रंगमंच की कुछ नयी जमीन तोड़ते अमृत राय के नाटक
अमृत राय हिन्दी साहित्य के लिए आज भी कोई नया नाम नहीं है, न उनका लिखा साहित्य अतीत के दायरे तक सीमित है। गद्य विधा में जो उनका काम है, आज भी याद और पढ़ने योग्य है। प्रेमचंद पर उनके द्वारा लिखित साहित्य अकादमी पुरस्कार से सम्मानित संस्मरणात्मक गद्य ‘कलम का सिपाही’ को कोई विस्मृत कर सकता है? प्रेमचंद के जीवन, व्यवहार, रहन – सहन, विचार – दर्शन को करीब से देखने – जानने के लिए इस उपयोगी किताब के पन्नों को पलटना नितांत जरूरी है। और सच भी यही है कि आज भी लोग प्रेमचंद को जानने के लिए लोग इसी कालजयी पुस्तक का सहारा भी लेते हैं। कहने में कोई शक नहीं कि अमृत राय का गद्य लेखन पक्ष इतना प्रबल है कि उनका दूसरा पक्ष पाठकों की नजर से ओझल हो जाता है। ‘हंस’ और ‘नई कहानी’ जैसी श्रेष्ठ पत्रिकाओं के सम्पादक, उपन्यासकार, कहानीकार, निबंधकार के अलावा उनका साहित्य में एक रूप और भी है। वो है अनुवादक और नाटककार का।
अनुवादक के रूप में अमृत राय ने विश्व की उत्कृष्ट रचनाओं के जो बेहतरीन अनुवाद किये हैं वो आज भी हमारे सम्मुख प्रतिमान स्वरूप है। आज अगर हिन्दी प्रदेश में हार्बड फ़ास्ट का उपन्यास ‘आदिविद्रोही स्पार्टकस’ , ‘समर गाथा’ और जूलियस फ़्यूचिक का ‘फांसी के तख्ते से’ को लोग जानते हैं, लाखों की संख्या में गर इसके पाठक हैं तो इसका श्रेय अमृत राय के धाराप्रवाह अनुवाद को ही जाता है।
लेकिन अमृत राय का नाम उपरोक्त विधाओं के अतिरिक्त जब नाटक से जोड़ा जाता है तो लोग जरूर चकित हो जाते हैं। उन्हें इस विधा के साथ देखना सहज नहीं लगता है। ऐसा ही नाटक से जुड़े रंगकर्मियों को भी लग सकता है। ऐसा नहीं है कि अमृत राय के लिए नाटक एक अनजान क्षेत्र था। उस दौर में देश भर में जिस तरह का प्रगतिशील सांस्कृतिक आन्दोलन चल रहा था, उससे वे अलग – थलग नहीं थे। लगातार उनसे सम्पर्क बना रहता था। बल्कि उस आन्दोलन में हर तरह से शरीक रहते थे। मंचन की तैयारी से लेकर प्रदर्शनों में भी उनकी पूरी भागीदारी रहती थी। उन्होंने खुद स्वीकारा है कि वे अपना पहला नाटक ‘चिन्दियों की एक झालर’ लिखने की हिम्मत कदापि न कर पाते अगर दोस्त बहुत पीछे न पड़ते। रंगमंच का जो संस्कार उनके अंदर व्याप्त था, उसका परिणाम यह निकल कर आया कि उनका पहला ही नाटक अच्छा खासा सफल रहा। प्रकाशन के पहले उसकी सफल प्रस्तुति हुई, फिर और भी बहुत जगह हुई, और उस समय के तमाम नाटकों में विशेष चर्चा का विषय बना। ऐसा भी नहीं हुआ कि एक नाटक लिख दिया, उसके बाद कुछ नहीं लिखा। उसके बाद उन्होंने दो और नाटक लिखा, जिसका मंचन उनदिनों देश की कई नाट्य संस्थाओं ने किया। कालांतर में इन्हीं तीन समसामयिक नाटक, ‘चिन्दियों की एक झालर’, ‘शताब्दी’ और ‘हमलोग’ का एक संकलन ‘हंस’ प्रकाशन, इलाहाबाद ने अगस्त, 1973 में प्रकाशित किया था।
