शख्सियत

उषा गांगुली का नाटक देखने ज्योति बसु आया करते थे

 

एक गैर हिन्दी भाषी प्रदेश पश्चिम बंगाल में रहकर हिन्दी रंगमंच की पूरे देश में पताका फहराने वाली उषा गांगुली के अचानक निधन से भारतीय रंगजगत स्तब्ध सा है। 23 अप्रैल की सुबह सवा सात बजे हृदयगति रूक जाने उनकी मृत्यु हो गयी। वे 75 वर्ष की थी। अपने अभिनय, निर्देशन व बतौर संगठक जो अनूठा काम उन्होंने किया वो एक परिघटना की तरह है। वे इकलौती ऐसी महिला रंगकर्मी थी जिन्होंने आजादी के पश्चात हिन्दी रंगमंच की पहली पेशेवर रंगमंडली का निर्माण किया। हबीब तनवीर को छोड़ चार दशकों से भी अधिक वक्त तक अपना नाट्य संगठन को सफलतापूर्वक चलाए रखने वाली कोई दूसरी मिसाल नहीं है। उनके द्वारा स्थापित ‘रंगकर्मी’ की गिनती भारत के बेहतरीन नाट्य समूहों में होती है। उषा गांगुली का वामपंथी आन्दोलन से जुड़ाव व मार्क्सवाद के प्रति गहरी प्रतिबद्धता उन्हें रंगनिर्देशकों की भीड़ से बिल्कुल अलहदा बना देता था।

विख्यात रंगकर्मी उषा गांगुली की ...

उत्तर प्रदेश की रहने वाली उषा गांगुली का जन्म जोधपुर (राजस्थान) में हुआ था। बचपन से ही उनका रूझान साहित्य व प्रदर्शन कलाओं से था। उन्होंने ‘भरत नाट्यम’ का प्रशिक्षण लिया था। बाद में हिन्दी साहित्य का अध्ययन करने कोलकाता चली आयीं। कमलेंदू गांगुली से विवाह के पश्चात वे उषा पाण्डेय से उषा गांगुली के नाम से जानी जाने लगीं।

Theatre of life

उषा गांगुली का पहला नाटक, 1970 में, शूद्रक रचित मृच्कटिक था जिसमें उन्होंने ‘वसंतसेना’ की भूमिका अदा की थी। उन्होंने शुरूआत में कोलकाता की ‘पदादिक’, ‘आकार’ जैसी संस्थाओं के साथ काम किया। वे रूस्तम भरूचा, विभाष चक्रवर्ती, तृप्ति मित्रा, एम.के रैना रूद्र प्रसाद सेन गुप्ता जैसे बड़े निर्देशकों के साथ पहले काम कर चुकी थी। ‘अषाढ़ का एक दिन’, ‘किसी एक फूल’, सरीखे मशहूर हिन्दी नाटकों के अलावा बांग्ला नाटकों में भी उन्होंने काम किया।

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उनके द्वारा निर्देशित नाटकों में हिम्मतमाई, काशीनामा, चंडालिका, शोभा यात्रा, सरहद पर मंटो, महाभोज, मुक्ति, शोभा यात्रा, कोर्ट मार्शल अदि प्रमुख हैं।कहा जाता है कि उषा गांगूली ‘कोर्ट मार्शल’ के प्रदर्शन के पूर्व काफी परेशान थी कि नाटक डायलॉग प्रधान है पता नहीं लोग कैसे पसन्द करेंगे? लेकिन नाटक ने दर्शकों पर ऐसा गहरा प्रभाव डाला कि नाटक की समाप्ति के बाद भी दर्शक बैठे रह गये थे। महाश्वेता देवी की कृति पर आधारित उनका नाटक ‘रूदाली’ के टिकट के लिए दर्शक रात-रात भर इंतजार करते। रूदाली का ऐसा क्रेज था आगे की पंक्तियों की टिकट न मिलने पर दर्शक मार-पीट पर उतारू हो उठते।

रुदाली - उषा गांगुली Rudali - Hindi book by - Usha ...

