
लोकतन्त्र और संविधान की चिन्ता किसे है?
भारतीय लोकतन्त्र एवं संविधान की चिन्ताएँ लगातार बढ़ रही हैं, पर इसका निदान दिखाई नहीं पड़ता। विगत दस ग्यारह वर्ष से, जब से केन्द्र में भाजपा की सरकार बनी और नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बने, भारतीय लोकतन्त्र को कमजोर किया गया है और संविधान की अनदेखी की गयी है। प्रत्येक संस्था की स्वायत्तता नष्ट की जा चुकी है। देश की जनता दो हिस्सों में बँट चुकी है। एक हिस्सा प्रधान मन्त्री नरेन्द्र मोदी के भक्तों और समर्थकों का है, दूसरा उनके विरोधी और आलोचकों का। प्रशंसक और समर्थक शायद ही यह स्वीकारें कि लोकतन्त्र संकट में है और सवैधानिक मूल्यों पर ध्यान नहीं दिया जा रहा है। दूसरी ओर, लोकतान्त्रिक एवं संवैधानिक मूल्यों को समाप्त होते देखकर चिन्तित व्यक्ति हैं। वर्तमान सरकार एवं व्यवस्था के प्रति विरोध कम नहीं है पर न देश व्यापी कोई लहर है, न आन्दोलन। अठारहवीं लोक सभा (2024) के चुनाव में बहुमत (272) से बत्तीस सीट कम (240) पाने के बाद भी भाजपा 14 दलों के सहयोग से सत्ता में है और नरेन्द्र मोदी तीसरी बार प्रधानमन्त्री के पद पर विराजमान हैं। उन्हें भाजपा संसदीय दल ने अपना नेता 2024 में नहीं चुना। अठारहवीं लोकसभा के चुनाव परिणामों के बाद 7 जून 2024 को सेंट्रल हॉल में हुई एनडीए (राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन) की बैठक में नरेंद्र मोदी को सर्वसम्मति से नेता चुना गया था। भाजपा के सांसदों ने स्वतन्त्र रूप से अपनी बैठक में उन्हें सर्वसम्मति से अपना नेता नहीं चुना। उनके प्रधानमन्त्री बनने के बाद, 2014 से ही भारतीय लोकतन्त्र अधिक घायल और लहू-लुहान हुआ है। संविधान की उद्देशिका में ‘लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ का जो उल्लेख है, वह लोकतन्त्र राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक भी है। समाज के लोकतन्त्रात्मक होने का अर्थ, उसमें ‘न्याय, स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता’ की भावना का होना है। राजनीतिक और सामाजिक लोकतन्त्र विगत दस-ग्यारह वर्ष में कहीं अधिक घायल हुआ है, किया गया है।
हमारा संविधान केवल राजनीतिक ही नहीं, सामाजिक लोकतन्त्र का भी वचन देता है। डॉ. अम्बेडकर ने संविधान सभा में अपने समापन भाषण में सामाजिक लोकतन्त्र का अर्थ स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता को मान्यता देने वाली जीवन-पद्धति माना था। उन्होंने इन तीनों स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता को अलग-अलग न देखकर त्रिमूर्ति के रूप में देखा था, त्रिमूर्ति का एकीकरण कहा था। स्वतन्त्रता को समानता से अलग नहीं किया जा सकता, समानता को स्वतन्त्रता से पृथक नहीं किया जा सकता। इसी प्रकार स्वतन्त्रता और समानता को बन्धुत्व से विलग नहीं किया जा सकता। उनकी चिन्ता में केवल राजनीतिक लोकतन्त्र नहीं था। यदि राजनीतिक लोकतन्त्र का आधार सामाजिक लोकतन्त्र नहीं है, तो वह