चर्चा में

चित्रा मुद्गल और पारुल खक्कर

 

77 वर्षीय चित्रा मुद्गल हिन्दी की प्रसिद्ध चर्चित लेखिका हैं और गुजराती कवयित्री 51 वर्षीय पारुल खक्कर चित्रा मुद्गल से 26 वर्ष छोटी हैं, जिनके नाम से 11 मई से पहले गुजरात के बाहर का साहित्य-संसार अपरिचित था। चित्रा मुद्गल कथाकार हैं और पारुल खक्कर कवयित्री हैं। दोनों अगर पिछले दिनों अपने फेसबुक पर न आई होतीं तो शायद ही दोनों के बारे में मुझे कुछ लिखने की जरूरत महसूस होती। 11 मई को पारुल खक्कर ने अपने फेसबुक पेज पर गुजराती में अपनी सद्यः रचित ‘शव वाहिनी गंगा’ कविता पोस्ट की।

जंगल की आग की तरह यह कविता भाषाई-क्षेत्रीय दीवारों को लाँघ कर सोशल मीडिया पर फैल गयी। अंग्रेजी, हिन्दी, मराठी, कन्नड़, पंजाबी आदि कई भाषाओं में इस कविता का शीघ्र अनुवाद हुआ। पारुल खक्कर ने इसके पहले इस प्रकार की कविता कभी नहीं लिखी। वे रोमांटिक कविताओं के द्वारा गुजराती साहित्य जगत में जानी-सराही जाती थीं । ‘शव वाहिनी गंगा’ जैसी कविता न तो गुजराती में लिखी गयी थी न अन्य किसी भारतीय भाषा में। व्यापक तौर पर यह कविता शेयर की गयी।

पारुल की कविता में पहले राजनीतिक मुद्दे नहीं थे। अब ‘शव वाहिनी गंगा’ का निर्विवाद रूप से समकालीन भारतीय कविता में अमिट स्थान है। हिन्दी में इलियास शेख ने इसका गुजराती से अनुवाद किया।

पूरी कविता इस प्रकार है- “एक साथ सब मुर्दे बोले/ सब कुछ चंगा-चंगा/ साब, तुम्हारे रामराज में/ शव वाहिनी गंगा/ खत्म हुए शमशान तुम्हारे/ खत्म काष्ठ की बोरी/ थके हमारे कंधे सारे/ आँखें रह गयीं कोरी/ दर-दर जाकर यमदूत खेलें/ मौत का नाच बेढंगा/ साब, तुम्हारे रामराज में/ शव वाहिनी गंगा/ नित्य निरन्तर जलती चिताएँ/ राहत माँगे पल भर/ नित्य निरन्तर टूटती चूड़ियाँ/ कुटती छाती घर घर/ देख लपटों को फिडल बजाते/ वाह रे ‘बिल्ला-रंगा’/ साब, तुम्हारे रामराज में/ शव वाहिनी गंगा/ साब, तुम्हारे दिव्य वस्त्र/ दिव्यंत तुम्हारी ज्योति/ काश, असलियत लोग समझते/ हो तुम पत्थर, ना मोती/ हो हिम्मत तो आके बोलो/ ‘मेरा साहब नंगा’/ साब, तुम्हारे रामराज में/ शव वाहिनी गंगा” 

14 पंक्तियों की कविता पर 2 दिन में पारुल खक्कर को 28 हजार गालियां दी गयीं, पर रायपुर की रिनी बोस सहित अनेक इस कविता का सोशल मीडिया पर पाठ कर रहे हैं।