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नाटक की दुनिया से अमृत राय बतौर नाटककार के रूप में ही नहीं जुड़े थे, एक अनुवादक के रूप में भी इनकी भूमिका शानदार रही है। उन दिनों जब हमारे देश में रंगकर्म चल रहा था, अमृत राय ने कहीं न कहीं महसूसा होगा कि देश में नाटक की जो धारा है, उसे वैश्विक रूप दिया जाय। भारतीय रंगमंच को उस वक्त के समसामयिक विश्व रंगमंच का जो ट्रेंड है, उससे जोड़ा जाय। इस उद्देश्य से अमृत राय ने नाटककार के साथ – साथ अपनी अनुवादक क्षमता को भी तेज किया। उन्होंने कई विदेशी नाटकों का ऐसा अनुवाद किया कि यहाँ के रंगकर्मियों को उसका मंचन करने में न किसी तरह का भाषायी अवरोध महसूस हुआ, न स्थानीयता की कमी खली। बेर्टोल्ट ब्रेष्ट और शेक्सपियर के नाटक इसके उत्कृष्ट उदाहरण है।
अमृत राय का रंगकर्म केवल दर्शकों को मनोरंजन पहुंचाना या मनबहलाव तक सीमित नहीं था। उनके सम्मुख हमेशा दर्शकों को सचेत करना, चेतना से लैश करना था। उन्होंने जिन नाटकों का अनुवाद किया, उसके पीछे उनका मकसद था। ब्रेष्ट के छोटे – छोटे नाटकों का उन्होंने जब ‘ख़ौफ़ की परछाइयाँ’ शीर्षक से अनुवाद किया था, तब ब्रेष्ट भारतीय रंगमंच के लिये अपरिचित नाम थे। उनदिनों लड़ाई चल रही थी और जर्मनी के ही एक नाटककार की कलम से हिटलर – जर्मनी की जो तस्वीर छोटे – छोटे नाटकों में खींची गयी थी, अमृत राय को लगा यहाँ की जमीन पर लाना अत्यंत आवश्यक है। ये नाटक कथ्य और शिल्प के रूप में जितने सशक्त थे, उसे यहाँ के रंगकर्मियों से परिचित कराना रंगकर्म के हित में है।
संकलन में ‘घर का भेदी’, ‘चार मित्र’, ‘चुनाव’ और ‘दुर्घटना’ जैसे जो छोटे नाटक हैं, भले हिटलर – जर्मनी काल का हो, लेकिन अपने कथ्य और शिल्प को लेकर बार – बार अहसास दिलाता रहता है कि आज भी कहीं न कहीं यही घट रहा है। ब्रेष्ट ने अपने नाटकों के माध्यम से जर्मन में बढ़ रहे फासीवाद की तरफ जो इशारा किया था, आज अपने मुल्क में भी उसे दबे पांव आने की आहट लोग साफ सुन रहे हैं। अमृत राय ने कहीं न कहीं आनेवाले समय की नब्ज पहचान लिया था, तभी उन्होंने इस राजनीतिक नाटक का एक जरूरत के तहत अनुवाद किया था। आज यह अनुवाद रंगमंच की उस धारा को और मजबूत कर रही है जो अपने रंगकर्म से व्यवस्था से निरंतर सवाल करते रहते हैं।
नाटकों के अनुवाद के क्षेत्र में अमृत राय का जो मील का पत्थर है वो है शेक्सपियर का दुखांत नाटक ‘हैमलेट’। वैसे तो कई लोगों ने इस नाटक का अपने – अपने तरीके से अनुवाद किये हैं, लेकिन रंगकर्मियों के बीच अमृत राय का अनुवाद सर्वाधिक लोकप्रिय और पसंदीदा है। वजह ये है कि उन्होंने ‘हैमलेट’ का केवल हूबहू भाषायी अनुवाद नहीं किया है, न हिदी के कृत्रिम, बेजान शब्दों को शब्दकोश से निकाल – निकाल कर रख दिया है, बल्कि हिन्दुस्तानी यों कहें बोल – चाल की भाषा जिसमें हिदी भी है, उर्दू भी है और आस – पास की बोली जानेवाली बोलियां भी। अमृत राय ने कई जगहों पर लेखकीय स्वतंत्रता लेते हुए संवादों के भाव को पकड़ कर लाने में ज्यादा विश्वास किया है। यही वजह है कि इतने वर्षों के बाद भी जब किसी संस्था को ‘हैमलेट’ करना होता है, अमृत राय के अनुवाद को तलाशना शुरू कर देता है।