नष्ट हो जाएगा। ” क्या विगत दस वर्ष में राजनीतिक और सामाजिक लोकतन्त्र, दोनों को कमजोर नहीं किया है गया है? इसे कमजोर करने वाली शक्ति को लोकतन्त्र से कोई मतलब नहीं है। लोकतान्त्रिक पद्धति से निर्वाचित होने के बाद भी उसे सही अर्थों में राजनीतिक और सामाजिक लोकतन्त्र की चिन्ता नहीं है। देश की सामान्य जनता लोकतन्त्र और संविधान के महत्व से परिचित है। जो शिक्षित भद्रजन हैं, उनकी चिन्ता में भी लोकतन्त्र और संविधान नहीं है। भारतीय मध्य वर्ग का वह भाग, जो साधन सम्पन्न है, आर्थिक समस्याओं-चिन्ताओं से मुक्त है, उसे भी लोकतन्त्र और संविधान की कम चिन्ता है। राजनीतिक लोकतन्त्र की नींव है सामाजिक एवं आर्थिक लोकतन्त्र। आर्थिक न्याय का लक्ष्य आर्थिक लोकतन्त्र और कल्याणकारी राज्य की स्थापना था। लोकतन्त्र पर विचार करने वालों में से अब बहुत कम आर्थिक न्याय और सामाजिक न्याय पर विचार करते हैं।
संविधान ने हमें जो तीन अधिकार सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय के लिए दिये थे, उन अधिकारों को किसने छीना या भारतीय जनता को उनसे वंचित किया? क्या आज इन तीन अधिकारों का हनन नहीं हुआ है? संविधान की उद्देशिका में जिस स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता का जिक्र है, क्या उसे सुरक्षित एवं संरक्षित किया गया है? यह जवाबदेही सरकार की, राजनीतिक दलों की, नेताओं की थी। स्वतन्त्र और सभ्य जीवन जीने के लिए जो आवश्यक न्यूनतम अधिकार’ है, उसके बिना वास्तविक लोकतन्त्र स्थापित नहीं हो सकता।
स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता की समाप्ति लोकतन्त्र की समाप्ति है, संविधान में सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतन्त्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता की प्राप्ति का उल्लेख है। भारतीय नागरिकों को क्या यह सब प्राप्त है या उसे इन सबसे वंचित किया गया है? सामाजिक न्याय मूल अधिकार है, स्वतन्त्र भारत में भारतीय नागरिकों की स्वतन्त्रता, जिसमें अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता भी शामिल है, को कम किया गया है। सामाजिक संरचना में जो असमानताएँ विद्यमान थीं, उसे समाप्त करने का दायित्व सरकारों और राजनीतिक दलों का था, पर असमानताएँ दूर न कर और अधिक बढ़ायी गयीं। एक नागरिक और दूसरे नागरिक के बीच जाति, समुदाय और धर्म के आधार पर चुनाव जीतने और सत्ता प्राप्त करने के लिए भेद-विभेद उत्पन्न किये गये, बढ़ाये गये। लोकतन्त्र को खोखला भारतीय नागरिकों ने नहीं, राजनीतिक दलों ने किया। पहले यह खोखला नहीं किया गया था, यह कार्य आरएसएस, भाजपा और उसके नेताओं ने किया। उसने बन्धुता समाप्त की। भारत बहुभाषिक, बहुधार्मिक, बहु सांस्कृतिक देश है, इसलिए भारत जैसे देश में बन्धुता की भावना का होना, उसे विकसित करना विशेष आवश्यक है। स्वतन्त्रता, समानता और बन्धुता लोकतन्त्र के लिए आवश्यक है। संविधान की उद्देशिका के विपरीत क्या हमारे देश की सरकार कार्यरत नहीं है?