चित्रा मुद्गल ने अभी दो-चार दिन पहले अपने फेसबुक पर भाजपा का गुणगान किया है। यह गुणगान उस साहब का है, जिसे पारुल ने ‘नंगा’ कहा है- “हो हिम्मत तो आके बोलो/ मेरा साहब नंगा”। चित्रा मुद्गल में हिम्मत और साहस की केवल कमी ही नहीं सच को छुपाने की चालाकी और होशियारी भी है। उन्हें अनेक सम्मानों से नवाजा गया है। 2000 में इन्दु शर्मा अन्तर्राष्ट्रीय कथा सम्मान मिला, 2003 में ‘आवाँ’ उपन्यास पर व्यास सम्मान हासिल हुआ और 2018 में ‘पोस्ट बॉक्स नम्बर 203 नाला सोपारा’ पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार भी।

चित्रा मुद्गल के एक समय दत्ता सामन्त ‘गाइड और फिलॉसफर’ थे। चित्रा भाजपा को सत्ता में आए हुए जुम्मा-जुम्मा 7 वर्ष मानती हैं। उनकी यह समझ है कि इन 7 वर्षों में (2014 से) भाजपा ने ‘समाज हित में कुछ बेहतर काम’ किया है। बदतर काम तो सब जानते हैं, बेहतर है, वे भाजपा के बेहतर कामों की एक सूची भी जारी करें। उनकी राजनीतिक समझ जीरो है। अपने पोस्ट में वे भाजपा की प्रवक्ता के रूप में उपस्थित हुई हैं। 

राजनीतिक पार्टियों को राजधर्म का निर्वहन करने के लिए जिस ‘एक जुटता’ की बात चित्रा मुद्गल ने कही है, उन्हें यह याद नहीं है कि पूर्व प्रधानमन्त्री अटल बिहारी वाजपेयी ने नरेन्द्र मोदी पर 2002 के गुजरात नरसंहार के समय ‘राजधर्म के निर्वहन’ न कर पाने का आरोप लगाया था। चित्रा मुद्गल भारतीय राजनीति का यह शर्मनाक आचरण देखकर ‘लज्जित’ हैं- “साँस-साँस के लिए तरस रहे लोगों को देखकर इन पार्टियों के नेताओं को अपने को साँस लेता हुआ पाकर लज्जा नहीं लगती”। लज्जा चित्रा मुद्गल को नहीं है क्योंकि वे भाजपा और नरेन्द्र मोदी के साथ हैं। वे कई पोस्ट ही नहीं, किताब भी उनके समर्थन में लिख डालें, उससे इनकी छवि नहीं बदलेगी।

Interview Of Veteran Hindi Writer Chitra Mudgal - प्रेम पर जरूर लिखूंगी, भले ही वह मेरी अंतिम रचना हो: चित्रा मुद्गल
चित्रा मुद्गल

क्या चित्रा मुद्गल संवेदनशील और विचारवान लेखिका हैं? उनकी कथाकृतियों और ऐसी समझ में कितना साम्य है। उनका पोस्ट पढ़कर हिन्दी के कई लेखकों-आलोचकों को निराशा-हताशा हुई है। एक ओर हम सब इस तरह मुद्गल का पोस्ट पढ़ें और दूसरी और पारुल खक्कर की कविता पढ़ें।

दिल्ली में रहकर हिन्दी की एक वरिष्ठ लेखिका पूरी निर्लज्जता से उस राजनीतिक पार्टी और साहब के साथ खड़ी है- झूठ के साथ, जो किसी भी लेखक के लिए अनैतिक है। पुरस्कार-सम्मानादि से कोई लेखक बड़ा नहीं बनता। चित्रा मुद्गल ने कृष्णा सोबती से ही नहीं मृदुला गर्ग से भी कुछ नहीं सीखा। उन्हें ऐसा पोस्ट लिखते हुए लज्जा नहीं लगती। वे राजनीतिक दलों से लज्जा की अपेक्षा रखती हैं।

फेसबुक पर पारुल खक्कर के फॉलोअर की संख्या लगभग 15 हजार है, चित्रा मुद्गल की 7 हजार से कुछ अधिक। पारुल खक्कर निर्भीक और साहसी कवयित्री हैं। वे जिस राजा को नंगा कह रही हैं, चित्रा मुद्गल के समक्ष उस राजा ने सुन्दर वस्त्र धारण कर रखे हैं। पारुल में चित्रा से अधिक, कहीं अधिक मानवीय संवेदना और समझदारी है। कोरोना 2 के समय गंगा में शवों की ढेर है।

