थापना यह दी कि लिखित संविधान की आयु महज़ 17 वर्ष की होती है। अर्थात् चूँकि यह संविधान 74 वर्ष पुराना होने के कारण बिलकुल ही बेकार हो गया है। विशेष रूप से उन्होंने यह स्थापित करने की कोशिश की कि यह संविधान औपनिवेशिक विरासत की देन है। इस तरह उन्होंने पहले से ही प्रसारित किए जा रहे संवाद को प्रधानमन्त्री कार्यालय से बौद्धिक सम्पुष्टि प्रदान की। यद्यपि इस पर भारी विवाद खड़े होने पर सरकार ने इस लेख के विचारों से अपना किनारा कर लिया, लेकिन भाजपा के अनेक नेता यत्र-तत्र अपने भाषणों में उल्लेख करने लगे कि उन्हें चुनाव में 400 सीट पर जीत इसलिए चाहिए ताकि वे संविधान बदल सकें।
जैसे-जैसे भाजपा, उसके आनुषंगिक संगठन और उसके समर्थकों के द्वारा संविधान को बदलने की चर्चा ज़ोर पकड़ती गयी, वैसे-वैसे ही नागरिकों का एक दूसरा समूह संविधान की रक्षा के पक्ष में लामबन्द भी होता गया। जगह-जगह ‘संविधान पर मँडराते ख़तरे’ को लेकर गोष्ठियाँ आयोजित होने लगीं, कई सामाजिक संगठन संविधान को छपवाकर प्रतियाँ वितरित करने लगे और यह विचार ज़ोर पकड़ने लगा कि भाजपा ‘बाबा साहब के संविधान’ को समाप्त कर ‘नागपुर का संविधान’ लागू करना चाहती है। देश के ग़रीबों-ग़ुरबों, विशेषकर दलितों, अतिपिछड़ों, पिछड़ों में, यह भय व्याप्त हो गया कि भाजपा संविधान को बदलकर उनको दिये गये आरक्षण, सुरक्षा और अधिकार को छीन लेना चाहती है।
समाज के एक बहुत बड़े वर्ग में व्याप्त हो गयी इस आशंका को काँग्रेस ने लपक लिया और राहुल गाँधी ने इसे हवा दी। उन्होंने बहुसंख्यकों की इस आशंका को राजनीतिक मुद्दा बनाया और वे अपनी सभाओं में संविधान की प्रति दिखाकर संविधान को और इस देश को ‘हिन्दू राज्य’ बनाने की मंशा से बचाने की अपील करने लगे। दलित, अति पिछड़ा, पिछड़ा, अल्पसंख्यक आदि समूह इस अपील को धारा 370 की समाप्ति, नागरिकता संशोधन, गुजरात दंगे में हत्या और बिल्किस बानो के बलात्कार के सजाप्राप्त अपराधियों को सजामुक्त करके माला पहनाकर स्वागत करने, चर्चों को जलाने, मुँह में पेशाब करने, नाम पूछकर गोली मारने, सांस्कृतिक पोशाक के ख़िलाफ़ अभियान चलाने, मणिपुर के हिंसक दंगों में अल्पसंख्यकों के दुर्व्यवहार और हिंसा के प्रति निष्क्रिय और चुप रहने, हिन्दू धार्मिक स्थलों के निकट से मुस्लिम दुकानदारों को हटाने, मुस्लिम विक्रेताओं से सामान न ख़रीदने, गोहत्या के नाम पर चारों और हो रही लिंचिंग आदि से जोड़कर देखने लगे और भाजपा के शासन की निरन्तरता में संविधान और अपने जीवन की सम्भावनाओं को असुरक्षित महसूस करने लगे।
संविधान बचाने की अपील के प्रत्यक्ष प्रभाव को उत्तरप्रदेश और विशेषकर फैजाबाद की सीट के परिणाम में देखा जा सकता है। फैजाबाद सीट, जिस क्षेत्र में ही अयोध्या पड़ता है और जहाँ राम मन्दिर के निर्माण को लेकर भाजपा को बड़ी आशाएँ थीं, के भाजपा उम्मीदवार ने अपने भाषण में कहा कि हमें 400 सीट इसलिए चाहिए ताकि हम संविधान बदल सकें। परिणामस्वरूप राम मन्दिर के रूप में तुष्टिकरण की अति महत्वाकाँक्षी परियोजना को मूर्त रूप देने के बावजूद केवल फैजाबाद के प्रत्याशी ही नहीं हारे, बल्कि पूरे उत्तरप्रदेश में भाजपा को मुँह की खानी पड़ी।