जिन लोगों ने विधि द्वारा स्थापित भारत के संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखने की शपथ ली है, उनमें से अधिसंख्य ने अपनी शपथ का निर्वाह नहीं किया है, सांसद हों या मन्त्री या उनसे भी ऊँचे पद पर प्रतिष्ठित विशिष्ट जन ही क्यों न हो? 2014 के बाद सारा परिदृश्य बदल दिया गया है। आरएसएस के एजेंडे में हिन्दू राष्ट्र का निर्माण है और भारतीय संविधान इसकी इजाजत नहीं देता। यह संविधान 26 नवम्बर 1949 को पारित और 26 जनवरी 1950 से प्रभावी है। जो भय या पक्षपात, अनुराग या द्वेष के बिना, सभी प्रकार के लोगों के प्रति संविधान और विधि के अनुसार कार्य करने की शपथ लेते हैं, उन्होंने ही संविधान की गरिमा नष्ट की है।
2014 के बाद भय और पक्षपात बढ़ा है, राग और द्वेष भी। भाजपा नेताओं और मंत्रियों ने संविधान की शपथ लेकर संविधान बदलने की बात कही है। आरएसएस इस भारतीय संविधान के पक्ष में नहीं है। उसके प्रचारक और स्वयं सेवक ही नहीं, उसकी राजनीतिक शाखा भी इस संविधान के पक्ष में नहीं है। 2014 के बाद ही लोकतन्त्र और संविधान बचाने और उस पर मंडराते खतरों की बात बार-बार कही गयी है। पिछले लोकसभा चुनाव (2024) में संविधान और लोकतन्त्र की रक्षा ‘इंडिया’ गठबन्धन के लिए प्रमुख थी। प्रबुद्ध नागरिकों का एक वर्ग यह कह सकता है कि भारत में लोकतन्त्र और संविधान खतरे में नहीं है। यह केवल विपक्ष की और कुछ लोगों की मनगढंत बातें हैं। आरएसएस में सर संघ चालक का चुनाव लोकतान्त्रिक रूप से नहीं होता, जिस संगठन में लोकतान्त्रिक मूल्यों की उपेक्षा हो, उससे लोकतन्त्र की रक्षा की बात करना गलत है। आज लोकतन्त्र के सभी स्तम्भों विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस को देखें। क्या लोकतान्त्रिक और संवैधानिक संस्थाओं की स्वायत्तता कायम है या उसका अपहरण किया जा चुका है, उसकी स्वतन्त्रता नष्ट की जा चुकी है। 2002 से जो विश्व प्रेस स्वतन्त्रता सूची (वर्ल्ड प्रेस फ्रीडम इंडेक्स) बन रही है, उसमें भारत 2014 में 140वें नम्बर पर था और 2024 में 180 देशों की सूची में उसका स्थान 159 है।
लोकतन्त्र और संविधान बचाने की बात बार-बार कही जा रही है, पर इसे बचाने वाली शक्तियों की चर्चा नहीं की जाती है, शाहीनबाग आन्दोलन में पहली बार भारत का संविधान हजारों महिलाओं के हाथों में आया और सबने समवेत स्वरों में संविधान की उद्देशिका का पाठ किया। सांसदों ने संसद में हाथ में संविधान लेकर शपथ ली है। देश में लोकतन्त्र और संविधान की बिगड़ती हालत को लेकर काफी कुछ लिखा-कहा जा रहा है, पर कोई सुनने को तैयार नहीं है। इन दोनों की रक्षा के लिए राष्ट्रीय स्तर पर न तो कोई पहल है, न आन्दोलन। हालात बहुत अधिक बिगड़ चुके हैं। पिछले वर्ष (6 अगस्त 2024) यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन प्रेस से सुमित गांगुली, दिनशा मिस्त्री और लेरी डायमण्ड की सम्पादित पुस्तक आई है ‘द ट्रबलिंग स्टेट ऑफ इंडियाज डेमोक्रेसी’। दो महीने बाद इसी वर्ष (2024) में जोया हसन की किताब प्रकाशित हुई- ‘डेमोक्रेसी ऑन ट्रायल : मेजॉरिटेरिएनिज्म एण्ड डीसेंट इन इंडिया’ (आकार बुक्स)। पुस्तकों, लेखों की कोई कमी नहीं हैं, जिनमें लोकतन्त्र और संविधान को लेकर गंभीर चिन्ताएँ हैं। क्या सचमुच राजनीतिक दलों में, विपक्षी दलों में भी, उनके नेताओं में, मंत्रियों में, प्रमुखों में चिन्ताएँ हैं या वे सब यह मानते हैं कि सब कुछ सही है, ठीक है। अब हमें यह सवाल करना होगा कि लोकतन्त्र और संविधान की चिन्ता किसे है? बेहतर है, पहले हम राजनीतिक दलों को देखें।
इस समय अठारहवीं लोकसभा में कुल 41 दलों के सांसद हैं और 7 निर्दलीय सांसद है। सबने संविधान के प्रति सच्ची श्रद्धा और निष्ठा रखने की बात कही है। केन्द्र में भाजपा और उसके समर्थक राजनीतिक दलों, राष्ट्रीय जनतान्त्रिक गठबन्धन (राजग) की सरकार है। अन्य दलों के सहयोग के बिना केन्द्र में भाजपा की सरकार नहीं बन सकती थी और न नरेन्द्र मोदी तीसरी बार प्रधानमन्त्री होते। भाजपा को 14 दलों ने अपने 53 सांसदों का साथ दिया और कुल 293 की संख्या से राजग की सरकार बनी, नरेन्द्र मोदी प्रधानमन्त्री बने। इन चौदह दलों के प्रमुखों – तेलुगु देशम पार्टी के चन्द्रबाबू नायडू, जदयू के नीतीश कुमार, हिन्दुस्तानी अवाम मोर्चा के जीतन राम मांझी, लोक जनशक्ति पार्टी रामविलास के चिराग पासवान, शिवसेना शिंदे के एकनाथ शिंदे, जनता दल सेकुलर के एच डी देवेगौड़ा, राष्ट्रीय लोक दल के जयंत चौधरी, जनसेना पार्टी के पवन कल्याण, अपना दल सोनेवाल की अनुप्रिया पटेल, असम गण परिषद के अतुल बोरा, यू पी पी लिबरल (असम) के प्रमोद बोरो, आजसू के सुदेश महतो, नेशनल काँग्रेस पार्टी पवार के अजित पवार और सिक्किम क्रान्तकारी मोर्चा के प्रेम सिंह तमांग से भारतीय लोकतन्त्र और संविधान से जुड़े कुछ बड़े सवाल अब पूछने की जरूरत है। चौदह राजनीतिक दलों के प्रमुख भारतीय लोकतन्त्र और संविधान की वर्तमान स्थिति पर क्या राय रखते हैं? जवाब केवल दो होंगे। सब कुछ ठीक है। समय पर चुनाव हो रहे हैं। सरकारें बन रही हैं और स्वतन्त्रता, समानता, बन्धुत्व सब कायम है। भाजपा को समर्थन देने के कुछ कारण अवश्य रहे होंगे। अभी तक शायद ही किसी ने इन 14 दलों के प्रमुखों से लोकतन्त्र और संविधान को लेकर किसी प्रकार का प्रश्न किया है और न प्रेस वार्ता की है। राजनीतिक दल लोकतन्त्र के सार भाग में एक है। मतदाताओं की इनमें आस्था बढ़ी है या घटी है?
