sablog.in डेस्क – डॉ. भीमराव अंबेडकर विचार एवं दर्शन से दोनों विचारकों में बहुत दूरियां हैं। तथापि यह कहना अतिश्योक्ति नहीं होगा कि दलित सुधार कार्यक्रमों में दोनों का महत्वपूर्ण योगदान है। भेदभाव-अस्पृश्यता को हटाने के लिए डॉ. अम्बेडकर ने राज्य के हस्तक्षेप द्वारा आर्थिक विषमताओं को हटाने पर जोर दिया है। जबकि गांधी जी का अस्पृश्यता विरोध, उनकी संवेदनशील नैतिक चेतना से प्रेरित था। परंतु, डॉ. अम्बेडकर जिन्होंने अस्पृश्यता को ध्रोहर में पाया था यह समझते देर नहीं लगी कि यह हिन्दू सामाजिक व्यवस्था का अभिन्न अंग है और समाज में आमूल परिवर्तन लाए बिना, राष्ट्र के हस्तक्षेप के बिना इसे हटाया नहीं जा सकता। हिंसा-अहिंसा, मानवाधिकारों, सत्याग्रह आदि जैसे मुद्दों पर भी अनेकों मतभेद थे। डॉ. अम्बेडकर समाज सुधर लाने में अंग्रेजों की मदद लेने के भी समर्थन में थे। चूंकि संविधन निर्माण में डॉ. अम्बेडकर की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। अतः संविधन में शोषित, उत्पीड़ित जनता के पक्ष में अध्किारों को स्थान देने में कोई परेशानी नहीं हुई एवं उनके लिए विशेष अध्किारों का प्रावधन हमारे संविधन की विशेषता बन गई। 29 अप्रैल 1947 में संविधन सभा में अस्पृश्यता के अंत का प्रस्ताव भी पारित किया जिसे बाद में संविधन के सतरहवें अनुच्छेद में सम्मिलित किया गया। यद्यपि गांधी जी ने इसे सुधर नहीं मानकर सिर्फ हिन्दू समाज में एक क्रांतिकारी सुधर का नाम दिया।
गांधी जी ‘मैला ढोने’ को गलत नहीं मानकर ‘पुण्य कर्म’ मानते थे परंतु डॉ. बाबासाहब ने दलितों को इस व्यवसाय को छोड़कर सम्मान की जिंदगी जीने के लिए प्रेरित किया। दिल्ली में पहली बार सफाई मजदूर संगठन तथा नगरपालिका का कामगार यूनियन अम्बेडकर जी के नेतृत्व में स्थापित हुआ। डॉ. अम्बेडकर ने समाज की सामूहिक शक्ति को पहचाना और आह्नान किया कि देश की एकता और स्वतंत्रता के लिए सभी छोटी-बड़ी जातियों को एकजुट होना पडे़गा क्योंकि कोई भी मजहब, पंथ और जाति देश से बड़ा नहीं हो सकता है। अस्पृश्यता और अन्याय घर के भीतर के झगड़े हैं और इसकी लड़ाई हिन्दू समाज से अलग होकर, या दलितों को हाशिए पर रखकर नहीं होगा। मानो या न मानो दलित वर्ग हिन्दू समाज का ही अंग है। अतः हिन्दू समाज को उसे स्वीकार करना ही होगा। बहिष्कृत भारत में उन्होंने खुलकर लिखा है – हिन्दू राष्ट्र का पतन इसका ही विकृत धर्मशास्त्र है, हिन्दू चेतना जैसी कोई बात नहीं बल्कि यह जाति चेतना है और जब तक जाति रहेगी तब तक संगठन नहीं होगा और जब संगठन नहीं होगा तो हिन्दू कमजोर और दीन बने रहेंगे। डॉ. अम्बेडकर जातिगत भेदभाव से अत्यंत आहत थे और उनका यह उद्भाव उनके संविधन समिति के भाषण से झलकता है। 25 जनवरी 1949 में उन्होंने कहा था – हिन्दू समाज के दो शत्रु हैं – जाति भेद एवं पंथ भेद और इसमें राजकीय पक्ष जुड़ गया है। सभी पक्ष अपने हो राष्ट्रहित से ऊपर मानने लगे हैं जो देश की स्वतंत्रता के लिए खतरा बन जाएगा। अपने विचारों का विस्तार करते हुए कास्ट इन इंडिया, में उन्होंने पुष्टि की है कि समाज भले ही अनगिनत जातियों में बंटा हो, पर इसकी संस्कृति एक है। भारत जैसे राष्ट्र को खड़ा होने के लिए एक संस्कृति की जरूरत नहीं बल्कि सामाजिक एकता की भी जरूरत है, पर इसकी एकता पर अनेकों जातियों ने प्रहार किया है।