सामान्य रूप से कॉंग्रेस के द्वारा की गयी अपील का असर पूरे देश पर पड़ा। परन्तु जिन जगहों पर राहुल ने सघन रूप से इस संवाद को लोगों के ज़ेहन में उतारा, उन जगहों पर भाजपा की अप्रत्याशित पराजय हुई। लेकिन जिन जगहों पर संविधान की रक्षा की अपील के साथ सघन सभाएँ नहीं हुईं अर्थात् नागरिकों के सबसे निचले स्तर तक इस अपील को नहीं पहुँचाया जा सका, वहाँ विपक्ष को अपेक्षित परिणाम नहीं मिल सका। जैसे, बिहार।
बिहार में राहुल गाँधी की एक ही रैली हुई। यहाँ तेजस्वी यादव और मुकेश साहनी ने जी-जान लगाकर रैलियाँ और सभाएँ कीं। परन्तु उन्होंने नौकरी और महिला आदि वर्ग को लाभ पहुँचाने के मुद्दे को ज़्यादा हवा दी। परिणामस्वरूप विपक्ष को बिहार में अनपेक्षित असफलता का सामना करना पड़ा। विपक्ष को यह अनपेक्षित असफलता उन दूसरे राज्यों में भी मिली, जहाँ आम अवाम के ज़ेहन में संविधान की रक्षा की अपील उतारने में असफल रहे। लेकिन संविधान को बचाने की अपील की यह हवा कामोवेश अधिकांश राज्यों में पहुँची।
एक बात और। यदि हम इस चुनाव को संविधान की रक्षा बनाम संविधान को बदलने के संघर्ष के रूप में देखते हैं तो पाते हैं कि संविधान की रक्षा में सन्नद्ध खड़े राजनीतिक दलों को संविधान को बदलने के लिए आतुर दलों की अपेक्षा कम सीटें या कम प्रतिशत मत प्राप्त हुए। ख़ुद कॉंग्रेस को भी भाजपा को प्राप्त 240 सीटों और 36.56% मतों के मुक़ाबले केवल 99 सीटें और 21.19% मत हासिल हुए। तो क्या इसका निष्कर्ष यह निकला जाए कि इस देश की बहुसंख्यक आबादी संविधान को बदलने के पक्ष में है? नहीं।
इस निष्कर्ष पर पहुँचना जल्दबाज़ी और अधकचड़े विश्लेषण का परिणाम होगा। चुनावों में किसी संवाद को आमजन के ज़ेहन तक पहुँचाने की कोशिश होती है। जैसे मनमोहन सिंह की सरकार के समय भ्रष्टाचार और मौन प्रधानमन्त्री के संवाद को विविध माध्यमों से लोगों के ज़ेहन तक पहुँचाया गया। अन्ना को खड़ा करके उस आन्दोलन को हवा दी गयी। तब एक-एक आदमी ‘मैं भी अन्ना हूँ’ की टोपी पहनकर घूमने लगा। यद्यपि बाद में मनमोहन सिंह पर भ्रष्टाचार के सारे आरोप निराधार साबित हुए। परन्तु उस संवाद ने और उस संवाद को आमजन तक पहुँचाने की कोशिश ने केन्द्र में भाजपा और दिल्ली में आम आदमी पार्टी के सत्ता के आने के रूप में अपना परिणाम दिखाया। लेकिन इस चुनाव में, सभी राज्यों में, संविधान को बदलने का संवाद सशक्त रूप में नहीं पहुँचाया जा सका। राहुल गाँधी और काँग्रेस ने अपने तौर पर यह कोशिश की, परन्तु सहयोगी दल इस मुद्दे पर ज़ोर नहीं दे सके, अलग-अलग राज्यों में वहाँ के स्थानीय मुद्दे मुखर रहे। इसलिए इसका संगठित परिणाम हासिल नहीं हो सका। परन्तु इस चुनाव में जितने भी मुद्दे खड़े हुए, उनमें सबसे अधिक प्रभावशाली और अपीलिंग मुद्दा संविधान की रक्षा का रहा।
इस तरह इस चुनाव को संविधान की रक्षा बनाम संविधान को बदलने के संघर्ष के रूप में देखा जाना चाहिए। आज़ाद भारत के इतिहास में यह पहली बार हुआ कि चुनाव की चर्चा के केन्द्र में संविधान सबसे मज़बूत रूप से खड़ा हुआ। इतनी मज़बूती से कि नयी सरकार के गठन के समय प्रधानमन्त्री को संविधान की प्रति को सिर से लगाकर अपनी ओर से सफ़ाई देनी पड़ी।