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अनुवाद हो या मौलिक नाटक लेखन, अमृत राय के सम्मुख वर्तमान समाज और उसमें रहने वाले हर तबकों का जीवन किसी न किसी रूप में धड़कता हुआ दिखता है। अगर उनके लिखे तीनों नाटकों पर गौर फरमाएं तो इसी तरह का अहसास होता है।
नाट्यसंग्रह ‘आज अभी’ में अमृत राय के संकलित तीनों नाटक बिल्कुल अलग मिजाज और अंदाज के हैं। लेकिन इन तीनों नाटकों में जो चित्र उपस्थित किया गया है वो कहीं से भी सामाजिक यथार्थ से कटा हुआ नही है। इन नाटकों के माध्यम से अमृत राय ने तत्कालीन सामाजिक, राजनीतिक आर्थिक और सांस्कृतिक हालातों को देखने और समझने का प्रयास किया है। जहाँ उन दिनों के मुख्यधारा के रंगमंच के नाटककारों ने उस दौर के सवालों से टकराने, सत्ता पर प्रश्नचिन्ह खड़ा करने के बजाय बीच का पलायनवादी रास्ता चुना, अमृत राय ने नाटकों में कोई समझौता नहीं किया। सत्ता से सीधा टकराने का रास्ता चुना।
देश आजाद होने के बाद लोगों का जब सत्ताधारी पार्टी से मोहभंग हुआ, जो सपने देखे थे, अरमान पाल रखे थे, टूट गये… तब उन्हें किस मनोदशा से गुजरना पड़ा, इस त्रासदी को ‘चिन्दियों की एक झालर’ नाटक गहरे से रेखांकित करता है। केवल तीन पात्रों के माध्यम से आजादी के पच्चीस वर्षों के बाद जीवन मूल्यों में जो संकट उभर कर आया था, जीवंत रूप में सामने आया है। नंदन और दीपा पति – पत्नी हैं। नंदन की उम्र साठ तो दीपा की पैंतालीस के आसपास की है। उनका एक बेटा है, मंगल जिसकी उम्र यही पच्चीस के लगभग है। नंदन और दीपा जहाँ रहते हैं वो हिन्दुस्तान का कोई भी बड़ा शहर हो सकता है। आजादी की लड़ाई में लोगों ने तरह – तरह से भूमिका निभायी थी। कोई खुले रूप से विरोध किया तो कुछ लोगों ने हथियबन्द रास्ते से। हमारे सामने गांधी का उदाहरण है तो दूसरा चंद्रशेखर – भगत सिंह का भी। नंदन और दीपा एक क्रांतिकारी दल के सच्चे और ईमानदार कार्यकर्ता थे।
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उनका सपना था कि इस मुल्क से साम्राज्यवादी ताकत को भगाकर ऐसी व्यवस्था स्थापित करना जहाँ आदमी और आदमी में कोई फर्क न हो, जाति – वर्ण – प्रान्त को लेकर कोई भेदभाव न हो। और इस सपने को पूरा करने में नंदन और दीपा के कई करीबी साथियों को अपनी जान की कीमत भी चुकानी पड़ी। लेकिन जब आजादी मिली तो ऐसे लोग जिन्होंने आजादी के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर कर दिया था, उन्हें कूड़े की टोकरी में फेंक दिया गया। सत्ता पर वही वर्ग काबिज हो गया जो अंग्रेजों के काल में उनके चाटुकार थे। सामन्त, जमींदार और धनवानों का नेतृत्व पर आधिपत्य हो गया। मजदूरों – किसानों और क्रांतिकारियों को दरकिनार कर दिया गया। नंदन और दीपा भी इस सत्ता में अलग – थलग किये गये लोग हैं जो जिन्दगी के अन्तिम पड़ाव में पुरानी यादों के ताबूत में बन्द – बन्द अपने दिन काट रहे हैं, जो उनकी आजादी की उम्मीदों का भी ताबूत है, और जहाँ दूसरों की कौन कहे अपना ही बेटा बाप के उन जीवन मूल्यों की खिल्ली उड़ाता है।