अपने ग्रुप ‘रंगकर्मी’ ग्रुप की स्थापना उषा गांगुली ने 1976 में किया था। 1980 के आस-पास उनका ‘लोककथा’ काफी लोकप्रिय होने लगा था। सी.पी.एम के नेतृत्व वाला वाममोर्चा सरकार में आ गया था। मेहनतकश वर्ग को केन्द्र रखने वाले इस नाटक को जब कई कम्युनिस्ट कार्यकर्ताओं ने देखकर उनसे आग्रह किया गया कि आप कम्युनिस्ट पार्टी के लिए भी प्रचार करिए। कम्युनिस्ट पार्टी के नेतागण उनके नाटक देखने आने लगे। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमन्त्री ज्योति बसु उनके नाटक देखने आया करते थे। अन्य नेताओं में विमान बसु, गुरूदास गुप्ता जैसे लोग थे। गुरूदास गुप्ता के साथ उनके पति कमलेंदू गांगूली ट्रेड यूनियन में काम करते थे। वे बाकायदा कम्युनिस्ट पार्टी के लिए प्रचार किया करतीं। इससे रंगमंच को आधार भी प्राप्त हुआ।

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हिन्दी क्षेत्र में अपने रंगसमूह को टिकाए रखना सबसे बड़ी चुनौती रहती है क्योंकि नाटकों के प्रदर्शन ही बहुत कम हो पाते हैं। कलकत्ता स्थित उनके घर में उनसे साक्षात्कार में मेरे इस प्रश्न आप कैसे अपने नाटकों के सैंकड़ों-हजारों प्रदर्शन कर लेती हैं? उन्होंने जवाब दिया कि वामपंथी दलों के प्रभाव वाले ट्रेड यूनियनों, सरकारी कर्मचारियो, बैंकों व बीमा कर्मचारियों सहित विभिन्न क्षेत्रों में संगठनों के सहयोग के कारण नाटकों के सैंकड़ों व हजारों प्रदर्शन हो पाते हैं। इन्हीं संगठनों से हमें दर्शक और संसाधन दोनों उपलब्ध होते हैं।

Kolkata's Hindi theatre veteran Usha Ganguli dies at 75 of heart ...

उषा गांगुली के ग्रुप ‘रंगकर्मी’ का यह मॉडल, हिन्दी रंगमंच के लिए अनुकरणीय भी हो सकता है इसकी ओर हिन्दी के स्थापित रंगकर्मियों ने कभी ध्यान ही नहीं दिया। एन.एस.डी सरीखी संस्थायें से सैंकड़ों रंगकर्मी प्रशिक्षित होकर बाहर आए लेकिन हिन्दी में कोई भी रंगकर्मी लगभग चार दशकों से भी अधिक वक्त तक सक्रिय रहने वाली पेशेवर रंगमंडली नहीं स्थापित कर पाया। उषा गांगुली ये काम कर पायीं उसकी पृष्ठभूमि में वामपंथी संगठनों का व्यापाक आधार था।

BREAKING! Well-known theatre personality Usha Ganguly is no more!

मुख्यधारा के रंगमंच के साथ-साथ हिन्दी क्षेत्र के प्रोसिनियम करने वाले रंगकर्मियों की तरह उन्होंने नुक्कड़ नाटक से नाक-भौं नहीं सिकोड़े बल्कि अपने रंगसमूह में नुक्कड़ नाटक भी अनिवार्य हिस्सा था। उनके अभिनेताओं में कोई दुराव नहीं था कि हम तो मंच के कलाकार हैं तो नुक्कड़ नाटक नहीं करेंगे।

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इधर कुछ वर्षों से ‘ट्रैवलिंग थियेटर’ का खूब बोलबाला है यानी वो नाटक जो खूब ट्रैवल करता है, यात्रायें करता है। देश के विभिन्न प्रान्तीय सरकारों या सरकार द्वारा अनुदान प्राप्त संस्थाओं में प्रदर्शित होने वाले नाटकों में उन्हीं अधिकांशतः उन्हीं नाटकों को आमंत्रित किया जाता है जो राजनीतिक रूप से खतरनाक न हो और हर किस्म के माहौल में खप जाए। वर्तमान केन्द्र सरकार के विचारधारात्मक फ्रेम से अनुकूलन की अवस्थिति में हो। रंगमंच के सामाजिक आधार क परिणामस्वरूप उषा गांगुली कभी अपने नाटकों की विषयवस्तु व प्रदर्शन पद्धति से समझौता करने की कभी भी आवश्यकता नहीं हुई।

रेप पर थिएटर एक्टिविस्ट का ये प्ले ...

