गोड्डा का चुनावी समर
कन्हैया और बेगूसराय की सीट ने 2019 के लोकसभा चुनावों में ऐसी केन्द्रीयता अर्जित कर ली है कि अन्य उल्लेखनीय लोकसभा सीटों पर बातचीत की सूरत भी नहीं बन पा रही है। 2019 के लोकसभा चुनावों के मद्देनजर ऐसी ही एक जरूरी सीट है – गोड्डा लोकसभा की, जो झारखण्ड की 14 लोकसभा सीटों में से एक है। यह सीट क्यों अलग से रेखांकित करने लायक बन गयी है, यह अलग सवाल है। इसके लिए इस सीट के अतीत में चलकर वर्तमान तक आना होगा। पिछले सात लोकसभा चुनावों में छह बार भाजपा यहाँ से जीती है। इस लिहाज से देखें तो झारखण्ड में यह भाजपा के दबदबे वाली सीटों में से एक तो है ही। इस बार संताल परगना के लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ने के लिए भाजपा ने गोड्डा लोकसभा सीट को केन्द्र बनाया है। साल 2002 में यहाँ भाजपा से प्रदीप यादव ने जीत दर्ज की थी। बाद में 2004 में कांग्रेस के फुरकान अंसारी यहाँ से जीते।
2009 और 2014 में भाजपा के निशिकांत दूबे ने यहाँ से जीत दर्ज की। अगर कांग्रेस, झामुमो और झाविमो ने झारखण्ड में गठबंधन नहीं किया होता तो यह सीट तीसरी बार भी भाजपा के खाते में बिना किसी अतिरिक्त प्रयास के चली गई होती। लेकिन अब पेंच फँस गया है। 2000 से 2019 तक आते-आते सारे समीकरण बदल गये हैं। 2002 के उपचुनाव में भाजपा की टिकट पर दर्ज करनेवाले प्रदीप यादव अब झारखण्ड विकास मोर्चा की टिकट पर निशिकांत दूबे के सामने हैं। 2014 में प्रदीप यादव तीसरे स्थान पर रहे थे और तकरीबन उन्हें 1.93 लाख मत मिले थे। दूसरे स्थान पर कांग्रेस के फुरकान अंसारी रहे थे जिन्हें तकरीबन 3.19 लाख मत मिले थे। और निशिकांत दूबे 3.80 लाख मत पाकर विजयी हुए थे।
इस बार फुरकान अंसारी के न रहने से मामला प्रदीप यादव और निशिकांत दूबे के बीच आमने-सामने का हो गया है। मामला उनके आमने-सामने होने के कारण रेखांकित करने योग्य नहीं हुआ है। वह अन्य कारणों से हुआ है। एक सांसद के बतौर निशिकांत दूबे का कार्यकाल बेहद शानदार रहा है। भाजपा और नरेन्द्र मोदी जिस विकास की डुगडुगी पूरे देश में पीट रहे हैं, उसकी जमीनी वास्तविकता दूसरी जगहों में भले थोड़ी संदिग्ध रही हो, लेकिन गोड्डा लोकसभा क्षेत्र में निशिकांत दूबे ने एक सांसद की भूमिका पुरजोर तरीके से निभाई है। एम्स का निर्माण कार्य जारी है, इस साल से एम॰बी॰बी॰एस॰ के पहले सत्र की पढ़ाई भी आरंभ हो जानी है। एयरपोर्ट का काम युद्धस्तर पर जारी है। फ्लाईओवर से लेकर सड़क तक के निर्माण कार्य में तेजी आई है। देवघर के तो गली मोहल्ले में सौंदर्यीकरण और साफ-सफाई को लेकर रोज कोई ना कोई गतिविधि देखी जा सकती है।
सैनिक स्कूल से लेकर केन्द्र सरकार की बहुत-सी योजनाओं को बतौर सांसद वे अपने क्षेत्र के लिए लेकर आने में कामयाब रहे हैं। जसीडीह स्टेशन से कई जोड़ी नई ट्रेनों के परिचालन का श्रेय निशिकांत दूबे को जाता है। अपने कार्यकाल में स्कूल-कॉलेजों के अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों में परिचालित होनेवाले पुस्तकालयों में वे एक करोड़ नौ लाख की किताबें खरीद कर बंटवा चुके हैं। इतना ही नहीं इन दस सालों के निशिकांत दूबे के कार्यकाल में शायद ही कभी उनके काफिले की वजह से शहर में जाम लगा हो, वे कहीं भी रैली या सभाओं में जाते हैं तो अपनी गाड़ी खुद चलाते हैं। इन सबका असर शहरी मतदाता पर है। देवघर को शहरीकरण की राह पर वे बहुत तेजी से लेकर आये हैं, मध्यवर्ग उनके असर में है। मतलब सांसद के बतौर उनके रिपोर्ट कार्ड को खारिज नहीं किया जा सकता है। दो-तीन मौके जरूर आये जब वे आलोचना के शिकार हुए। उनमें से प्रमुख गोड्डा में अडाणी के पावर प्लांट के लिए जमीन अधिग्रहण का मामला रहा। जिसके खिलाफ प्रदर्शन के क्रम में प्रदीप यादव की गिरफ्तारी हुई। बताता चलूं