2014 में काशी आने पर नरेन्द्र मोदी ने कहा था- “न मुझे किसी ने भेजा है, न मैं यहाँ आया हूँ, मुझे तो माँ गंगा ने बुलाया है।”

जिस समय मोदी की आलोचना करना राष्ट्र द्रोह है, उस समय उनके गृह राज्य और उनकी अपनी भाषा की कवयित्री उनके बारे में क्या विचार रखती हैं, यह चित्रा मुद्गल को जानना चाहिए। नरेन्द्र मोदी के विरोध में लिखी गयी यह सर्वाधिक सशक्त कविता है, इसे विष्णु नागर सहित हिन्दी के वे सभी कवि स्वीकारेंगे, जिन्होंने नरेन्द्र मोदी पर कम कविताएँ नहीं लिखी हैं। प्रश्न संख्या का नहीं, संवेदना की उस धार का है, जो अब कवियों-लेखकों में घटती जा रही हैं। पारुल की कविता में ‘साब’ या ‘साहब’ नरेन्द्र मोदी के लिए है।

इस कविता के बाद ट्रोल सेना पारुल के पीछे पड़ी हुई है। गुजराती होकर ऐसी कविता लिखना साहस का काम है। पारुल खक्कर ट्रोल आर्मी से नहीं डरी हैं। अब अनेक गुजराती कवियों-लेखकों ने उनसे दूरी बना ली है। चित्रा मुद्गल सत्ता-व्यवस्था समर्थक, मोदी समर्थक और भाजपा की पैरोकार हैं। पारुल खक्कर एकदम दूसरे छोर पर हैं। उनके पास शब्द-शक्ति और वह गहरी मानवीय संवेदना है, जिसके अभाव में रचना-कर्म अर्थहीन है।

मोदी काल में गुजराती लेखकों-कलाकारों में से बहुतों को सच बोलने-लिखने का साहस नहीं है। वहाँ भय पसरा हुआ है। पारुल के प्रशंसकों ने उनसे किनारा कर लिया है। गुजरात में यह कहा जा रहा है कि मोदी की आलोचना करना इन दिनों एक फैशन बन चुका है। आलोचक इस कविता को साहित्यिक मानदण्डों पर देख रहे हैं। प्रमुख गुजराती कवि मौन हैं। सरकार और मोदी समर्थक लेखक-लेखिकाएँ हिन्दी में भी हैं। चित्रा मुद्गल की टोली में वृद्धि होने की अधिक संभावना है। चित्रा मुद्गल में सच बोलने का साहस नहीं है – “हो हिम्मत तो आके बोलो, मेरा साहब नंगा”! 

पारुल खक्कर ने अपनी कविता में ‘रंगा-बिल्ला’ किसे कहा है, यह अलग से कहने की जरूरत नहीं है। कहने की यह जरूरत है कि बिल्ला-रंगा दो बड़े अपराधी और हत्यारे थे। इन दोनों का नाम एक साथ लिया जाता है। अपराध जगत में 70 के दशक में यह जोड़ी प्रसिद्ध थी। रंगा का वास्तविक नाम कुलदीप सिंह और बिल्ला का जसबीर सिंह था। फिरौती के लिए 26 अगस्त 1978 को इन दोनों ने नौसेना के अधिकारी मदन चोपड़ा की 16 वर्षीय पुत्री गीता और 14 वर्षीय पुत्र संजय का अपहरण किया था।

