भाजपा जान की दुश्मन है, तो कम्युनिस्ट ईमान की – अनीश अंकुर
बेगूसराय यात्रा: एक संस्मरण (भाग 4)
20 अप्रैल की अर्द्धरात्रि में लौटने के बाद दो तीन दिन पटना में रहना हुआ। माध्यमिक शिक्षक संघ में ‘प्राच्यप्रभा’ के सम्पादक व कवि विजय कुमार सिंह व रंगकर्मी मृत्युंजय से मिलने गया था। वहीं बेगूसराय के रहने वाले चंद्रकिशोर जी से भी भेंट हुई। वे शिक्षक संघ, पटना प्रमंडल के नेता भी हैं। उनसे देर तक बातें होती रही। वे बेगूसराय के ही रहने वाले थे, बिसुनपुर के। पहले सी.पी.आई में थे पर जैसा उन्होंने खुद बताया पार्टी की लालूपरस्त नीतियों के कारण पार्टी छोड़ दिया और अब जद (यू) में हैं। बेगूसराय में क्या होगा? कन्हैया जीतेगा? इस प्रश्न के जवाब में अपने दिल्ली में रह रहे पुत्र के बारे में बताने लगे ‘‘ वो चुनाव में बेगूसराय आने के लिए रेलभाड़ा, दो हजार रूपया, मांग रहा है। क्या करें भेजना पड़ेगा। कन्हैया को वोट देगा, खैर मैं रोकूंगा नहीं।’’ फिर उन्होंने यह भी बताया कि ‘‘ गाँव से भी फोन आया था कि कन्हैया के लोग वहाँ मीटिंग करने व खाने-पीने के इंतजाम करने के बारे में कह रहे हैं? मैंने कहा कि ‘कर दो’।’’ फिर यह भी जोड़ा कि ‘कम्युनिस्ट पार्टी के बारे में मेरे मन में बहुत गुस्सा है। खैर समर्थन नहीं करूँगा तो विरोध भी नहीं । ’’
इसी दरम्यान हिन्दी के एक प्रसिद्द साहित्यकार ने फोन किया। उन्होंने 20 अप्रैल वाले कार्यक्रम की सूचना देखी थी। उसमें उन्होंने वाम लोकतान्त्रिक उम्मीदवारों की जिताने की अपील का जिक्र करते हुए ‘लोकतान्त्रिक ’ शब्द पर आपत्ति दर्ज किया। क्योंकि लोकतान्त्रिक में तो राजद, कांग्रेस सभी चले आते हैं। उनका कहना था सिर्फ वाममोर्चा रहना चाहिए और इसमें भी मेरा समर्थन सिर्फ बेगूसराय और और उजियारपुर के लिए है, माले के लिए नहीं। उन्होंने बिहार के साहित्यकारों की एक अपील कन्हैया के पक्ष में निकालने की बात की। मैंने प्रलेस के प्रान्तीय महासचिव रवीन्द्र नाथ राय से इस संदर्भ में बातें की। उन्होंने प्रलेस की कई जिला ईकाईयों को सन्देश भेजा कि कन्हैया के समर्थन में बिहार के साहित्यकारों की एक अपील जाने के लिए हस्ताक्षर अभियान चलायें।
उधर युवा रंगकर्मी गौतम रंगकर्मियों का एक हस्ताक्षर अभियान चलाना शुरू कर चुका था। रंगकर्मियों के मध्य पहली बार किसी कम्युनिस्ट उम्मीदवार के पक्ष में इस किस्म का अभियान चल रहा था। वैसे 2004 में रंगकर्मियों-कलाकारों के साझा मंच हिंसा के विरुद्ध संस्कृतिकर्मी की ओर से भाजपा को हराने के लिए बिहार के वाम लोकतान्त्रिक उम्मीदवारों के पक्ष में अपील निकालने की बात हुई थी। लेकिन भाकपा-माले के गीत-नाट्य ईकाई ‘हिरावल’ के एक साथी ने, चुनाव वाली अन्तिम बैठक में ठीक वही तर्क दिया था जो अब उक्त साहित्यकार दे रहे थे कि ‘‘ लोकतान्त्रिक में तो राजद-कांग्रेस सब चले आयेंगे। हमें सिर्फ वाममोर्चा रखना चाहिए।’’ अन्ततः वो अपील जारी न हो सकी।
