सेहत

चिकित्सा का मानवीय चेहरा

 

बीमारी को हम अक्सर शरीर में होने वाली किसी गड़बड़ी, संक्रमण या अस्वस्थता के रूप में समझते हैं। जब कोई व्यक्ति बीमार होता है, तो हमारा पहला क़दम होता है कि हम जाँच करवाएँ, खून की रिपोर्ट देखें, एक्स-रे या एमआरआई जैसे टेस्ट करवाएँ और फिर डॉक्टर से दवा या इलाज लें। यह तरीक़ा स्वाभाविक लगता है, क्योंकि आधुनिक चिकित्सा विज्ञान ने शरीर की रचना और कार्यप्रणाली को बहुत गहराई से समझ लिया है। हालाँकि, बीमारी को सिर्फ शरीर की समस्या मान लेने से उस इंसान के पूरे अनुभव को अनदेखा किया जा सकता है। बीमारी के कारण न सिर्फ शरीर पर, बल्कि मन, भावनाओं और रिश्तों पर भी असर पड़ता है। जब हम स्वस्थ होते हैं, तो अपने शरीर को लेकर सजग नहीं रहते, लेकिन ज्योंही हम बीमार पड़ते हैं, हमारा ध्यान उसी तकलीफ या थकान पर टिक जाता है।

पश्चिमी चिकित्सा के विकास में 17वीं शताब्दी के दार्शनिक देकार्त की महत्वपूर्ण भूमिका रही है। उन्होंने मन और शरीर को अलग-अलग माना, शरीर को एक मशीन की तरह समझा, जिसे भौतिक और रसायनिक नियमों के आधार पर चलना है, जबकि मन को सोचने-समझने वाला स्वतंत्र आयाम बताया। इस विचार ने चिकित्सा को शरीर पर ध्यान देने के लिए प्रेरित किया, जिससे चिकित्सा ने बेशक बड़ी तरक़्क़ी की- ऑपरेशनों के जरिये शरीर के अंग बदलना, नयी दवाइयों से कीटाणुओं को मारना, जटिल बीमारियों का पता लगाना सब संभव हो पाया। लेकिन इसी मॉडल की वजह से भावनात्मक, मनोवैज्ञानिक और सामाजिक पहलू कई बार पीछे छूट जाते हैं। मरीज की लैब रिपोर्ट या कुछ मिनटों की बातचीत में डॉक्टर बीमारी की दवा लिख देते हैं, पर मरीज के भीतर चल रही उथल-पुथल पर ध्यान देना संभव नहीं हो पाता।

अस्तित्ववादी दर्शन में बीमारी को इंसान के समूचे अस्तित्व को प्रभावित करने वाली स्थिति के रूप में देखा जाता है। मॉरिस मर्लो-पोंटी ने कहा कि हम सिर्फ शरीर “रखते” नहीं, बल्कि हम शरीर हैं। दुनिया को हम अपने शरीर के जरिए ही देखते और महसूस करते हैं। जब शरीर अस्वस्थ होता है, तो रोजमर्रा की गतिविधियों में रुकावट आती है और मन भी बेचैन हो जाता है। इसीलिए अगर किसी को घुटनों में दर्द हो, तो उसे हर क़दम पर सावधान रहना पड़ता है और यह चिंतन भी सताता रहता है कि कहीं ज़्यादा तकलीफ न हो जाए। यह चिंता और दिक़्क़त केवल जैविक नहीं होती; उसमें मनोवैज्ञानिक और सामाजिक डर भी मिल जाते हैं, जैसे दूसरों पर निर्भरता या काम में मुश्किल आना।

बीमारी को समझने के लिए रोग (डिजीज) और बीमारी (इलनेस) के बीच अंतर करना मददगार होता है। रोग वह जैविक अवस्था है, जिसे डॉक्टर जाँच कर परिभाषित करते हैं- जैसे मधुमेह, कैंसर या कोविड-19। दूसरी ओर, बीमारी मरीज का निजी अनुभव है, जिसमें उसके डर, तनाव, सामाजिक और आर्थिक समस्याएँ, रिश्तों की उलझनें सब शामिल होती हैं। उदाहरण के लिए, किसी को कोविड-19 हो जाए, तो डॉक्टर बुखार, ऑक्सीजन स्तर और वायरस की मौजूदगी की बात करेंगे। लेकिन मरीज के लिए यह महज इन लक्षणों तक सीमित नहीं है; उसे अकेलेपन का डर, परिवार को संक्रमित कर देने की चिंता, नौकरी का संकट या भविष्य की अनिश्चितता भी महसूस हो सकती है। ये तमाम भावनात्मक पहलू रिपोर्टों में दर्ज नहीं होते, पर मरीज की तकलीफ का बड़ा हिस्सा होते हैं।

