राजनीतिशख्सियत

करिश्माई नेता हमेशा नहीं पैदा होते

 

एक पिछड़ी जाति में पैदा होने के नाते मैं लालू जी की अहमियत को आज की राजनीति में ज्यादा बेहतर समझता हूँ। जो नेता जेल में रहकर भी बिहार की राजनीति में अभी भी उतना ही प्रासंगिक है जितना वे बिहार के मुख्यमन्त्री रहते हुए थे। इसके कई कारण हैं। लेकिन जो सबसे मजबूत और महत्त्वपूर्ण कारण है, वह है लालू जी का निचले तबके के लोगों की आवाज़ बनना। निचले तबके के लोगों को उन्होंने एक उम्मीद दी है। ऐसा नहीं है कि लालू जी पिछड़े वर्ग से पहले ऐसा नेता थे। इनसे पहले कई नेताओं ने बिहार में बदलाव की कोशिश की। उन सभी में कर्पूरी बाबू सबसे ज्यादा प्रभावी व्यक्तित्व रखते हैं। उनके बाद ही लालू जी के दौर की बात की जा सकती है।

लेकिन लालू जी ने जो सामाजिक न्याय की पहल की, वह दरअसल कुछ ऐसा था कि सत्ता की चाभी तथाकथित ऊँची जाति के हलक से खींच निकालने जैसा था। इसीलिए उनके दौर में अगर कोई ऊँची जाति के लोग पिछड़ी जातियों के लोगों को अपने बराबर बैठने नहीं देते थे तो लालू जी इतने सशक्त बना दिये कि वे पिछड़े जाति के लोग उस खटिया को ही तोड़ सकते थे। यहीं बात सवर्णों को खटकी और खटक रही है। वरना जिसे वे आज जंगलराज़ कह कर प्रचारित कर रहे हैं, क्या वैसी वारदातें किसी तथाकथित सवर्णों के कार्यकाल में नहीं हुई या नहीं हो रही हैं! वर्त्तमान यूपी के हालात देख लीजिए। वहाँ तो एक ऊँची जाति के राजपूत समुदाय से सम्बन्ध रखने वाले तथाकथित तपस्वी, सन्यासी उनके स्वामी ही सरकार में बैठें हैं। ख़ैर, हम उनकी धूर्त्तता को वर्षों से जान रहे हैं।

लेकिन एक राजनीतिक व्यक्ति होने के नाते लालू जी के गलत कारनामें को गलत ही मानेंगे, जैसे किसी अन्य के कारनामें को। वहाँ हम उनकी तरह अपनी जाति या वर्ग नहीं तलाश करेंगे।

लेकिन एक सच्चाई है कि लालू जी ने बिहार में 15 फ़ीसदी के वर्चस्व को ख़त्म करने की तमाम कोशिश की। शायद पूर्ण सफल नहीं हो पाए लेकिन 85 फ़ीसदी को बोलने के लिए आवाज़ जरूर दी, जो उनके शायद किए गए बुरे कारनामों से कहीं भारी हैं। इसीलिए उन्हें खटकना लाज़िम है। और उसी खटकन से नब्बे के दौर में हिन्दू-मुस्लिम का बहस सवर्णों के संगठन आरएसएस ने छेड़ दी। आज बहुजन भी उसे ढो रहे हैं। कुछ अपनी मूर्खता से तो कुछ व्यक्तिगत स्वार्थ के नाते।lalu ji

 

भारतीय राजनीति में 90 के दशक में लालू यादव एक महत्त्वपूर्ण और सशक्त पहलू हैं। जिन्हें खारिज़ कर उस दौर की राजनीति और 85 फीसदी वाले लोगों की बात नहीं की जा सकती। लालू यादव सीधे और सुलझे हुए नेता हैं। इस बात को उनके कई विरोधी भी मानते हैं।

अपने एक इंटरव्यू में शिवानंद तिवारी, जो आज राष्ट्रीय जनता दल के नेता हैं और चारा मामले में मुख्य याचिकाकर्ताओं में से थे, कहते हैं कि लालू कभी विरोधियों से डरे नहीं। विरोधियों की आँख में आँख डाल कर बात करते थे। जब जेल से रिहा होकर बाहर आये तो तुरन्त मुझे फोन आया और उधर से लालू की आवाज़ आयी ‘बाबा प्रणाम’।

