1984 में जब सिखों के खिलाफ हिंसात्मक हमले हुए तो उसके लिए कांग्रेस को जिम्मेदार ठहराया गया क्योंकि उस समय कांग्रेस पार्टी के हाथों में सरकार का नियंत्रण था। लेकिन सिखों के खिलाफ वह हमला विचारधारा के स्तर पर कांग्रेस का नहीं था बल्कि वह सिखों के खिलाफ हिन्दुत्व का हमला था। संसदीय प्रणाली में ये देखने और सुनने में अच्छा लगता है कि समाज में विविधता का प्रतिनिधित्व करने वाली यह बेहतर बहुदलीय व्यवस्था है। लेकिन बहुदलीय संख्या का पर्याय नहीं हो सकती है। बहुदलीय में वैचारिक विविधता और भिन्नता की कितनी गुंजाइश है, यह महत्वपूर्ण है। विचारधारा का अर्थ यह नहीं है कि उसकी एक ही पार्टी होगी। विचारधारा विभिन्न नामों व रंगों वाले झंडे में गतिशील रह सकती है। 1984 में जब सिखों के खिलाफ हमले हुए उस समय हिन्दुत्व की विचारधारा की अगुवाई कांग्रेस कर रही थी। यह गौरतलब है कि उस हमले के बाद देश में जो संसदीय चुनाव हुए उसमें कांग्रेस को ब्रिटिश सत्ता के बाद वाले भारत में सबसे ज्यादा सीटों पर कामयाबी मिली। इसका मतलब यह है कि स्वतंत्रता की अगुवाई के लिए जाने जानी वाली पार्टी कांग्रेस को देश में हुए पहले आम चुनाव में भी 1984 के मुकाबले बहुत कम सीटें मिली थी। कांग्रेस ने हिन्दुत्व का प्रतिनिधित्व किया और बाबरी मस्जिद के परिसर में विवाद के कारण बंद राम मंदिर का ताला खुलवा दिया। राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ और उसके ससंदीय दल भारतीय जनता पार्टी ने हिन्दुत्व के पक्ष में और आक्रमक रुख अपनाया और कांग्रेस उसमें पिछड़ गई। फिर इस विचारधारा के लिए वह नंबर वन पार्टी/ संगठन बन गये।
विचारधारा का काम है वह दलों के भीतर अपने पक्ष में प्रतिस्पर्द्धा खड़ी करें। आज संसदीय पार्टियों के भीतर हिन्दुत्व की विचारधारा प्रतिस्पर्द्धा के केन्द्र में हैं। इसीलिए हम देखते हैं कि कोई नरम हिन्दुत्व की बात करता है तो कोई बीच का रास्ता अपनाता है तो कई उग्र रुख करता है। विचारधारा मुक्कमल होती है और समाज को अपने अनुकूल बनाने की एक दिशा होती है। हिन्दुत्व की विचारधारा जब हम कहते हैं तो इसका मतलब स्पष्ट है कि उसकी विचारधारा के अनुकूल समाज को बनाने की तरफ लगातार बढ़ते जाना है। हिन्दुत्व एक राजनीतिक महत्वकांक्षा है। इसका एक आर्थिक व्यवस्था भी है लेकिन जैसी भी हो वह आर्थिक व्यवस्था भी उसके स्वभाव के अनुकूल ही हो सकती है। वहां यह नारा नहीं लगाया जा सकता है कि हिन्दू धर्म को मानने वाले सभी सदस्य आर्थिक स्तर पर बराबर होंगे। हिन्दू धर्म है लेकिन हिन्दुत्व नहीं। हिन्दुत्व में वर्चस्व की विचारधारा का वर्चस्व है। समानता का पूरी तरह से निषेध निहित है।
