जब प्रधानमंत्री थे तब उन्होंने सरकार का रिमोट कंट्रोल संघ के हाथ नहीं जाने दिया। आज ‘राष्ट्रीय सहारा’ मेरे हमनाम पत्रकार ने रिपोर्ट में बताया कि के. एस. सुदर्शन का दबाव था, राष्ट्रीय सलाहकार बृजेश मिश्र और योजना आयोग उपाध्यक्ष एन. के. सिंह को पद से हटाया जाय। वाजपेयी राज़ी न थे। आखिर सुदर्शन ने संघ के एक कार्यक्रम में खुले मंच से इन दोनों की आलोचना की। फिर भी अटल जी उन्हें नहीं हटाया। एक दिन संघ ने अटल-आडवाणी की जोड़ी को विधिवत फटकारा। उन्होंने ‘बहुत छींटे पडे़’ का प्रसिद्ध बयान तो दिया पर संघ के आदेशों को अविवेकपूर्वक स्वीकार नहीं किया।
आज क्या स्थिति है? संघ वर्तमान प्रधानमंत्री की सार्वजनिक प्रशंसा किसी कारण करता होगा! गुजरात दंगों, बल्कि जनसंहार, के बाद अटल जी ने जिसे ‘राजधर्म’ न निभाने की तोहमत से नवाज़ा था, उसके समय संघ के हाथ में सत्ता का रिमोट कंट्रोल पूरी तरह आ चुका है। संघ सीधे ‘सलाह’ देता है; सरकार उस सलाह से चलती है।
ऐसे में अटल जी याद आते हैं तो कोई आश्चर्य नहीं। वे संघ के थे पर मिथ्यावाद में संघ के पूर्ण अनुयायी नहीं प्रतीत होते। वे ही थे जो साहस के साथ कह सकते थे—क्वाँरा हूँ, ब्रह्मचारी नहीं; या, पत्रकारों के पूछने पर स्वीकार कर सकते थे कि हाँ, मैं ‘बीफ’ का शौक़ीन हूँ! उनकी कविता बहुत सार्वजनिक हो रही है कि आज़ादी अधूरी है। जब कम्युनिस्ट पार्टी ने आज़ादी को अधूरी कहा तब सब के सब पिल पड़े थे। उसे ग़द्दार वग़ैरह कहा था। आज अटल जी के बहाने इसी बात की सराहना हो रही है! ये सराहना करने वाले न इतिहास जानते हैं, न कविता समझते हैं।
बहरहाल, मैं 1971-72 से 1977-78 के वे दिन याद कर रहा हूँ जब साउथ एवेन्यू में अटल जी, राजनारायण, चंद्रशेखर आदि रहते थे। सबसे मिलने और बहस करने के अलावा हँसी-मज़ाक़ हो जाता था। अटल जी फ़िल्मों के शौक़ीन थे। हेमा मालिनी की ‘सीता और गीता’ २५ बार देखी थी! वे सिनेमाहॉल में हमेशा सेकेंड शो देखते और अकेले न होते। महिलाएँ हमेशा सुंदर रहती थीं। हम लोग ‘नेताजी, नमस्कार’ कहे बिना न मानते। हँसकर, गर्दन थोड़ा झटककर जवाब देते और कहते, तुम लोग बहुत शरारती हो!
बात-चीत में ज़िंदादिल और मज़ाक़िया! हम लोग कुछ उद्धत थे। साहित्य में अज्ञेय हों या राजनीति में वाजपेयी, अपनी ख़ुराफ़ात से हम बाज़ न आते। उसका जवाब वे मज़े में देते। बुरा नहीं मानते थे। हँसी-मज़ाक़ में बेजोड़! अंतिम बार 1997 में मिले, जब वे विदेशमंत्री थे। अपनी पत्रिका ‘सरोकार’ के लिए परिसंवाद में उनसे लेख के लिए। क्रांतिकारी बुद्धिजीवी अनूप चौधरी साथ थे और पिता बद्रीनाथ तिवारी भी। पर वह मुलाक़ात अच्छी न थी। मैं कहकर आया कि अब आप वह नहीं रहे। हम अब नहीं मिलेंगे। बोले, पहले विपक्ष में थे, अब कर्तव्य बदल गये हैं। हमने कहा, लेख देने में क्या समस्या है? पता चला, संघ ने वामपंथियों की पत्रिका में मना किया है। यह संकेतों से पता चला। संघ का दबाव यहाँ काम कर रहा था।
बहरहाल, उनकी ज़िंदादिली याद है और रहेगी। कवि वे साधारण थे, केवल तुकबंदी करते थे। पर आदमी अच्छे थे। अगर आज उनके उत्तराधिकारी उनसे कुछ सीख पाते, केवल मौखिक गुणगान न करते, तो स्थिति बेहतर होती।