- शिवानन्द तिवारी
बृहस्पतिवार के अखबार में एक खबर छपी है। खबर में बताया गया है कि हरियाणा में छह बिहारी मजदूरों की स्थानीय लोगों ने पिटाई की है। सभी गम्भीर रुप से जख्मी है। उन पर आरोप लगाया गया है कि यही लोग करोना फैलाते हैं। उनको धमकी दी गई है कि तुम लोग यहाँ से भाग जाओ।
बिहारियों के साथ मारपीट और दुर्व्यवहार की यह अकेली घटना नहीं है। जो खबरें मिल रही है उन के मुताबिक जगह-जगह बिहारियों के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है। जहाँ-तहाँ बिहारी लोग फंसे हुए हैं। एक एक कमरे मे दस-दस, बीस-बीस लोग जानवरों की तरह रहे हैं। उनके पास कोई काम नहीं है। बाहर निकलने पर पुलिस पिटती है। पुलिस से बच गए तो स्थानीय लोग दूरदूराते है।
बिहारियों के साथ इस तरह का दुर्व्यवहार कोई नई घटना नहीं है। देश के अधिकांश इलाकों में बिहारियों के साथ अछूत की तरह व्यवहार होता है। उनको गन्दगी का पर्याय मान लिया गया है। दरअसल हमारी समाज व्यवस्था में जो लोग थोड़ा ऊपर हैं वे अपने से नीचे वालों को हिकारत की नजर से देखते हैं। उनकी मान्यता है कि गरीब गंदे होते हैं और हमारे आस पास रहेंगे तो गन्दगी फैलाएंगे। यही मानसिकता देश भर मेँ बिहारियों के खिलाफ काम करती है।
देखा जाए तो देश के संपन्न इलाकों ने बिहार की गरीबी का भरपूर इस्तेमाल किया है और आज भी कर रहे हैं। सिर्फ बिहार की गरीबी का ही नहीं बल्कि देश में जो-जो इलाका पिछड़ा, कमजोर और गरीब है उनकी इस हालत का भरपूर इस्तेमाल हमारे देश के संपन्न तबकों और इलाकों द्वारा किया गया है। बिहार अगर गरीब नहीं होता और रोजगार की यहीं पर्याप्त संभावना रहती तो यहाँ से पलायन नहीं होता। वैसी हालत मेँ क्या बिहार के मजदूरों के बगैर पंजाब और हरियाणा की कृषि में हरित क्रांति संभव थी! याद कीजिए अभी कुछ वर्ष पहले गुजरात में बिहारियों के खिलाफ स्थानीय लोगों में रोष उभरा था और उनको वहाँ से भगाया गया था। उसका परिणाम हुआ कि गुजरात के कई क्षेत्रों में कामकाज ठप हो गया था। बिहारियों को कैसे पुनः वापस लाया जाए इसके लिए तरह तरह का प्रलोभन देने की योजना बनने लगी थी। इसलिए बिहार पिछड़ा रहे, गरीब रहे, यहाँ रोजगार सृजित नहीं हो पाए यह उन इलाकों के लिए मुफीद है जहाँ स्थानीय स्तर पर उन कामों के लिए मजदूर नहीं मिलते जिन कामों को बिहार के मजदूर कर लेते हैं।
जहाँ मुझे स्मरण है बिहार सरकार ने दस वर्ष पूर्व एक सर्वेक्षण करवाया था। उस सर्वेक्षण मुताबिक लगभग 50 लाख उद्योगबिहारी, बिहार के बाहर कमाने के लिए जाते हैं। अब तो यह संख्या बढ कर साठ-सत्तर लाख के लगभग हो गई होगी। अगर बीआर बिहार आत्मनिर्भर हो जाए तो देश के विकसित इलाकों को सत्तर लाख की संख्या में सस्ते मजदूर कहाँ से मिलेंगे !