पटना रंगमंच में कन्हैया विरोध की प्रवृत्ति काफी पहले से मौजूद रही है। 15 फरवरी 2016 को हर जगह कन्हैया विरोध उन्माद अपने चरम पर था प्रेमचंद रंगशाला में बड़ा जोखिम लेकर हिंसा के विरुद्ध संस्कृतिकर्मी (रंगकर्मियों- कलाकारों का साझा मंच) की ओर से कन्हैया के समर्थन में सभा आयोजित किया गया था। सभा के दौरान ही हमें कोर्ट परिसर में उसपर हमला होने की सूचना मिली थी। कन्हैया विरोध के परिणामस्वरूप कुछ करीबी रंगकर्मियों से दूरी बढ़ गयी थी। लेकिन अब काफी कुछ बदलाव आ गया था, माहौल अनुकूल था। गौतम व जेपी ने कन्हैया को समर्थन देने के लिए हाजीपुर के लिए क्षितिज प्रकाश, दरभंगा के प्रकाश बंधु, खगौल से उदय कुमार बेगूसराय के लिए गुंजन, राणा व दीपक सिन्हा आदि से बातें कीं। पटना में कुछ रंगकर्मियों को छोड़ अधिकांश रंगकर्मियों ने अपनी सहमति प्रदान की। सबों से सहमति व्हाट्सअप पर मांगने की बात हो रही थी ताकि बात में कोई मुकरने न पाए। कोशिश थी कि वाम दायरे के बाहर के रंगकर्मियों को इसका हिस्सा बनाया जाए। उधर साहित्यकारों वाले हस्ताक्षर अभियान में भी प्रगति हो रही थीं।
शाम में मौर्या लोक के अपने अड्डे पर, जिसे ‘पटना रिपब्लिक’ के नाम से जाना जाता है, गालिब कलीम से बात हुई। गालिब मुसलमानों के बीच कन्हैया विरोध की प्रवृत्ति के बारे में लगातार बताते रहे थे। उन्हें अंडमान निकोबार जाना था लेकिन कन्हैया के लिए चुनाव प्रचार करने के लिए उन्होंने चुनाव के बाद का अपना टिकट करवाया। कन्हैया विरोधी खास-खास मुस्लिम लड़कों के बारे में बातें होती रही। गालिब कलीम ने बताया कि पटना विश्वविद्यालय छात्र संघ चुनाव में मुस्लिम छात्रों का वोट लेफ्ट के पक्ष में न जाये इसके लिए कैसे एक पूरा गैंग सक्रिय था। उस गैंग के कुछ लोग अब कन्हैया के खिलाफ काम कर रहे हैं और बहाना मुस्लिम रिप्रजेंटेशन का बना रहे हैं। और दरअसल ये घनघोर कम्युनिस्ट विरोधी लॉबी है। चुनाव की सरगर्मी शुरू होने के काफी पहले जब कन्हैया की उम्मीदारी की बातें हवा में तैर रही थीं। गालिब ने पटना युवा आवास में हुए एक मीटिंग का हवाला दिया था जिसमें कहा गया था कि ‘‘ ये ठीक है हमें भाजपा से जान का खतरा है लेकिन कम्युनिस्टों से तो हमें ईमान का खतरा है।’’ बेगूसराय के तनवीर हसन के नाम पर मुस्लिम नुमाइंदगी का सवाल उठाया जाएगा इस सम्बन्ध में पहले से योजना बन रही थी।
गालिब ने एक दिलचस्प तथ्य की ओर भी इशारा किया। कि आज जो कन्हैया के विरोध में खड़े हैं उनमें से कई कन्हैया के भी समर्थक रह चुके हैं। बकौल गालिब कलीम ‘‘ लेकिन तुर्की में एक मीडिया वर्कशॉप आयोजित हुआ था जिसमें, इनमें से कई लोग शामिल हुए थे। लेकिन उस वर्कशॉप से लौटने के बाद अधिकांश कन्हैया के खिलाफ हो गए है।’’ गालिब ने दिल्ली में रहने वाले एक जनपक्षधर पत्रकार, जो सामाजिक न्याय सम्बन्धी आयोजनों में काफी आमन्त्रित किए जाते हैं, का नाम लेकर पूछा ‘‘ देखिए ये प्रोग्रसिव माने जाते हैं और देश भर के प्रोग्रेसिव लोग कन्हैया के समर्थन में हैं लेकिन उनका एक भी वक्तव्य या कोई फेसबुक टिप्पणी दिखा दीजिए जो कन्हैया के पक्ष में हो? ’’ तुर्की वाली वर्कशॉप के बारे में हम ये कयास लगाते रहे क्या ये बात सही है? अगर हाँ तो कि इसके पीछे कौन लोग हो सकते हैं? उनका क्या हित हो सकता है? लेकिन इसका कोई ओर-छोर न निकला।