 

1990 के आस-पास उषा गांगुली अपने नाटकों का प्रदर्शन करने पटना के रवीन्द्र भवन में आयीं तब मैंने उनको पहली बार देखा था। ‘प्रेरणा’ से जुड़े रंगकर्मी अँग्रेजों के जमाने के काले कानून ‘ड्रैमेटिक परफॉरमेंस एक्ट, 1876’ के खिलाफ हस्ताक्षर अभियान चलाया करते थे। कानून में अँग्रेजों के वक्त का ऐसा कानून था जिसमें नाटक के प्रदर्शन के पूर्व पुलिस व प्रशासन की अनुमति लेनी पड़ती थी। देश के कुछ हिस्सों में ये कानून आज भी प्रभावी है। हमलोग रवीन्द्र भवन में में जब अभियान चला रहे थे उस कुछ बांग्ला रंगकर्मियों ने ये कहते हुए हस्ताक्षर करने से इंकार कर दिया था कि हम वामपंथी थोड़े ही हैं कि इस पर दस्तखत करेंगे?

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लेकिन उषा गांगुली ने आगे बढ़कर हस्ताक्षर किया और हमलोगों का हौसला बढ़ाया। मैंने उनको पहली बार प्रख्यात रूसी लेखक मैक्सिम गोर्की की विश्वविख्यात कृति ‘माँ’ पर आधारित नाटक में ‘माँ’ का केन्द्रीय चरित्र को निभाते देखा था। साथ ही ‘महाभोज’, ‘लोककथा’। उन प्रदर्शनों की स्मृति आज तक है। बाद में 2001 के आसपास उनके ‘कोर्ट मार्शल’ ने भी काफी आकर्षित किया। उषा गांगुली के नाटक में अभिनेता खुलकर उभर कर आते थे। अभिनेता महज डिजायन का निष्क्रिय तत्व भर हो ऐसा नहीं था उषा गांगुली का रंगमंच।

उषा गांगुली : वो डायरेक्टर, जो हिंदी ...

उषा गांगुली की टीम में अभिनेताओं का खुद प्रशिक्षित किया करती थीं। कई दशकों तक सक्रिय रहे अभिनेता सुशील कांति उषा गांगुली के काम करने के ढ़ंग के विषय में बताते हैं ‘‘ वो कुम्हार की तरह वो अपने अभिनेताओं को तैयार किया करती थी। यदि वो किसी रोल के लिए किसी एक्टर को तय कर लेती थी तो उससे करवा कर ही दम लेती थी। वे अभिनेताओं को वो खोज लिया करती थी। गजब की पैनी दृष्टि थी उनकी। वो कहा करती थी कि गदहे को घोड़ा बनाना हमारा काम है। जीवन का अनुशासन क्या होता है, लोगों से बात करना, लोगों का सम्मान देना क्या होता है ये हमने सीखा। रिहर्सल रूम में घुसने के बाद चप्पल को भी इधर-उधर खुला नहीं होना चाहिए। रिहर्सल का समय यदि चार बजे है तो मजाल नहीं कि अभिनेता 4 बजकर 5 मिनट पर आए।’’

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उषा गांगूली ने हेनरी की कहानी ‘ गिफ्ट ऑफ द मगाई’ पर आधारित ऋतुपोर्ष घोष निर्देशित हिन्दी फिल्म ‘रेनकोट’ की पटकथा भी लिखी। गौतम घोष की मशहूर फिल्म ‘पार’ में भी अभिनय तथा मृणाल सेन निर्मित टेली फिल्म ‘तस्वीर अपनी- अपनी’ में भी काम किया।

हिन्दी भाषा की शुद्धता के प्रति वे बेहद संवेदनशील थी। पटना में उनके एक नाटक के प्रदर्शन के पूर्व प्रेस के लिए प्रेस रिलीज तैयार हो रहा था। उन्होंने वो रिलीज देखने की उत्सुकता जाहिर की। रिलीज में ‘प्रस्तूति’ लिखा हुआ था उन्होंने आक्रोशित स्वर में कहा ‘‘ भाषा शुद्ध लिखने नहीं आता तो नाटक कैसे करोगे।’’

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अनीश अंकुर

लेखक संस्कृतिकर्मी व स्वतन्त्र पत्रकार हैं। सम्पर्क- +919835430548, anish.ankur@gmail.com
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