बाह्मणों की श्रेष्ठता एवं शूद्रों की कनिष्ठता से राष्ट्र खड़ा नहीं होगा अपितु जैसा मैं वैसा तुम की भावना को अपना कर ही राष्ट्र बन पाएगा। बाबा साहब का संघर्ष हिन्दू समाज में बदलाव के लिए था, धर्म नष्ट करने के लिए नहीं क्योंकि उनका मानना था कि कोई भी समाज धर्म के बिना जीवित नहीं रह सकता। धर्म की जरूरत तो पारस्परिक मानवीय व्यवहार में भी होता है। अगर समाज से धर्म का नाश हो जाए तो अराजकता एवं तानाशाही का बोलबाला हो जाएगा। वस्तुतः समाज को समरस बनाना होगा। डॉ. अम्बेडकर ने श्रमिकों एवं प्रबंधकों के बीच समन्वय पर जोर दिया। जिससे राष्ट्रीय उत्पादन में वृद्धि हो और इसका फल सभी को प्राप्त हो। यह एक त्रिकोणीय व्यवस्था है जिसमें राज्य, समाज एवं मजदूर सभी के बीच एक सामाजिक संबंध है और श्रमिकों को भी अपने कार्यों के प्रति तत्पर रहना है। श्रमिक आंदोलन के इतिहास में अम्बेडकर का महत्वपूर्ण योगदान रहा है परंतु दुर्भाग्यवश किसी ने इसके बारे में विस्तृत चर्चा नहीं की है। 1936 में ‘स्वतंत्रा मजूर पवन’ की स्थापना करके उन्होंने श्रमिकों के बीच समानता, स्वतंत्राता और सामाजिक न्याय को स्थापित करने का प्रयास किया। अपने कार्यों की विस्तृत रूपरेखा उस प्रकार तैयार की कि सभी भूमिहीनों, गरीब किसानों तथा मजदूरों की समस्याओं का समाधान बिना किसी जाति, लिंग के भेदभाव के हो सके। बाबासाहब ने ब्राह्मणवाद और पूंजीवाद पर खुलकर प्रहार किया है क्योंकि पूंजीवाद, ब्राह्मणवाद, सामन्तवाद तथा साम्यवाद ने स्वतंत्रता, समानता और भातृत्व को चुनौती दे रखी है, और प्रतिकूल कार्य करते हैं।
अम्बेडकर श्रमिकों में राष्ट्रवाद का संचार करके, देश की प्रमुख धरा से जोड़कर समग्र विकास हेतु उन्हें शासन की बागडोर देने का दम भरते थे, परंतु मजदूर आंदोलन को उन्होंने कम्युनिष्टों से अलग रखा। उनका मानना था कि यदि मजदूरों की स्थिति संसदीय लोकतंत्रा में सुरक्षित रखनी है तो उन्हें अपना एक राजनीतिक दल बनाकर संगठित होना पड़ेगा। साथ ही सम्प्रदायवादी, पूंजीवादी दलों हिन्दू महासभा तथा कांग्रेस से दूर रहना पड़ेगा। अम्बेडकर यह मानते थे कि ज्ञान की कमी के कारण श्रमिकों का शोषण होता आया है। अतः उन्हें तकनीकी व वैज्ञानिक प्रशिक्षण देकर उनके जीवन स्तर को ऊपर उठाना होगा, जिससे सम्पूर्ण देश का विकास हो। श्रम मंत्री के रूप में कार्य करते हुए उन्होंने श्रमिकों के मानवाधिकारों को मुहैया कराने का भी प्रयास किया। जब 15 सितम्बर 1935 में औद्योगिक विवाद बिल के बाद मजदूरों के हड़ताल के अधिकार पर अंकुश लगाया गया तो अम्बेडकर जी ने इसे ‘गुलामी’ का दर्जा दिया और 7 नवम्बर 1935 को बम्बई के सभी मिलों और कारखानों के मजदूरों के साथ एक दिन हड़ताल की भी घोषणा की। 