राजनीतिक एकध्रुवीयता और विपक्ष को समझने का एक दूसरा पक्ष पी वी नरसिम्हा राव का नई आर्थिक नीतियों को लाने की घोषणा के वक्त दिया गया बयान है। भूमंडलीकरण का अर्थ दुनिया की ताकतवर शक्तियों के वर्चस्व वाले एक विश्वव्यापी व्यवस्था की घोषणा और उस व्यवस्था के लिए बनाई गई आर्थिक नीतियां है। उन्होंने बतौर प्रधानमंत्री कहा था कि वह भूमंडलीकरण को स्वीकार कर रहे हैं। संसदीय राजनीति के लिए चाहें विपक्ष उसका विरोध करें लेकिन सत्ता में आने के बाद उसका विरोध नहीं कर सकता है। यानी संसदीय राजनीति के लिए विपक्ष अपरिहार्य है और विपक्ष का विरोध उसकी गतिशीलता है। लेकिन उन्होने यह स्पष्ट कर दिया कि नई आर्थिक नीति की एक विचारधारा है और उसे देश की सत्ता ने स्वीकार कर लिया है। इसीलिए हम यह स्पष्ट तौर पर अनुभव करते हैं कि चाहें सरकार किसी भी पार्टी के नियंत्रण वाली हो लेकिन वह नई आर्थिक नीतियों को लागू करने से पीछे नहीं हट सकती है। बल्कि इसके उलट यह बात हुई कि नई आर्थिक नीतियों को कैसे आक्रामकता के साथ लागू हो इसकी कैसी एक प्रतिस्पर्द्धा तैयार की गई। जितने समय तक कॉंग्रेस सत्ता में रही उस पर भाजपा यह दबाव बनाने की कोशिश करती रही कि वह नई आर्थिक नीतियों को लागू करने में तेजी नहीं दिखा रही है। यही काम कांग्रेस ने भी विपक्ष में रहते हुए किया।
संसदीय पार्टियों के भीतर नयी आर्थिक नीतियों को लागू करने के लिए विकास के नारे को बतौर हथियार पैना किया गया। गौर करें कि विकास का अर्थ किसी भी मायने में केवल मशीनी और कंक्रीट के ढांचे खड़े करने तक सीमित नहीं रहा है।लेकिन विचारधारा की यह उपलब्धि होती है कि वह किसी भी शब्द और भाषा व उसके अर्थ को अपने अनुकूल ढाल दें। नई आर्थिक नीति को लागू करने के पच्चीस वर्ष के अनुभव हमारे सामने है कि एक प्रतिशत नागरिक के कब्जे में देश के कुल सकल घरेलू उत्पाद का आधा से ज्यादा हिस्सा हैं। यह तथ्य वर्चस्व की विचारधारा का अब तक का अंतिम सच है।
संसदीय राजनीति के बीच प्रतिस्पर्द्धा के मुख्य नारों पर गौर करें तो यह आसानी से स्पष्ट हो सकता है कि वास्तव में उनके बीच वर्चस्व की विचारधारा की अगुवाई करने की प्रतिस्पर्द्धा है।हर पार्टी चुनाव जीतना चाहती है और चुनाव जीतने के लिए ज्यादा से ज्यादा पैसे की जरुरत महसूस करती है। चुनाव से देश का आम आदमी बाहर हो चुका है। यदि राजनीतिक दर्शन के स्तर पर नहीं तो आंकड़ों के स्तर पर इसे इस तरह समझ सकते हैं। देश की एक बड़ी आबादी के पास इतनी भी क्षमता नहीं है कि वह चुनाव के लिए नामांकन पत्र दाखिल कर सकें।यानी राजनीतिक समानता की स्थिति खत्म हो गई है जिसे डॉ. अम्बेडकर ने संविधान को पूरा करने के बाद एक ताकत के रुप में प्रस्तुत किया था। इसीलिए हम यह अनुभव कर सकते हैं कि राजनीतिक पार्टियों की पूरी भाषा ही बदल गई है। वह अधिकार की बात नहीं करती है वह कल्याण की बात करती है। वह दानादाता के रुप में सबसे आगे दिखना चाहती है। वह मुआवजा बांटने में अपनी दरियादिली दिखा सकती है लेकिन राजनीतिक अधिकारों व नागरिकों अधिकारों में कटौती की पूरजोर समर्थक है। यह सब वर्चस्व की विचारधारा के लक्षण हैं। विकेन्द्रीकरण की विचारधारा को दफनाने की विशेषताएं हैं।