कि गोड्डा लोकसभा के अंतर्गत छह विधानसभा की सीटें आती है, (मधुपुर, देवघर, जरमुण्डी, पोड़ैयाहाट, गोड्डा और महागामा)। प्रदीप यादव अभी पोड़ैयाहाट से विधायक हैं। गोड्डा में अडाणी के पावर प्लांट के लिए भूमि-अधिग्र्रहण वाले मामले में वे जेल जाकर आये हैं। उनके लिए गोड्डा की यह सीट आन की बात हो गई है। झारखण्ड के संदर्भ में इस सीट की अहमियत का अंदाजा इस बात से लगा सकते हैं कि यदि झाविमो के खाते में यह सीट नहीं गई होती तो यह गठबंधन संभव नहीं हो पाता। कांग्रेस की इस सीट पर मजबूत दावेदारी होने के बावजूद गठबंधन के काफी पहले से प्रदीप यादव यह बात लगातार पार्टी कार्यकर्ताओं से कहते आये हैं कि वे चुनाव की तैयारी करें, गोड्डा से आधिकारिक उम्मीदवार वही होंगे। जो इस बात की तस्दीक करता है कि इस सीट पर वे समझौते के लिए कतई तैयार नहीं थे।
अल्पसंख्यक और पिछड़ी जातियों की बहुलता वाला यह सीट पिछली बार निशिकांत दूबे के खाते में त्रिकोणीय मुकाबले के कारण जा सका था। लेकिन इस बार मतों का वैसा बिखराव संभव नहीं दिख रहा है। निशिकांत दूबे भी इस बात को समझ रहे हैं। इसलिए वे लगातार अपने बयानों से कांग्रेस और फुरकान अंसारी को उकसाते रहे, जिससे बगावती तेवर के साथ ही सही वे मैदान में उतर आये। लेकिन उनका बेटा इरफान अभी कांग्रेस से विधायक है और इस कारण वे बगावती तेवर नहीं अपना सके। लेकिन अपने एक साक्षात्कार में निशिकांत दूबे ने कहा था कि इस बार भी आखिरी वक्त में कोई दुर्गा निकल आयेगा। पिछले चुनाव में एक बार गठबंधन के बावजूद शिबू सोरेन के दिवंगत पुत्र दुर्गा सोरेन ने गठबंधन को ताक में रख कर पर्चा भर दिया था और वोटों के बिखराव का फायदा निशिकांत दूबे को मिल गया था। इस बार भी ऐसा हुआ है।
जो इस बात की तस्दीक करता है कि भीतर-भीतर शायद इस किस्म की तैयारी चल रही थी। हुआ यह है कि इसी लोकसभा सीट से फुरकान अंसारी की बेटी शबाना खातून उर्फ पिंकी ने तृणमूल कांग्रेस की टिकट पर चुनाव लड़ने की घोषणा कर दी है। बसपा ने भी एक अल्पसंख्यक को यहाँ से अपना उम्मीदवार बनाया है। शर्तिया हार के अंजाम से वाकिफ ये चुनावी मैदान में हैं। भारतीय चुनावों में जो एक वोटकटवा नाम के उम्मीदवार पाये जाते हैं। यह दोनों उसके आदर्श उदाहरण हैं। सोचने की बात यह है कि आखिर नतीजों से वाकिफ होने के बावजूद इनके खड़े होने के मूल में असल कारण क्या हैं? यह किनकी मदद करने के लिए खड़े हुए हैं। इनके खड़े होने से प्रत्यक्ष लाभ किसे मिल रहा है? जाहिर है मुस्लिम वोट जहाँ प्रदीप यादव के पक्ष में गिरे तो इस बार भाजपा के लिए अपना किला बचाना मुश्किल हो जायेगा। क्योंकि 18 फीसदी मुस्लिम मतदाता इस लोकसभा क्षेत्र में हैं।
इसलिए विकास के अपने तमाम काम के बावजूद इस बार निशिकांत दूबे के लिए यह चुनाव कठिन है। क्योंकि भारतीय चुनावों में बार-बार सुना जानेवाला जातीय समीकरण वाला पदबंध विकास की राह रोक कर खड़ा हो गया है। मुस्लिम-यादव समीकरण तो गठबंधन के पक्ष में जाता दिख ही रहा है, झामुमो के आ मिलने से आदिवासियों के अच्छे-खासे वोट भी शिफ्ट होने की संभावना है। झाविमो का अपना वोट बैंक तो है ही। इसके अलावे एक बात और है जो फर्क पैदा करनेवाली साबित होगी वह है प्रदीप यादव का ग्रामीण क्षेत्रों में पकड़। निशिकांत दूबे की तुलना में वे ज्यादा जमीनी नेता हैं। इन सब कारणों ने मिल कर इस बार गोड्डा लोकसभा चुनाव को खासा दिलचस्प बना दिया है। निशिकांत जीतेंगे तो कम से कम यह बात कही जा सकेगी कि काम बोलता है और अगर वे हारते हैं तो जातीय समीकरणों को साधने की अहमियत समझी जा सकेगी। ऊँट किस करवट बैठेगा यह कहना अभी मुश्किल है, लेकिन निर्वतमान सांसद के लिए विपक्ष की एकजुटता ने संसद की राह कठिन बना दी है।
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