दरअसल बिहार हमारे देश की विकास नीति में आंतरिक उपनिवेश की भूमिका अदा करता है। सिर्फ बिहार ही नहीं देश का तमाम आदिवासी क्षेत्र हमारी विकास नीति के आंतरिक उपनिवेश है। विकास के नाम पर जितना विस्थापन आदिवासी समाज का हुआ है उतना किसी अन्य का नहीं हुआ है। बगैर बिजली, पानी, लोहा, कोयला, अभ्रक, सिमेंट आदि के बगैर मौजूदा विकास नीति चल ही नहीं सकती है और यह सब कुछ आदिवासी इलाके में ही उपलब्ध है। प्रकृति ने इस इलाके को जो उपहार दिया है वही इनके शोषण का जरिया बन गया है। जैसे-जैसे विकास की गति बढ़ेगी वैसे-वैसे आदिवासी समाज का शोषण और विस्थापन बढ़ता जाएगा। इसी तरह देश का कृषि क्षेत्र भी आंतरिक उपनिवेश बनाहुआ है। कृषि क्षेत्र पर हमारे देश की 70 करोड़ आबादी निर्भर है। खेती को सबसे उत्तम कार्य मानने वाला भारतीय समाज में किसानों के बाल बच्चे कृषि क्षेत्र से बाहर निकलने की बेचैन हैं। उसके विकल्प की तलाश में बेचैन है।
दुनिया भर में आज विकास का एक ही ढांचा बना हुआ है। विकास के मामले में सभी यूरोप और अमेरिका का अनुसरण कर रहे हैं। बड़े-बड़े कल कारखानों के जरिए ही विकास हो सकता है सभी इसी मृग मरीचिका के शिकार हैं। लेकिन लोग भूल जा रहे हैं के यूरोप और अमेरिका ने यह विकास दुनिया भर में साम्राज्यवादी शोषण के आधार पर हासिल किया है। क्लाइव के बंगाल लूट के बगैर इंग्लैंड का औद्योगिकरण संभव था क्या? मार्क्स की भविष्यवाणी के विपरीत क्रांति दुनिया के उद्योगिक रूप से विकसित मुल्क में न होकर अल्पविकसित रुस या खेतीहर मुल्क चीन में हुई। तर्क दिया गया कि पूंजीवाद ने अपने आप को साम्राज्यवाद में रूपांतरित कर लिया। इसलिए उद्योगिक रुप से विकसित मुल्क में क्रांति नहीं हुई। लोग बताते हैं कि उस समय भी लेनिन के इस कथन पर दुनिया के मार्क्सवादी समूहों में बहस हुई। जर्मनी की रोजा लक्जमबर्ग ने इसकी अलग लेकिन तार्किक स्पष्टीकरण दिया था।
हमारे देश में डॉ राम मनोहर लोहिया ने बहुत साफ साफ इसकी व्याख्या की है। उन्होंने कहा कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद दोनों सहोदर हैं। साम्राज्यवादी शोषण के बगैर पूंजीवाद का विकास हो ही नहीं सकता। उनके अनुसार अगर पूंजीवाद को शोषण के लिए अपने मुल्क के बाहर कोई उपनिवेश नहीं मिलता है तो वैसी हालत में वह देश के अंदर ही उपनिवेश बना लेता है। दुनिया के सभी मुल्कों में आंतरिक उपनिवेश कायम है। हमारे देश में भी बिहार जैसे पिछड़े राज्य देश के आदिवासी इलाके, कृषि आदि क्षेत्र आंतरिक उपनिवेश हैं। विकास के इस माडल ने दुनिया भर में बेहिसाब गैर बराबरी पैदा किया है। छोटी आबादी के हाथ में दुनिया की अधिकांश संपत्ति केंद्रित है। दुनिया के इतिहास में ऐसी गैरबराबरी कभी नहीं देखी गई थी। विकास के इस मॉडल में न्याय पूर्ण समाज की कल्पना ही फिजूल है।
इसलिए विकास के इस ढांचे में बिहार हमेशा अपमानित और जलील होता रहेगा। यहाँ के बेरोजगार बराबर बाहर जाते रहेंगे। वहाँ अपमानित होते रहेंगे। मार खाते रहेंगे। और सिर्फ बिहार ही नहीं देश के किसान, देश के आदिवासी सबकी दुर्गति विकास के इस ढांचे में नियत है। नीतीश कुमार विशेष दर्जा की लाख बात करें वह अर्थहीन है। अगर बेरोजगारी दूर करनी है न्यायपूर्ण समाज बनाना है, किसानों की रक्षा करनी है , आदिवासी समाज को बचाना है, महिलाओं को अपमानित करनेवाली अप संस्कृति को भगाना है तो विकास के मॉडल को चुनौती देनी होगी, इस को बदलना होगा। इसके बगैर कोई अन्य रास्ता हमारे सामने नहीं है।
लेखक बिहार के वरिष्ठ राजनितिक कार्यकर्ता हैं|
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