यह जानने के बाद कि इन दोनों बच्चों के पिता नौसेना के अधिकारी हैं, रंगा-बिल्ला ने इनकी हत्या कर दी। उस समय के प्रधानमन्त्री मोरारजी देसाई ने तुरन्त जाँच और कार्रवाई का आदेश दिया था। अपहरण के 2 दिन बाद 28 अगस्त 1978 को गीता संजय के शव मिले थे और 8 सितम्बर 1978 को रंगा-बिल्ला की गिरफ्तारी हुई थी। 1982 में इन दोनों को फाँसी दी गयी। गीता और संजय के नाम पर प्रतिवर्ष वीरता पुरस्कार दिया जाता है। गाजियाबाद में इन दोनों के नाम पर गीता संजय पब्लिक स्कूल है।

पारुल खक्कर

पारुल खक्कर की एक कविता ने जो काम किया है, क्या चित्रा मुद्गल के समस्त कथा साहित्य में हम उसे देख सकते हैं? एकदम नहीं। यह कविता ‘देश-काल के शर से’ बिन्धी हुई कविता है। पारुल ने अपनी कविता फेसबुक से नहीं हटाई है क्योंकि उन्होंने जैसा कि अपने एक मित्र मेहुल देवकला से, जो स्वयं गुजराती लेखक हैं, कहा कि उन्होंने कुछ भी गलत नहीं कहा है।

चित्रा मुद्गल को क्या यह मालूम नहीं है कि पिछले दिनों (उनके पोस्ट से पहले) ऑस्ट्रेलिया के अखबार ‘ऑस्ट्रेलियन’ ने हमारे प्रधानमन्त्री के बारे में क्या लिखा था? “अहंकार, अति राष्ट्रवाद और अफसरशाही की अक्षमता की वजह से भारत में इतना विकराल संकट खड़ा हुआ है।” विदेशी समाचार पत्रों में गार्जियन,फाइनेंस टाइम्स, द इकोनॉमिस्ट, न्यूयॉर्क टाइम्स, द टाइम ने जो भी लिखा है, उससे हमारी कथा लेखिका अवश्य परिचित होंगी। उनके सामने गंगा किनारे लगे हजारों शव अवश्य होंगे। गंगा इसके पहले ऐसी शव वाहिनी कब थी?

ऑक्सीजन की कमी आदि के कारण दिल्ली हाईकोर्ट ने केंद्र सरकार को भीख माँगने, चोरी करने तक को कहा था। लेखकों को व्यक्तिवाद, सम्बन्धवाद और अवसरवाद खा जाता है। पिछले सात वर्ष जुम्मा-जुम्मा सात वर्ष नहीं है। इन सात वर्षों में देश पूरा बदल दिया गया है। जिन लेखकों में सच कहने का साहस, प्रतिरोध और संघर्ष शक्ति नहीं है, उस लेखक का आज के भारत में अधिक अर्थ नहीं है। चित्रा मुद्गल सत्य, साहस और गहरी मानवीय संवेदना के साथ नहीं हैं। यह सब पारुल खक्कर में आज के किसी भारतीय कवि-लेखक की तुलना में कहीं अधिक है।

देश में मृत्यु नृत्य कर रही है, यमदूत दर-दर जाकर खेल रहा है, महिलाएँ विधवा हो रही हैं, लोग छाती पीट रहे हैं। इस समय हिम्मत से यह कहने की जरूरत है कि साहब नंगा है। ‘वाह रे बिल्ला-रंगा’ कहना बिल्ला-रंगा के रुप में देखना है। बिल्ला-रंगा हत्यारा था। ‘शव वाहिनी गंगा’ एक कविता भर नहीं है। वह हमारे समय का यथार्थ है, गहरी पीड़ा है, जिसमें संयत क्रोध और आक्रोश है। हाल के दिनों के लिए ये दो उदाहरण हैं- चित्रा मुद्गल और पारुल खक्कर

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रविभूषण

लेखक जन संस्कृति मंच के राष्ट्रीय कार्यकारी अध्यक्ष हैं। सम्पर्क +919431103960, ravibhushan1408@gmail.com
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