तनवीर हसन के बारे में काफी बातें होती। तनवीर हसन कन्हैया पर लगातार हमला कर रहे थे उसे भाजपा की ‘बी टीम’ बता रहे थे। लेकिन कन्हैया तनवीर हसन पर हमले से बच रहा था। क्या ये रणनीति ठीक है? कहीं कन्हैया का चुप रहना उसके खिलाफ न चला जाए। लेकिन कई लोग इसे कन्हैया की स्मार्ट रणनीति मानते रहे। मुसलमान क्या तनवीर को छोड़ कन्हैया को वोट करेगा? इसी दरम्यान तनवीर हसन की पृष्ठभूमि, उनके परिवार आदि के सम्बन्ध में कोई न कोई बताता रहता। छात्र जीवन में उनके वामपन्थी झुकाव के बारे में बताया जाता कि किसी समाजवादी देश में आयोजित युवा प्रतिनिधिमंडल में इनहोंने हिस्सा लिया था जिसकी तस्वीर सोशल मीडिया पर तैर रही थी। फिर किसी ने बताया कि तनवीर के बड़े भाई जिनका नाम संभवतः आफताब हसन था और वे मुंगेर में कम्युनिस्ट पार्टी से भी जुड़े, हैं या थे, ऐसा ही कुछ। लेकिन उन्होंने शायद किसी ऐसी महिला से शादी कर ली जो घरवालों को पसन्द न था फलतः घर वालों ने अलग कर दिया। पता नहीं इन बातों में कितनी सच्चाई हो। फिर उनके छोटे भाई ताज हसन का जिक्र हुआ। उनके बारे में बताया गया कि वे बिहार पुलिस सेवा में आईजी स्तर के अधिकारी है।
ज्योंहि मैंने नाम सुना ताज हसन! तो दो-ढ़ाई दषक से अधिक की पुरानी बातें याद आने लगी। अरे! ये क्या ये वही ताज हसन हैं जब ये गिरिडीह (अविभाजित बिहार में) के एस.पी. थे हमारी नुक्कड़ नाटक टीम को आमन्त्रित किया था। तब विद्याभूषण जीवित थे। प्रेरणा (जनवादी सांस्कृतिक मोर्चा) में मेरे ये प्रारम्भिक साल में थे। अब याद नहीं कौन-कौन से नाटक प्रदर्शित हुए लेकिन तब प्रेरणा एक बड़ी टीम थी। सुनील राज (अब दैनिक जागरण में पत्रकार), अंजनी तिवारी (अब दैनिक आज में पत्रकार) के साथ-साथ एक डांस ग्रुप भी हुआ करता था। ताज हसन के पहले टीम चतरा भी गई थी वहाँ के तत्कालीन एस.पी गुप्तेश्वर पाण्डेय (वर्तमान में बिहार के डीजीपी) के आमन्त्रण पर। वे बक्सर के रहने वाले थे। बक्सर की एमएलए थीं भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (मार्क्सवादी) की मंजू प्रकाश थीं। उनके पति रामदेव वर्मा भी एमएसए थे। दोनों को एक ही फ्लैट गाँधी मैदान के उत्तरपश्चिमी कोने पर मिला हुआ था। गाँधी संग्रहालय के ठीक पूरब। आज वहाँ सम्राट अशोक कन्वेंशन सेंटर बन गया है। मंजू प्रकाश के पिता ज्योति प्रकाश की हत्या हो गई थी। इसका चुनावी लाभ उन्हें मिला था। ‘प्रेरणा’ का कार्यालय उनके ही आवास पर ही था जहाँ नाटकों के रिर्हसल हुआ करते थे। तब प्रेरणा के तत्कालीन सचिव थे विद्याभूषण द्विवेदी। मंजू प्रकाश का, बाकी कम्युनिस्ट विधायकों की तुलना में, थोड़ा साहित्य व कला के प्रति झुकाव था। मंजू प्रकाश के कारण ही गुप्तेश्वर पाण्डेय ने पहले चतरा में नुक्कड़ नाटक अयोजित कराया था। चतरा के बाद हम गिरिडीह गए थे। ये दोनों यात्रायें लगभग आस-पास थीं इस कारण याद रह गयी हैं। वहीं ताज हसन से हमारी टीम मिली। विद्याभूषण द्विवेदी ने बताया कि ये जो एसपी है वो फैज, मख्दूम वगैरह की शायरी में दिलचस्पी लेते हैं। वैसे तो ताज हसन की अब बेहद धुंधली याद है लेकिन उनका हाथ दूर से देखने पर कुछ टेंढ़ा-मेढ़ा जैसा दिखता था। इस बाबात मैंने विद्याभूषण जी से पूछा तो उन्होंने कहा ‘‘ हाथ में गोली लगने के कारण ऐसा हो गया है।’’ हम फटी आँखों से उन्हें देखते रहे उन्होंने थोड़े विस्तार से बताया कि ‘‘ वे एक अपराघी का पीछा कर रहे थे। वो अपराधी भागते-भागते एक घर में छुप गया। ताज हसन से किसी छेद में अपना हाथ डालकर दरवाजे को पीछे से खोलना चाहा। अपराधी, वहीं दरवाजे के पास छुपा था उसने उनके हाथों में कई गोलियाँ मार दी।’’
विद्याभूषण द्विवेदी ने ये सब कुछ इस अंदाज में सुनाया कि अब तक याद है। बाद में विद्याभूषण द्विवेदी राष्ट्रीय नाट्य विद्यालय, दिल्ली चले गए। वहीं उनका त्रासद अन्त हुआ। तनवीर हसन के बहाने ये पुरानी बातें याद आती रहीं।
25 की सुबह मैं, गया के चर्चित कवि सत्येन्द्र कुमार, गालब कलीम और एक साथी जफर पटना से बेगूसराय के लिए चले। हमें बरौनी फ्लैग जाना था। जफर से पहली दफे भेंट हुई। उन्होंने बताया उन्होंने दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी साहित्य की पढ़ाई की है लेकिन अभी भागलपुर के बुनकरों के साथ काम कर रहे हैं। रास्ते में लालू प्रसाद, वामपन्थ आदि की राजनीति पर बेहद जीवन्त बातें होती रहीं। सभी बातचीत में शामिल थे। रास्ते में मुसरीघरारी वाली पेड़ा की मशहूर दुकान पर हम रूके। बेगूसराय जाने के दौरान जब भी इस रास्ते से जाना होता है स्वादिष्ट पेड़े का स्वाद अवश्य चाखते हैं। पेड़ा, भूंजा और चाय हर दफा यही क्रम रहता। जिस दुकान पर हम थे वहीं कंचनबाला पर नजर पड़ी। अशोक और मणिलाल जी उनके साथ थे। अशोक जी व मणिलाल जी पूर्व में एमएलए में रह चुके थे लेकिन अभी कंचन जी, सत्यनारायण मदन के साथ पटना की नागरिक गतिविधियों में काफी सक्रिय रहते हैं। सत्येन्द्र जी कंचन जी को जानते थे। चुनाव सहित कई दूसरी चीजों की चर्चा होने लगी। अशोक जी से उमा सिनेमा के सामने वाली ‘समकालीन प्रकाशन’ की चर्चा निकल पड़ी। उस दुकान को शुरू करने वाले बुजुर्ग कॉमरेड जगदीश के बारे में बातें हुई। अशोक जी बताते रहे कि कैसे वे दुकान चला रहे थे, कैसे पार्टी के हस्तक्षेप के कारण प्रगतिशील किताबों की वो दुकान बन्द हो गयी। कंचन जी 1990 में आडवाणी की रथ यात्रा के ठीक पहले पटना के उन्माद भरे साम्प्रदायिक माहौल की बातें बताती रहीं।
हमलोगों ने बताया कि बेगूसराय जा रहे हैं, कन्हैया के लिए। उनलोगों ने अपना गंतव्य समस्तीपुर बताया। उन्होंने महागठबंधन को वोट देने के लिए एक पर्चा भी छपवाया हुआ था। वो भी पर्चा हमें दिया। लेकिन साथ यह भी जोड़ा ‘‘प्रचार करने बेगूसराय नहीं जायेंगे।’’ जफर ने महागठंबधन पक्ष वाले पर्चे को लेने से इंकार कर दिया।
बरौनी पहुँचते-पहुँचते हमें दोपहर हो गया। आज वहाँ फिल्म अभिनेत्री शबाना आजमी, दक्षिण भारतीय अभिनेता प्रकाश राज आदि की सभा होनी थी। हमलोग पहले सभा वाली मैदान में ही चले गए। वहाँ स्टेज अभी बन ही रहा था। पास ही एक चाय की दुकान पर अजय जी, जेपी सहित अन्य लोगों से वहीं भेंट हुई। मिलते ही बातचीत कन्हैया की ओर मुड़ गयी।
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