अस्तित्ववादी दार्शनिक जाँ-पॉल सार्त्र ने चेतना को हमेशा “मेरी चेतना” कहकर रेखांकित किया। हर इंसान अपने व्यक्तिगत दृष्टिकोण से दुनिया को देखता है, इसलिए बीमारी भी सबके लिए अलग तरह का अनुभव हो सकती है। एक ही रोग के दो मरीज अपनी-अपनी परिस्थितियों की वजह से इसे भिन्न तरीके से महसूस कर सकते हैं- किसी को सामाजिक बहिष्कार का डर होगा, तो किसी को अपने भविष्य के सपने टूटने का दुख। मर्लो-पोंटी के “जीवित शरीर” के विचार से समझें, तो हमारा शरीर दो रूपों में मौजूद है- एक जिसे बाहर से मापा-देखा जा सकता है, और दूसरा जिसे हम अंदर से जीते हैं। बीमार पड़ने पर यही शरीर अचानक हमारी चेतना के केंद्र में आ जाता है। माइग्रेन हो, तो साधारण रोशनी भी चुभने लगती है। गठिया हो, तो सीढ़ियों की चढ़ाई पहाड़ चढ़ने जैसी लगने लगती है। शरीर की यह बदली हुई स्थिति हमारे मन को भी निरन्तर जागरूक बनाए रखती है कि हम बीमार हैं।

हावी कैरेल ने बीमारी को एक बड़े व्यवधान की तरह देखा है, जिसमें जीवन की निरन्तरता टूटती है और शरीर का पारदर्शी होना समाप्त हो जाता है। अब हम शरीर के हर कष्ट को महसूस करते हैं, और सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि शरीर पर भरोसा भी कम होने लगता है। कभी-कभी हमें लगता है कि हमारा शरीर किसी भी पल धोखा दे सकता है, हम सामान्य काम करने से डरने लगते हैं। बीमार होने पर कई लोगों को अपने भविष्य का डर सताता है—क्या पुरानी जिन्दगी दोबारा मिल पाएगी? क्या हमारे रिश्ते या हमारी नौकरी सुरक्षित है? इन सवालों से पैदा हुआ तनाव चिकित्सकीय आँकड़ों में नहीं दिखता, पर इंसान की तकलीफ को गहरा बना देता है।

गंभीर या लाइलाज बीमारियों में यह अस्तित्ववादी संकट और भी बढ़ जाता है। मार्टिन हाइडेगर के अनुसार, हम समयबद्ध प्राणी हैं, जो हमेशा आगे की ओर देख कर जीते हैं। किंतु अगर कोई बीमारी हमारे भविष्य को छोटा कर दे, तो यह समयबद्धता हमारे सामने विकट चुनौती बनकर खड़ी हो जाती है। बहुत से लोग अपने जीवन को नये सिरे से परखने लगते हैं- क्या वह सपने पूरे कर पाएँगे? क्या रिश्तों में कोई अनकही बात कहनी रह गयी है? किसी के लिए यह खोज उन्हें आध्यात्मिक रास्तों पर ले जाती है, किसी के लिए रचनात्मक कामों में, तो कोई गहरे अवसाद में भी जा सकता है। यह सब अस्तित्ववादी अनुभव के आयाम हैं, जिन्हें डॉक्टर की रिपोर्ट में जगह नहीं मिलती, फिर भी वे बेहद महत्त्वपूर्ण हैं।

आर्थर फ्रैंक ने बीमारी के अनुभव को समझने के लिए तीन तरह की कहानियाँ बतायी हैं। पहली “कैओस नैरेटिव,” जिसमें सब कुछ बिगड़ा हुआ और डरावना लगता है, कोई उम्मीद नजर नहीं आती। दूसरी “क्वेस्ट नैरेटिव,” जिसमें इंसान बीमारी से जूझते हुए जीवन में नया अर्थ ढूँढ़ता है। तीसरी “रेस्टिट्यूशन नैरेटिव,” जिसमें उसे लगता है कि वह फिर से सब ठीक करके पुरानी स्थिति में लौट जाएगा। लाइलाज बीमारियों में अंतिम वाली कहानी अक्सर ढह जाती है, और इंसान को अपने जीवन की नींव नये सिरे से तैयार करनी पड़ती है। ये कहानियाँ सिर्फ मन का खेल नहीं, बल्कि अस्तित्ववादी चुनौतियों से निपटने के तरीके भी हैं।