लोकतन्त्र को मतदाताओं ने शक्ति और गति दी है। उन्होंने मतदान से बार-बार राजनीतिक दलों को एक संदेश भी दिया है, उन्हें बहुमत देकर या अल्पमत में लाकर, पर राजनीतिक दलों ने उनके ऐसे संदेशों को कभी नहीं समझा। उनके सामने कोई स्वस्थ और भरोसेमंद विकल्प नहीं रखा। लोकतन्त्र में राजनीतिक दल ही सबकुछ है क्योंकि वे ही चुनाव लड़कर सरकारें बनाते हैं, लैरी डायमण्ड एवं रिचर्ड ग्रंथर ने मिलकर इस शताब्दी के आरम्भ में ही एक पुस्तक सम्पादित की थी ‘पालिटिकल पार्टीज एंड डेमोक्रेसी’ (जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी प्रेस, 2001)। लोकतन्त्र के गर्भ से ही फासीवाद, अधिनायकवाद जन्म लेता है और तानाशाह सत्ता में आता है। अब हार्वर्ड यूनिवर्सिटी के राजनीतिक वैज्ञानिक स्टीवन लेवित्सकी और डेनियल जिबलैट की पुस्तक ‘हाउ डेमोक्रेसीज डाइ : व्हाट हिस्ट्री रिवील्स अबाउट आवर फ्यूचर’ (क्राउन, 16 जनवरी 2018) का हिन्दी अनुवाद हो चुका है। लोकतान्त्रिक पद्धति से निर्वाचित नेता क्रमश: लोकतान्त्रिक प्रकिया को भी नष्ट कर सकता है। दुनिया में इसके अनेक उदाहरण हैं। हिटलर को 1932 के चुनाव में सफलता नहीं मिली थी, वह जर्मन सैन्य नेता और राजनेता पॉल वॉन हिंडनवर्ग से हार गया था। जुलाई, 1932 में नाजी पार्टी रैहस्टाग (जर्मनी की संसद का निचला सदन) में सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, पूर्ण बहुमत से कम। पारम्परिक रूप से रैहस्टाग में सबसे अधिक सीटें प्राप्त करने वाले दल के नेता को ही चांसलर नियुक्त किया जाता था। राष्ट्रपति वान हिंडनबर्ग हिटलर को नियुक्त करने के पक्ष में नहीं थे, पर बाद में उन्होंने सहमति दी और 30 जनवरी 1933 को औपचारिक रूप से एडोल्फ हिटलर को जर्मनी का नया चांसलर नियुक्त किया गया। रैहस्टाग में आग लगाये जाने के बाद हिटलर का रास्ता साफ हो गया। यहाँ हिटलर की चर्चा केवल इसलिए कि तानाशाह भी लोकतन्त्र का लबादा ओढ़ता है।
दुनिया के लगभग 167 देशों में किसी-न-किसी प्रकार का लोकतन्त्र है, पर भारत की स्थिति अन्य सभी देशों से भिन्न है। यह विश्व का सबसे बड़ा लोकतान्त्रिक देश है, इसलिए यहाँ लोकतान्त्रिक संस्थाओं एवं मूल्यों का विघटन किसी भी सचेत भारतीय नागरिक के लिए चिन्ता का विषय है, अभी लोकतन्त्र के बाजार मॉडल (मार्केट मॉडल) का उल्लेख किया जाता है। अमेरिकी अर्थशास्त्री एंथोनी डाउंस एवं ऑस्ट्रियन राजनीतिक अर्थशास्त्री शुम्पीटर ने इस पद (टर्म) ‘मार्केट मॉडल’ को जन्म दिया। कहा जाता है कि दुनिया के अनेक लोकतान्त्रिक देश सही अर्थों में लोकतान्त्रिक नहीं हैं। अमेरिकी लोकतन्त्र को बहुत पहले ही ‘कॉरपोरेटोकेसी’ कहा गया था। जो राजनीतिक दल कॉरपोरेट से चंदा लेकर चुनाव लड़ता है, उसके लिए