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मोदी जी के चुनावी सभा की भीड़ पर पटना के गाँधी मैदान में मंच से एक बार लालू जी ने कहा था, ‘इतनी भीड़ तो हम पान खाने अगर दुकान पर चले जाएं तो जुटा लेते हैं।’ मेरे पिता जी आज भी विंध्यांचल की उस बातको बताते हुए भावुक कर देते हैं कि लालू जब हेलीकॉप्टर पर चढ़ रहे थे तो बड़ी संख्या में भीड़ (वे भी उस समय उसी भीड़ के हिस्सा थे) जुट गई, जबकि वहाँ कोई रैली नहीं थी। लोग लालू दर्शन करने आये थे। लोगों ने उनसे कुछ बोलने की मांग की तो लालू जी हेलीकॉप्टर पर चढ़ कर बनियान कुर्ते के ऊपर पहन लिए और हेलीकॉप्टर के इमरजेंसी माइक से बनियान पकड़कर बस इतना बोले कि ‘दबे कुचलों को उठाओ’।

लालू जी कहा करते हैं ‘चुनाव केवल बिजली, पानी और सड़क के मुद्दे पर नहीं जीते जाते। मेरे लिए रोटी से भी बड़ा है इज़्ज़त और अधिकार’।

बीबीसी के एक वीडियो में पूर्व राजद नेता श्याम रजक के हवाले से कहा गया है कि एक चुनावी रैली में लालू कहते हैं कि ‘अगर सड़क बन जाएगी तो पुलिस वहाँ पहुँचकर तुम लोगों पर झूठे मुकदमे डाल कर फंसायेगी’।Buy Community Warriors (Anthem South Asian Studies) Book Online at ...

प्रोफेसर अश्विनी कुमार अपनी किताब ‘कम्युनिटी वारियर्स’ में लिखते हैं, लालू चाहते थे कि दलित-पिछड़े अपने ऊपर हो रहे अत्याचार के खिलाफ सवर्णों पर हथियार उठाएं क्योंकि लालू का मानना था कि बराबरी लाठी से ही आएगी, केवल राजनैतिक अधिकार और आरक्षण दे देने से नही। इसी को उदारवादी इतिहासकार रामचंद्र गुहा ‘जंगलराज’ कहते हैं। मैं व्यक्तिगत तौर पर सहमत हूँ क्योंकि सवर्ण और उदारवादियों की नज़र में तो आज भी पिछड़े दलित आदिवासी जंगली या असभ्य ही तो हैं। जब जंगली समान्तवादियों और सवर्णों से सत्ता छीनेंगे तो जंगलियों और असभ्यों का राज होगा तो उनकी नज़र में ये ‘जंगलराज’ ही तो होगा। जिसे महान साम्यवादी नेता लेनिन ने ‘डिक्टेटरशिप ऑफ़ प्रोलेटेरिअट’  कहा हैं।

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एक बीबीसी वीडियो में ‘द मेरीगोल्ड स्टोरी : इन्दिरा गाँधी एंड अदर्स’ की लेखिका कुमकुम चड्ढा के हवाले से कहा गया है कि मैं बिहार दौरे पर थी और मेरी टैक्सी ड्राइवर से बात हुई, मैंने पूछा कि लालू ने यहाँ के लोगों के लिए क्या किया! उसने कहा ‘लालू हमारे लिए कुछ नहीं किया पैसा कमाया अपना परिवार बनाया लेकिन उसका एक ऋण है हम पर जो हम कभी नहीं उतार पाएंगे, लालू ने हमें वो दिया है कि हम भी सिर उठाकर आप के बगल बैठ सकते हैं।”

हमें आज़ादी चाहिए, रोटी और मालपुआ के नाम पर फिर से गुलामी नहीं चाहिए। वो गुलामी जो श्रम करते-करते मर जाओ और श्रम की कीमत के लिए अगले जन्म का इन्तजार करो। हमें नहीं चाहिए वो गुलामी जिसमें पिछवाड़े पर झाड़ू बाँध और गले में थूकदानी लटका कर चलनी पड़ती थी।

लालू को सवर्ण समाज अपनी कुंठा में ललुआ बुलाता है। वही समाज अटल को सम्मान में अटल जी बुलाता है। एबीपी के पत्रकार अनुराग मुस्कान लाइव कैमरा पर लालू को ललुआ कहा, ये उनकी कुंठा ही थी। जब लोगों ने विरोध किया तो उन्होंने कहा कि प्यार में बोला। प्रश्न यही है कि यही प्यार अटल, मोदी या अन्य सवर्ण नेताओं के लिए क्यों नहीं है?

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सहयोग

नीरज कुमार (सामाजिक कार्यकर्ता और दिल्ली विश्वविद्यालय में कानून की पढ़ाई कर रहे हैं।)

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जगन्नाथ जग्गू

लेखक सामाजिक कार्यकर्ता, स्वतन्त्र लेखक व दिल्ली विश्वविद्यालय में रिसर्च फेलो हैं। सम्पर्क – +919971648192, jagannath156@gmail.com
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