इन अनुभवों को समझने के लिए चिकित्सा में “मेडिकल ह्यूमैनिटीज” नाम का नया क्षेत्र उभरा है। इसमें साहित्य, कला, इतिहास, दर्शन और सामाजिक विज्ञानों की मदद ली जाती है, ताकि भविष्य के डॉक्टर यह जान पाएँ कि मरीज सिर्फ एक “केस” नहीं, बल्कि एक इंसान है, जिसकी अपनी कहानी, भावना और सामाजिक संदर्भ है। ऐसा होने पर डॉक्टर मरीज की बात ध्यान से सुनते हैं, उसकी चिंताओं और डर को समझते हैं। यह रुझान न सिर्फ मरीज की मदद करता है, बल्कि डॉक्टर को भी संतुष्टि देता है कि वह इंसान के समग्र दुख को कम करने में मदद कर रहा है, न कि केवल शरीर के एक हिस्से की मरम्मत भर कर रहा है।

बीमारी को सिर्फ दवाइयों और सर्जरी से जोड़कर देखना कई बार अधूरा साबित होता है। दवा और ऑपरेशन जरूरी हैं, लेकिन उतना ही जरूरी है मरीज के मन और भावनाओं की देखभाल। यदि कोई कैंसर मरीज कीमोथेरेपी तो ले रहा है, पर डर और तनाव से जूझ रहा है, तो उसे काउंसलिंग या किसी सहायक समूह की जरूरत पड़ सकती है। परिवार की भूमिका भी महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि कई बार इलाज लंबा चलता है और आर्थिक-सामाजिक दबाव बढ़ता है। रोग शरीर का है, पर उसका असर रिश्तों और रोजमर्रा की जिन्दगी पर भी पड़ता है।

आधुनिक चिकित्सा शिक्षा में नैरेटिव मेडिसिन और मेडिकल ह्यूमैनिटीज को पढ़ाए जाने की माँग उठ रही है, ताकि नयी पीढ़ी के डॉक्टर अपने मरीज़ों की पीड़ा, उनके डर और उनकी कहानी सुनकर अधिक संवेदनशील तरीके से इलाज करें। इससे इलाज के परिणाम बेहतर हो सकते हैं, क्योंकि मरीज को भावनात्मक सहयोग भी महसूस होता है। हालाँकि, अस्पतालों में समय की कमी, मरीज़ों की भीड़ और आर्थिक दबाव जैसी चुनौतियाँ हैं, पर धीरे-धीरे कुछ स्थानों पर यह बदलाव हो भी रहा है।

अंत में यह समझना जरूरी है कि बीमारी महज जैविक घटना नहीं है; यह इंसान के अस्तित्व को झकझोर देने वाला अनुभव भी हो सकता है। यह शरीर, मन और सामाजिक परिस्थितियों का मिला-जुला असर है। कैर्टेसियन द्वैतवाद ने भले ही शरीर और मन को अलग-अलग करके देखा था, पर अब हमें यह एहसास हो रहा है कि इस द्वैत ने बीमारी के कई मानवीय पहलुओं को अनदेखा कर दिया। बीमारी के दौरान हम सिर्फ एक शरीर की टूट-फूट ही नहीं झेलते, बल्कि हम डर, अनिश्चितता, आत्मविश्वास में कमी और कभी-कभी अस्तित्व के बुनियादी प्रश्नों का सामना करते हैं। किसी भी समग्र और मानवीय इलाज के लिए जरूरी है कि डॉक्टर, परिवार और समाज मिलकर मरीज की पूरी परिस्थिति को समझें, उसकी कहानी सुनें और उसे यह भरोसा दिलाएँ कि वह अकेला नहीं है। इस तरह हम बीमारी के जटिल अनुभव में थोड़ी राहत और आशा ला सकते हैं, इंसान को फिर से जीने का हौसला दे सकते हैं, और चिकित्सा को एक अधिक मानवीय स्वरूप प्रदान कर सकते हैं

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सौरभ टोडरिया

लेखक आईआईटी हैदराबाद, मानविकी केन्द्र में दर्शनशास्त्र के प्राध्यापक हैं। सम्पर्क +917248585101, saurabhtodariya.jnu@gmail.com
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