यह वर्चस्व की ही विचारधारा है जो अपनी एक हद को सुनिश्चित कर लेना चाहती है। राष्ट्रवाद उस हद का नाम है।राष्ट्रवाद वर्चस्ववाद के पर्याय के रुप में नये सिरे से परिभाषित हुआ है। इस राष्ट्रवाद में किसी पार्टी के मंच से समानता की बात नहीं होती है। किसी भी राजनीतिक पार्टी की गतिविधियों पर नजर डाली जा सकती है जिसमें हर पार्टी एक दुसरे के पीछे खड़ी है और एक दूसरे से आगे निकलने के लिए महज संसदीय गणित के फार्मूले खोज रही है।मतदाताओं के बीच प्रतिस्पर्द्धा भी काबिले गौर है। वहां भी वर्चस्व के साथ खड़ा होने की प्रतिपर्द्धा है।मतदाताओ में वर्चस्व स्थापित करने का वैचारिक रुझान दिखाई देता है। संसाधन और व्यैक्तिक छवि , जैसे भगवान की होती है, उसके आकर्षण के केन्द्र में होती है।
एकध्रुवीय राजनीति को अब हम महसूस करने लगे हैं। इसकी शुरुआत सोवियत संघ के विघटन से पहले ही हो चुकी थी। दरअसल राजनीतिक स्थितियां किसी देश व राष्ट्र की परिस्थितियों को अनुसार ही आकार नहीं लेती है बल्कि वैश्विक राजनीतिक परिस्थितियों की इसमें बड़ी भूमिका होती है। जिस समय हमारा देश ब्रिटिश सत्ता से मुक्त हुआ उसी के आसपास दुनिया के पचास से ज्यादा देश औपनिवेशिक सत्ता से मुक्त हुए। वह विचारधारा के स्तर पर एक तरफ औपनिवेशिक सत्ता से मुक्ति का दौर था तो दूसरी तरफ आर्थिक स्तर पर विचारधारात्मक रुप से कैसे नये मुक्त हुए देशों व राष्ट्रों को नियंत्रित करना है इस विचारधारा को ताकतवरों द्वारा नये सिरे से गढ़ने का समय भी था।
विचारधारा के स्तर पर परिवर्तन अपने से शुरु होता है। यदि व्यक्ति और परिवार खुद को एकध्रुवीयता की विचारधारा से मुक्त होने का संकल्प लें तो वह राजनीतिक स्तर पर बदलाव की शुरुआत होती है।वह खुद किसके विपक्ष के रुप में कब खड़ा दिखाई देता है, इस पर गौर करें तो संसदीय विपक्षी पार्टियों को भी समझने में मदद मिल सकती है।यदि कोई समानता में विश्वास करता दिखाई देता है लेकिन वह चेतना के स्तर पर पूंजीवादी है तो पूंजीवाद किसी न किसी रुप में बना रहेगा। अक्सर मैं एक उदाहरण देता हूं। दिल्ली विश्वविद्यालय में एम ए की कक्षा में मैंने एक सवाल पूछा कि समानता किसको अच्छी लगती है। सबने हाथ उठाय़ा। सबको समानता सुनने में अच्छा लगता है। लेकिन जब दूसरा सवाल पूछा कि कौन कोन सबसे ज्यादा पैसे कमाना चाहता है तो उसके समर्थन में भी लगभग सभी हाथ खड़े हो गए। ज्यादा से ज्यादा पैसे कमाने की चाहत चेतना में बैठी हुई है तो समानता कैसे बहाल हो सकती है।
संसदीय पार्टियां चुनावी प्रतिस्पर्द्धा के लिए तो मतदाताओं को उत्तेजित करती है लेकिन विचारधारात्मक स्तर पर मतदाताओं में एकरुपता भी पैदा करती है।एकरुपता के उस आयाम को समझें बिना राजनीति को बहुध्रुवीय नहीं बनाया जा सकता है। बहुदलीय भिन्नता का पर्यायवाची नहीं है। एकरुपता के लिए बहुदलीय प्रतिस्पर्द्धा भी होती है। समानता की राजनीति के विरूद्ध संसदीय पार्टियों में विचारधारात्मक स्तर पर एकता है।विपक्ष विचारधारा का नहीं है वह सरकार को चलाने के तौर तरीकों का विपक्ष हैं। वह बेईमानी के खिलाफ ईमानदारी से शासन व्यवस्था चलाने का पक्षधर है। वह कानून को अपनी व्याख्या के अनुसार चलाने का पक्षधर है इसीलिए वह विपक्ष है। लेकिन वह वर्चस्व की विचारधारा का विपक्ष नहीं है। फेसबुक पर बलिया के बलवंत यादव लिखते हैं कि हाकिम बदलेला, हुकुम ना बदलेला।