अपने ही देश में दम तोड़ती हिन्दी
भारत प्रारम्भ से ही उत्सवों, उल्लासों और त्यौहारों का देश रहा है। यहाँ अनेकता में एकता की भावना जड़ जमाई हुई है। यहाँ की विविधता को देखते हुए ही यह धारणा भी प्रचलित है कि कोस-कोस में पानी बदले, चार कोस में वाणी। यह देश विभिन्न बोलियों और संस्कृति को अपने भीतर समाहित किए हुए है। यदि भारत को उत्सवों का देश कहें तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। पिछले कुछ वर्षों से भारत एक ऐसा देश बन गया है, जहाँ अधिकांश रिश्तों और प्रमुख अथवा ज्वलंत विषयों को एक दिवस का रूप देकर उसे मनाने की परम्परा निरन्तर प्रचलित की जा रही है। माता] पिता, बेटी, मित्र, महिला आदि के लिए एक दिवस तय करने की परम्परा चल पड़ी है। इसी श्रृंखला में हिन्दी दिवस को मनाने की परम्परा भी बहुत ही जोरों से प्रचलित हुई है। साल भर हिन्दी को दरकिनार किए जाने वाले देश में यह दिन हिन्दी को ऑक्सीजन देता है। इस अवसर पर हिन्दी को महिमा मंडित करने और हिन्दी की रोटी सेंकने की होड़ सी मच जाती है। हिन्दी पखवाड़ा, हिन्दी सप्ताह का आयोजन, हिन्दी दिवस आने के कुछ दिन पहले से ही प्रारम्भ हो जाता है। इस दौरान लगभग सभी केन्द्रीय संस्थानों, सार्वजनिक उपक्रमों में परिचर्चा, संगोष्ठी, काव्य पाठ आदि कार्यक्रमों का आयोजन किया जाता है।
हिन्दी को लेकर ऐसे उत्साह के संदर्भ में ख्यातिलब्ध व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई ने लिखा है- “हिन्दी दिवस के दिन हिन्दी बोलने वाले, हिन्दी बोलने वालों से कहते हैं कि हिन्दी में बोलना चाहिए। मतलब साफ है कि श्राद्ध पक्ष (पितृपक्ष) के समय में मनाया जाने वाला हिन्दी दिवस सिर्फ कर्मकांड ही रह गया है। हिन्दी दिवस का फ्लैक्स बनाओ, हिन्दी के किसी साहित्यकार को बुलाकर उनका प्रवचन सुनो, फोटो खिंचवा कर अखबारों को भेज दो,बस हो गयी पूरी हिन्दी दिवस की औपचारिकता। जैसे श्राद्ध का क्रिया-कर्म पूरा कर लिया हो और फिर साल भर अपने पूर्वजों को भूल जाओ या घर के किसी कोने में माल्यार्पण कर खूंटे में लगाकर दीवार पर टांग दो।
यह दुखद है कि हिन्दुस्तान में हिन्दी का अस्तित्व बनाये रखने के लिए हर साल हिन्दी दिवस मनाना पड़ता है। जबकि आस्ट्रेलिया, चीन, अमेरिका सहित यूरोप के कई देशों में हिन्दी की पढ़ाई हो रही है। वैसे तो हिन्दी वैश्विक स्तर पर सम्पर्क भाषा के रूप में उभर रही है। परन्तु हमारे देश में हिन्दी पढ़ने वालों की संख्या निरन्तर कम होती जा रही है। हिन्दी की अस्मिता को बरकरार रखने के लिए हिन्दी को राजभाषा का दर्जा सन् 1949 में दिया गया। इसके बाद से हर साल हम 14 सितम्बर को हिन्दी दिवस मनाते हैं। लेकिन हिन्दी की स्थिति बद्-से-बद्तर ही होती जा रही है। सरकारी कामकाज में आज भी अँग्रेजी का ही बोलबाला है। हिन्दी माध्यम स्कूल लगातार बंद हो रहे । दूसरी ओर कुकरमुत्ते के तरह उग आये अँग्रेजी माध्यम के निजी स्कूल तेजी से पुष्पित-पल्लवित हो रहे हैं। उत्तर प्रदेश सरकार ने 2017 में वहॉं के पाँच हजार प्राथमिक विद्यालयों को अँग्रेजी माध्यम में बदल दिया। छत्तीसगढ़ की सरकार ने प्रत्येक विकासखण्ड में अँग्रेजी माध्यम स्कूल खोलने का निर्णय लिया है। निजी क्षेत्र में पहले ही अँग्रेजी माध्यम स्कूलों का बोलबाला है।अब सरकारें भी अँग्रेजी के पीछे भागने लगीं हैं। देश के दक्षिणी हिस्से में तो पहले ही हिन्दी के खिलाफ माहौल है। अब हिन्दी भाषी राज्य भी अँग्रेजी को तवज्जो देते हुए हिन्दी को नुकसान पहुंचा रहे हैं।