कॉरपोरेट प्रमुख है। भारतीय लोकतन्त्र को कॉरपोरेट तन्त्र की ओर उन्मुखता भारतीय लोकतन्त्र के लिए घातक है। अमेरिका में लोकतन्त्र पर मंडराते खतरों की सही पहचान बहुत पहले कर ली गयी थी। प्रोफेसर विलियम ई. हडसन की पुस्तक ‘अमेरिकन डेमोक्रेसी इन पेरिल : एट चैलेंजेज टू अमेरिकन फ्यूचर’ के अब तक नौ संस्करण आ चुके हैं। नरेन्द्र मोदी के प्रधानमन्त्री बनने के बाद भारतीय लोकतन्त्र पर समाज वैज्ञानिकों एवं बुद्धिजीवियों का ध्यान अधिक गया। विगत दस वर्ष में लगभग दस पुस्तकें प्रकाशित हुई। यह तर्क और साक्ष्य देकर कि दुनिया भर में अभी लोकतन्त्र पर खतरा है और सत्तावाद फैल रहा है, हम चुप और शान्त नहीं रह सकते। निश्चित रूप से अभी हम भारत को चीन, ईरान, रूस, सऊदी अरब और वेनेजुएला जैसे देशों की पंक्ति में नहीं रख सकते, जिस पर विचार लैरी डायमण्ड, मरे एफ प्लेटनर और क्रिस्टोफर वाकर ने ऑथोरिटरियनिज्म गोज ग्लोबल : द चैलेंज टू डेमोक्रेसी’ (जॉन्स हॉपकिन्स यूनिवर्सिटी प्रेस, 15 अप्रैल 2016) में किया है। कई विचारकों एवं विद्वानों का यह मत है कि पूरी दुनिया एक लोकतान्त्रिक अपगमन (रिसेशन) की ओर उन्मुख है और एक वैश्विक सत्तावाद हमें दिखाई दे रहा है।
12 जनवरी 2018 को जब सुप्रीम कोर्ट के चार वरिष्ठ जजों ने प्रेस कॉफ्रेंस कर कोर्ट की असलियत सामने रखी और देशवासियों को सावधान किया, आगाह किया, लोकतन्त्र के सम्बन्ध में, उस समय से लेकर अब तक के सात वर्षों में हमने क्या किया? क्या सुप्रीम कोर्ट ने भी उसके बाद अपने वरिष्ठतम साथियों से कुछ सीखा, आज जे चेलमेश्वर को कितने लोग जानते हैं? देश के राजनीतिक दलों और उनके नेताओं पर लोकतन्त्र और संविधान की रक्षा की जिम्मेदारी है। अब यह वक्त है कि हम काँग्रेस के मल्लिकार्जुन खडगे, समाजवादी पार्टी के अखिलेश यादव, तृणमूल काँग्रेस की ममता बनर्जी, द्रविड़ मुनेत्र कड़गम (द्रमुक) के एम. के. स्टालिन, शिवसेना उद्धव बाला साहब ठाकरे दल के उद्धव ठाकरे, राष्ट्रवादी काँग्रेस पार्टी के शरद पवार, युवजन श्रमिक रायथू काँग्रेस पार्टी के वाई एस जगनमोहन रेड्डी, राष्ट्रीय जनता दल के तेजस्वी यादव, भाकपा माकपा के नेता और भाकपा माले के दीपंकर भट्टाचार्य, आम आदमी पार्टी के अरविन्द केजरीवाल, झारखण्ड मुक्ति मोर्चा के हेमंत सोरेन, नेशनल कांफ्रेंस के फारुख अब्दुल्ला, विदुथलाई चिरुथिगल काची के थोल थिरुमावलवन, यूनाइटेड पीपुल्स पार्टी लिबरल (असम) के प्रमोद बोरो, केरल काँग्रेस के पी. जे. जोसेफ, रिवोल्यूशनरी सोशलिस्ट पार्टी के मनोज भट्टाचार्य, वाइस ऑफ द पीपुल्स पार्टी (मेघालय) के अर्देन्ट मिलर बसियावमोइत, जोरम पीपुल्स मूवमेंट (जेड पी एम मिजोरम) के लाल होमा, शिरोमणि अकाली दल के सुखबीर सिंह बादल, राष्ट्रीय