8 फरवरी 1944 में अम्बेडकर ने लिंग भेद की असमानता पर जोर डालते हुए स्त्री-पुरुष के वेतनों में विभिन्नता हटाने के लिए एक बिल पेश किया और समान वेतन की पेशकश की। 1948 में न्यूनतम मजदूरी अधिनियम बनाकर न्यायपूर्ण मजदूरी की भी बात उठाई।
महिला मजदूरों को प्रसूति छूट्टियाँ उनके वेतन के साथ दिए जाने की मांग ही नहीं की अपितु 1946 में इसे दिला भी दिया। यह बहुत ही दुःसाहस की बात थी कि जिन मजदूरों को हड़ताल पर जाने और एक सप्ताह काम नहीं करने पर 15 दिनों तक जेल जाने का नियम था। बाबा साहब अम्बेडकर ने दिल्ली नगरपालिका से इस नियम को भी खत्म करवा दिया। अम्बेडकर दलित परिवार में पैदा अवश्य हुए थे परंतु अपनी कर्मठता से वे राष्ट्र चिंतक बन गए। उनके हाथ में संविधन की प्रति इस बात का द्योतक है कि संविधान निर्माता किसी एक जाति विशेष तक सीमित नहीं रह सकता बल्कि वह एक राष्ट्रीय नेता थे।
उन्होंने समाजिक न्याय को समाजिक अन्याय का विलोम मात्रा नहीं माना अपितु सामाजिक समता, नई व्यवस्था का सूचक माना। राष्ट्र निर्माण हेतु उन्होंने एक आचारसंहिता का भी निर्माण किया। मुहम्मद अली जिन्ना की तरह अवसरवाद को नहीं स्वीकारा। जहां जिन्ना धर्म और राष्ट्र को लेकर अलग हुए, डॉ. अम्बेडकर ने केवल धर्म को अपनाया, लेकिन राष्ट्र को यथावत रहने दिया। धर्म के नाम पर राष्ट्रीयता को परिभाषित नहीं होने दिया, न ही धर्म को लेकर अलग होने के निर्णायक फैसले ने राष्ट्र निर्माण में कोई बाध उत्पन्न की। आज यही साबित होता है धर्म के आधर पर देश को अलग करने पर पाकिस्तान जैसे हादसे होते हैं, परंतु एक देश के भीतर विभिन्न विचारों, पूजापतियों के लिए जितने अवसर उपलब्ध कराए जाएंगे, वह राष्ट्र उतना ही उन्नत व मजबूत होता जाएगा। आज दलित विचार विमर्श किसी कुंठा की उपज नहीं अपितु एक दार्शनिक सत्य स्थापित करता है, एक नैतिकता की उद्घोषणा करता है। उनके श्रमिक दर्शन की प्रासंगिकता आज भी देखने को मिलती है जब आज सभी श्रेणी के कर्मचारियों, मजदूरों के लिए शिक्षा, समानता, स्वतंत्राता तथा सामाजिक न्याय हेतु अनेकांे कानून बनाए गए हैं। आज भूमिहीन, गरीब किसान, मजदूर सभी राष्ट्र की मुख्यधारा में सम्मिलित होकर मानवीय अधिकारों का प्रयोग कर रहे हैं। अनुसूचित जाति और पिछड़े वर्ग के लोगों को संविधन द्वारा बेहतर से बेहतर अधिकार उपलब्ध कराए गए हैं तथापि वर्तमान दौर में भूमण्डलीकरण, उदारीकरण, निजीकरण ने अनिश्चितता का दौर प्रारंभ कर रखा है और ऐसे नाजुक हालत में डॉ. अम्बेडकर का यथार्थ दर्शन देश को एक गति प्रदान कर रहा है।
(ये लेखिका के अपने विचार हैं।)
डॉ. अर्चना सावशिल्या
(लेखिका अदिति महाविद्यालय में पढ़ाती हैं।)
9958177849