प्रतियोगी परीक्षा हो या किसी अन्य सेवा में चयन के लिए साक्षात्कार हर जगह धारा प्रवाह अँग्रेजी बोलने वाले बाजी मार जाते हैं। हमारे विश्वविद्यालय में एक होनहार अभ्यर्थी सिर्फ इस कारण चयन से वंचित रह गया, क्योंकि वह ठीक तरह से अँग्रेजी नहीं बोल पाया। चयन समिति के एक सदस्य ने अपने करीबी मित्र को बताया- ही कुडन्ट स्पीक सिंगल वर्ड इन इंग्लिश। दैट्स व्हाय ही वाज रिजेक्टेड।” इसी तरह हिन्दी में प्रवीण मेरे एक अधिकारी मित्र उच्च पद पर जाने के लिए लगातार प्रयास कर रहे हैं। लेकिन धारा प्रवाह अँग्रेजी न बोलने के कारण हर साक्षात्कार में उन्हें मायूसी ही हाथ लगती है। कुछ दिन पहले अपनी पीड़ा व्यक्त करते हुए उन्होंने मुझसे कहा- हिन्दी से मुझे नुकसान ही हुआ है। अब मैं स्पोकन इंग्लिश की कोचिंग कर रहा हूँ। ताकि मेरी अँग्रेजी अच्छी हो जाये और मुझे मनचाही नौकरी मिल जाए। “युवाओं के साथ ऐसा रवैया और युवाओं के मन की ऐसी सोच निश्चय ही हिन्दी के लिए निराशाजनक है। यह स्वाभाविक भी है। अँग्रेजों का शासनकाल जब आया तो उनका प्रथम उद्देश्य ही था, भारतीयता और उससे जुड़ी हर चीज को खत्म कर देना। और इसमें वे बहुत हद तक सफल भी हो गये। कहा जाता है, जिस देश की भाषा समाप्त हो जाती है, वहाँ की संस्कृति भी समाप्तप्राय ही हो जाती है। अँग्रेजों का शासन तो समाप्त हो गया, किन्तु देश से अँग्रेजियत नहीं समाप्त हो पाई। हम आज भी अँग्रेजियत की गुलामी करने को बाध्य हैं।
उक्त दो उदाहरणों से स्पष्ट है कि हिन्दी दिवस मनाने से कहीं ज्यादा जरूरी है उस समाज की मानसिकता बदलना, जिसका हिस्सा हम स्वयं हैं। कोई भी प्रतियोगी परीक्षा हो या साक्षात्कार, हिन्दी बोलने-समझने वालों को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। हिन्दी को “नीतियों” से निकालकर व्यावहारिक धरातल पर उतारना होगा। यदि हिन्दी को पूरी तरह से रोजगार से जोड़ दिया जाये, तो दिवस, सप्ताह या पखवाड़ा मनाने की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। न ही हिन्दी दिवस मनाकर लोगों को हिन्दी की याद दिलानी पड़ेगी। मुगलों के शासनकाल में फारसी कामकाज की भाषा थी। परिणामस्वरूप यह हुआ कि लोग फारसी भाषा को सीखने पर जोर देने लगे। फिर अँग्रेजों का शासनकाल प्रारम्भ हुआ, तो अँग्रेजी कामकाज और रोजगार की भाषा बन गयी। उस समय से लोगों का रूझान अँग्रेजी के तरफ जो बढ़ना शुरू हुआ, वह आज तक नहीं थम सका। ठीक हिन्दी के लिए भी ऐसी ही स्थिति पैदा करनी होगी। हिन्दी की रोटी खाने वाले और रोटी सेंकने वाले दोनों को यह संकल्प लेना होगा कि कम-से-कम वे अपने बच्चों को हिन्दी से प्रेम करना सिखायेंगे, हिन्दी के महत्व को समझायेंगे। तभी हिन्दी दिवस का औचित्य सिद्ध हो पायेगा। अन्यथा हिन्दी भी घर में दीवार पर टंगे पूर्वजों के फोटो की तरह देश के किसी कोने में खूंटे पर माल्यार्पण के साथ दीवार पर लगे कील से टंगी हुई ही प्रतीत होने वाली है। हिन्दी के बड़े विद्वानों ने जो कहा था कि उन्नति अपनी भाषा में ही संभव है, परायी भाषा में नहीं। वह बिल्कुल सही प्रतीत होता है। पराई चीजों पर आश्रित रहने पर परायेपन का एहसास हमेशा बना ही रहता है। इस बात को एक केन्द्रीय विश्वविद्यालय के हिन्दी अधिकारी होने के नाते मैं बहुत ही नजदीक से देख और समझ रहा हूँ कि किस प्रकार तमाम आदेशों के बावजूद हिन्दी अभी भी पूरी तरह उपेक्षित है।
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लेखक गुरु घासीदास केन्द्रीय विश्वविद्यालय, बिलासपुर (छ.ग.) में हिन्दी अधिकारी हैं।
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