लोकतान्त्रिक पार्टी (राजस्थान) के हनुमान बेनीवाल, भारतीय आदिवासी पार्टी (राजस्थान) के राजकुमार रोत, एम डी एम के (तमिलनाडु) के वाइको और आजाद समाज पार्टी कांशीराम के चन्द्रशेखर आज़ाद और ऑल इंडिया मजलिस ए इत्तेहादुल मुस्लिमीन के असदुद्दीन ओवैसी से पूछें कि आप सब जो 26 राजनीतिक दलों के प्रमुख हैं और भाजपा सहित 14 दलों के गठबन्धन एनडीए में नहीं हैं, लोकतन्त्र की बिगड़ती हालत और संवैधानिक मूल्यों को लेकर क्या सोचते हैं, कितने चिन्तित है? क्या केवल चुनाव के समय ही लोकतन्त्र और संविधान की चिन्ता रहती है, और बाद के दिनों में नहीं? क्या अब लोकतन्त्र बचाओ, संविधान बचाओ का कोई राष्ट्रीय मोर्चा नहीं बन सकता।
हम सब केवल बोलते है, लिखते हैं। जमीनी स्तर पर व्यापक और विशाल रूप में कुछ भी नहीं होता। इस लेख में लोकसभा में मौजूद जिन 41 दलों और उनके प्रमुखों का नामोल्लेख है, हमें यह जानना चाहिए कि लोकतन्त्र और संविधान-सम्बन्धी उनकी चिन्ताएँ और कार्य योजनाएँ क्या हैं?
अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता हमारा मौलिक अधिकार है और हमें मौलिक अधिकारों से वंचित किया जा रहा है। पुरस्कार वापसी के नौ वर्ष बीत चुके। 2015 में देश की अनेक भाषाओं के कवियों, लेखकों, फिल्मकारों आदि ने साहित्य अकादमी का पुरस्कार वापस किया था। बौद्धिक समाज के इस सामूहिक पहल से सरकार को भी परेशानी हुई। यह सक्रिय नहीं, निष्क्रिय प्रतिरोध था, जिसका ऐतिहासिक महत्व है। उस समय कलबुर्गी और अखलाक की हत्या से बौद्धिक समुदाय अधिक बेचैन और क्रोधित था। और आज? निश्चित रूप से 2015 के बाद स्थितियाँ कहीं अधिक खौफनाक हुई है, पर सामूहिक प्रतिरोध में कमी आई है। लोकतन्त्र और संविधान को लेकर चिन्तित लोगों की कमी नहीं है। काफी कुछ लिखा जा रहा है, कहा जा रहा है, पर सत्ता को, सरकार को इससे अधिक मतलब नहीं है। हमारा समय नोटबन्दी से मुंहबन्दी तक का है। सवालों का जवाब नहीं दिया जा रहा है, शिकायतें अनसुनी की जा रही हैं।न्यायपालिका और कार्यपालिका की दूरी समाप्त हो रही है। जज हिन्दू धर्म राष्ट्र के पक्ष में और मुसलमानों के विरुद्ध बोल रहे हैं। भय चारों ओर व्याप्त है। ढाई हजार वर्ष पहले थ्यूसीदाइदस ने भय को लोकतन्त्र के लिए नुकसानदायक माना था, लोकतन्त्र में भय के लिए कोई स्थान नहीं माना था। सर संघ प्रमुख मोहन भागवत ने पिछले दिनों राम मंदिर प्रतिष्ठा दिवस को भारत की सच्ची स्वतन्त्रता का दिन कहा है। उनके अनुसार 22 जनवरी 2024 को देश को असली आज़ादी मिली है। प्रधानमन्त्री नरेन्द्र मोदी ने इस दिन को नये कालचक्र की शुरुआत कहा है- ‘यह कैलेंडर पर लिखी तारीख नहीं, यह नये कालचक्र का उद्गम है’।