इस संकलन का दूसरा नाटक ‘शताब्दी’ है। इस नाटक का काल भी लगभग वही है जो पहले नाटक का है। लेकिन इसमें केवल कुंठा, संत्रास, अवसाद नहीं है। इस काल में हिन्दी में जो प्रमुख नाटक लिखे गये हैं या मंचित हुए हैं, उनका दायरा अधिकतर मध्यवर्ग ही रहा है, उसमें भी उनकी हताशा, अकेलापन ही मुख्य रूप से प्रमुख रहा है। उनके अंदर की निराशा को दिखलाने पर ही ज्यादा जोर रहा है। अमृत राय का नाटक उसके आगे का है। वे अगर मध्यम वर्ग की कुंठा, निराशा को चित्रित करते हैं तो उनके अंदर जो गुस्सा उबाल मार रहा है, उसे भी सामने लाने से जरा भी नहीं चूकते हैं। ‘शताब्दी’ दो अंकों वाला नाटक है। दोनों अंक समाज के दो वर्गों पर फोकस है। पहला अंक समाज के खाये – पीये – अघाये लोगों की जीवन शैली और समाज को उनका देखने के नजरिये को संवादों के माध्यम से बेबाक ढंग से सामने लाता है। एक शराब और शबाब वाली पार्टी में , चन्दर – खन्ना – थडानी जैसे इंडस्ट्रलिस्ट, कैप्टलिस्ट और ब्यूरोक्रेट जो सत्ता को सीढ़ी बनाकर गरीब लोगों का धन लूटकर तिजोरियों में भर रहे हैं और उनके विरोध में उठने वाली आवाज को कुचल रहे हैं, इस मानसिकता को परत – दर – परत खोलकर सामने रखता है। उनका एक ही मकसद है, खाओ – पीओ और मौज उड़ाओ। उनके लिए स्त्री एक भोग की वस्तु है और इसके लिए किस हद तक गिर सकते हैं, यह कैबरे डांसर लोला को लेकर बोले गये संवाद से स्पष्ट सामने आ जाता है।
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इसके बरक्स दूसरे अंक में वो पीढ़ी है जो नयी है। यह पीढ़ी युवा है, पढ़ाई पूरी करने के बाद भी जिसके पास न कोई रोजगार है, न कोई नौकरी। इस पीढ़ी का आजादी के प्रति मोहभंग हो गया है। जिन लोगों पर इन्होंने भरोसा किया था, वह टूट गया है। सत्ता पर जो काबिज है, उन्हें देखकर भविष्य में भी इस युवा पीढ़ी को आशा की कोई किरण दूर – दूर तक दिखाई नहीं देती है। मजबूरन विद्रोह करने के लिए यह पीढ़ी विवश है। आजादी के बीस – पच्चीस वर्षों बाद देश में उनदिनों युवा वर्ग में जो आक्रोश उभरा था, कहीं न कहीं वही दृश्य अमृत राय के सम्मुख था। लेकिन सत्ता को उखाड़ने के लिए केवल आक्रोश या विद्रोह काफी नहीं है। राजनीतिक सूझ – बूझ भी जरूरी है। एक बड़ी क्रांति के लिए व्यापक संघटन की जरूरत पड़ती है। इसके अभाव में सत्ता का दांव भारी पड़ जाता है। उनके लिए ऐसे आन्दोलनों को कुचलना आसान हो जाता है। किसी भी आन्दोलन, क्रांति के लिए बम विस्फोट करना ही काफी नहीं होता है। क्रांति के लिए लोगों को सचेत करना भी जरूरी है। चेतना के स्तर पर लोगों को जगाना, उनके अंदर विवेक पैदा करना भी किसी भी क्रांति के लिए अहम हिस्सा है। जिस लड़ाई की कोई दिशा नहीं होती है, उसे भटक जाने का खतरा होता है। अराजक विद्रोह अंततः निराशा के गर्त में ले जाने को विवश करती है। जिसका आगे जाकर ये परिणाम मिलता है कि आन्दोलन टुकड़ों में बंट जाता है या निष्प्राण अवस्था में चला जाता है।