भारतीय लोकतन्त्र और भारतीय संविधान हिन्दू राष्ट्र के निर्माण की इजाजत नहीं देता। आज विधायिका, कार्यपालिका, न्यायपालिका और प्रेस क्या सचमुच हिन्दू राष्ट्र के विरोधी हैं? राजनीतिक दलों के लिए सब कुछ चुनाव है, वे चुनाव के बाहर कुछ नहीं करते। भारतीय जनता का आह्वान नहीं करते। बेरोजगार युवकों के सामने उनका अपना भविष्य है। राजनीतिक दलों का ध्यान 2026 में 5 राज्यों – पश्चिम बंगाल, असम, पुडुचेरी, तमिलनाडु और केरल के चुनाव, 2027 में 6 राज्यों उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गुजरात, पंजाब, गोवा और मणिपुर के चुनाव, 2028 में 10 राज्यों – हिमाचल प्रदेश, मेघालय, नगालैंड, त्रिपुरा, कर्नाटक, तेलंगाना, मध्य प्रदेश, मिजोरम, छत्तीसगढ़, राजस्थान के चुनावों और 2029 में लोकसभा चुनाव पर होगा। हकीकत यह है कि चुनाव में भाजपा से कोई जीत नहीं सकता। आज इंडिया गठबन्धन की क्या हालत है? चुनाव आयोग ने अपनी स्वतन्त्रता, स्वायत्तता, निष्पक्षता समाप्त कर दी है। और न्यायपालिका? स्वतन्त्र न्यायपालिका ही भारतीय संविधान की रक्षा कर सकती है, उसे संभाल सकती है, कायम रख सकती है। वह भारतीय संविधान की रक्षक है, ‘गार्जियन’ है। संविधान की वह अंतिम व्याख्याकार भी है। न्यायपालिका पर लगातार सवाल उठ रहे हैं। सब की तफसील में इस लेख में जाना संभव नहीं है। राम मंदिर पर, 370 पर सुप्रीम कोर्ट का फैसला न्यायसम्मत, विधिसम्मत नहीं था। न्यायपालिका में आस्था के लिए जगह नहीं है। दूसरी ओर अब चुनाव मखौल बनकर रह गया है। मतदाताओं की संख्या 20-25 दिनों के भीतर 80-85 लाख बढ़ जाती है। हिन्दुत्व की राजनीति लोकतन्त्र और संविधान विरोधी है। हिन्दुत्व की आँधी में फँसे और बहते लोगों, समुदायों, दलों को यह पता नहीं है कि वे कितना बड़ा नुकसान कर रहे हैं। प्रायः सभी प्रमुख पदों की गरिमा समाप्त कर दी गयी है। मुख्य चुनाव आयुक्त टी. एन. शेषन भी थे, पर राजीव कुमार ने अपने कार्यकाल में जो कार्य किये हैं, वे सब इतिहास के पन्नों में सुरक्षित रहेंगे। चुनाव आयोग ने विपक्ष की शिकायतें नहीं सुनी। अब चुनाव आयुक्त की नियुक्ति सरकार कर रही है। इस स्थिति में सरकार के गलत कार्यो पर क्या चुनाव आयोग सवाल करेगा, आपत्ति दर्ज करेगा? तीन लोगों की कमिटी में पूर्व मुख्य न्यायाधीश चन्द्रचूड ने मुख्य न्यायाधीश के रहने की बात कही थी, पर सरकार ने कानून बनाकर चुनाव आयुक्त और मुख्य चुनाव आयुक्त की नियुक्ति से मुख्य न्यायाधीश को बाहर कर दिया। फिर बच क्या जाता है?
अंत में फिर वही सवाल! लोकतन्त्र और संविधान की चिन्ता किसे है? जिन्हें है, वे लिखने-बोलने के सिवा और क्या कर रहे हैं? क्या इतने से ही लोकतन्त्र और संविधान की रक्षा हो जाएगी? अगर नहीं तो- ‘ आओ विचारें आज मिलकर ये समस्याएँ सभी’।