‘हमलोग’ इस संकलन का तीसरा नाटक है जो उनके दोनों नाटकों के तुलना में थोड़ा लाइट और हल्के मिजाज का है। हल्का होने का मतलब कदापि नहीं है कि यह नाटक हास्य या केवल हंसी – मजाक तक सीमित है। फॉर्म के रूप में यह एक प्रहसन है, जिसके अंतर्वस्तु में देश में फैली यथास्थितिवाद पर तीखा व्यंग्य है।
रेल का तीसरे दर्जे का डिब्बा। रात का समय है। अचानक बिजली चली जाती है और डिब्बे में अंधेरा फैल जाता है। इस डिब्बे में तरह – तरह के लोग बैठे हैं, सब अपने – अपने काम में लगे हैं। सबको अंधेरे में उलझन हो रही है। सब चाहते हैं कि अंधेरा दूर हो, रोशनी आये। इसके लिए आपस में झांव – झांव कर रहे हैं, अंधेरे की शिकायत कर रहे हैं … यहाँ तक कि आपस में लड़ – झगड़ भी जाते हैं। लेकिन रोशनी के लिए कोई भी हाँथ – पांव हिलाने को तैयार नहीं।
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पूरे नाटक में अंधेरा को कोसने और रोशनी की चाहत का जद्दोजहद है। अंधेरे को तो सब कोसते हैं पर रोशनी लाने के लिए कोई एक्टिव नहीं दिखता है। अमृत राय ने रेल को जैसे देश के प्रतीक के रूप में नाटक में दिखाया है। जैसे रेल में तरह – तरह के लोग सफर करते हैं, वैसे ही हमारे देश में विभिन्न जाति, धर्म, प्रान्त, बोली के लोग जीवन यापन करते हैं। आज वर्तमान में जो सरकार है, उसने अपनी सत्ता बरकरार रखने के लिए लोगों को कई तरह से बांट रखा है। धर्म, जाति, प्रान्त के स्तर पर। जनता के अंदर इस कदर यथास्थितिवाद भर दिया है कि कोई भी परिवर्तन के लिए आगे आने को तैयार ही नहीं है। अंधेरे को कोस रहे हैं लेकिन रोशनी के लिए कोई सड़क पर उतरना नहीं चाहता। इस प्रहसन के माध्यम से अमृत राय लोगों से यही आह्वान करना चाहते हैं कि लोग अपनी जड़ता को तोड़े और परिवर्तनकामी मुद्रा अख्तियार करें।
मुकम्मल रूप से देखे तो पाएंगे कि तीनों नाटक समाज या देश के किसी सवाल से तटस्थ नहीं है। वे हर उस अन्याय के विरुद्ध खड़े दिखते है जो आम जनता के पक्ष में नहीं है, बहुमत के साथ नहीं है।
चूंकि अमृत राय जिन्दगी भर जनता की सांस्कृतिक लड़ाई में अपने आप को जोड़े रहे, इसलिए उनके नाटकों में शोषित – पीड़ित की भागीदारी दिखना स्वाभाविक है। भाषा के स्तर पर नाटक इतना सधा हुआ है कि गजब की पठनीयता है। जिस तरह के पात्र हैं, उनका जिस तरह का चरित्र है, उसी तरह के संवाद भी है। नाटकों के संवादों में जबरदस्त प्रवाह है। अमूमन जिस नाटककार का संबंध मंच से नहीं होता है, उसमें तकनीकी कमजोरियां दिख जाती है। या तो वे लंबे – लंबे संवादों के शिकार हो जाते हैं या दृश्यों के चयन में मात खा जाते हैं। अमृत राय ने जिस तरह के स्वाभाविक, छोटे और बोल – चाल के अंदाज में संवाद लिखे हैं वो न केवल सुनने में , बल्कि मंच पर भी पूरा असर छोड़ पाने में सफल हैं।
पता नहीं मुख्यधारा के रंगमंच पर अमृत राय के इन नाटकों को और नाटककारों की तुलना में उतना स्पेस क्यों नहीं मिला? अमृत राय भारतीय रंगमंच पर अपने नाटकों के कथ्य और विषयवस्तु को लेकर उतना ही महत्वपूर्ण और जरूरी नाटककार दिखते हैं जितना कि उस दौर के धर्मवीर भारती, मोहन राकेश या दूसरी भाषाओं के गिरीश कारनाड, विजय तेंदुलकर या बादल सरकार।