जिन्दगी में ‘ईब आले ऊ’ के मायने
‘ईब आले ऊ’ विचित्र शब्द लग सकते हैं। किसी शब्दकोश में आपको ये शब्द नहीं मिलेंगे क्योंकि ये जीवन की विसंगतियों और विडम्बनाओं से निकली वे आवाज़ें हैं जिन्हें हमेशा से नजरन्दाज़ किया जाता रहा है। हम बात कर रहे हैं फ़िल्म ‘ईब आले ऊ’ की, फिल्म की टैग लाइन के अनुसार “थोड़ी आदमी की कहानी, थोड़ी बंदर की कहानी और थोड़ी अंदर की कहानी” है। फ़िल्म की पृष्ठभूमि में है- लुटियंस दिल्ली, जिसमें देश की प्रतिष्ठित सरकारी इमारतें जैसे राष्ट्रपति भवन, इंडिया गेट, रेल भवन, उद्योग भवन, वायु भवन, विज्ञान भवन, निर्माण भवन आदि हैं और जिनके चारों ओर बंदरों की फ़ौजों ने कब्ज़ा किया हुआ है,जो इन इमारतों को नुकसान पहुँचाते हैं, फाइलों को फाड़ देते हैं आते-जाते अफसरों को तंग करते हैं। इन्हें कैसे भगाया जाए! फ़िल्म इस समस्या से कहीं अधिक इन्हें भगाने वाले उन बेरोजगार युवकों पर केन्द्रित है, जिनके लिए यहाँ नौकरी करना अंतिम विकल्प है, जो भीख माँगने से कहीं बेहतर है।
बंदरों को भगाने के लिए पहले यहाँ लंगूर बाँधे जाते थे, लेकिन अब लंगूर पालना प्रतिबंधित है इसलिए सरकार ने एक संविदात्मक नौकरी गढ़ी, जिसमें एक ‘ठेकेदार’ दिल्ली के निम्नतर वर्ग या स्लमों से आने वाले बेरोजगार युवकों को काम पर रखता है ताकि सरकारी बाबू बिना किसी परेशानी के काम कर सकें और सरकारी इमारतों को भी नुकसान से बचाया जा सके। फ़िल्म हमें उच्चतम वर्ग और निम्नतर वर्ग की खाई में ले जाती है। अपनी बहन-जीजा के यहाँ अपनी किस्मत आजमाने के लिए अंजनी नामक युवक नौकरी की तलाश में है। यह उसका भाग्य कहें या दुर्भाग्य उसे शीघ्र ही इस सरकारी महकमे में ‘बंदर भगाने वाला’ कर्मचारी की संविदात्मक नौकरी मिल जाती है, मात्र ग्याहरवीं पास अंजनी के पास कोई अन्य योग्यता या दक्षता अथवा कौशल भी नहीं। उसकी दीदी अपनी डॉक्टरनी से गर्व के साथ कहती कि उसके भाई की सरकारी नौकरी है, अंजनी चिढ़ कर कहता है ‘सरकारी नहीं, सरकारी जैसी’ क्योंकि सरकारी नौकरी में जो सम्मान मिलना चाहिए उससे विपरीत इन्हें हमेशा अपमान, दुत्कार,धमकियाँ मिलती रहती हैं।
यह कोरियन फिल्म ‘पैरासाइट’ (परजीवी) की तरह ब्लैक कॉमेडी है। एक वर्ग दूसरे वर्ग का शोषण कर रहा है। फ़िल्म सामाजिक असमानता, पूँजीवाद और कम से कम संसाधनों के बीच संघर्ष करते जीवट लोगों की विसंगतियों को सामने लाती है। इसके साथ ही कई विरोधाभासों को भी रेखांकित करती है। जहाँ एक ओर अंजनी को अपनी नौकरी के तहत इन दुष्ट बंदरों को भगाना है तो वहीं दूसरी ओर हमारी भारतीय संस्कृति में ये बंदर भगवान के भी प्रतीक हैं जिन्हें यहीं के सरकारी बाबू केले-चने आदि खिलाते हैं और अंजनी के मना करने पर उसे ही धमकी देते हैं। निर्देशक प्रतीक वत्स और सिनेमैटोग्राफर सौम्या नंद शाही ने भी भारतीय समाज की विसंगतियों को, विरोधाभासों को बारीकी से पकड़ा है और बखूबी दर्शाया है – विशेषकर बंदरों के हाव-भाव, उनकी प्रतिक्रियाएँ पकड़ पाने में वे कामयाब रहे हैं। उनके दृश्य अभिनय के हिस्से की तरह प्रस्तुत कर कथानक में पिरोना वास्तव में शानदार है।
अंजनी का जीजा एम्यूज़मेंट पार्क में सुरक्षा गार्ड है। प्रतिदिन नए संघर्ष से शुरूआत करते हुए, सीमित साधनों में भी वह सहजता से अपना जीवनयापन कर रहा है। उसकी पत्नी गर्भवती है, फिल्म में जो एक आशा और उम्मीद का प्रतीक है; लेकिन इस उम्मीद को पल-पल तोड़ने वाले, हतोत्साहित करने वाले, जिसमें सरकारी डॉक्टरनी भी शामिल है, मिल जाते हैं। सरकारी अस्पतालों में गरीब मरीज़ों के साथ रूखा व्यवहार व बदतमीजी हुआ करती है। डॉक्टरनी अंजनी के जीजा को ताने देती है – ‘हीमोग्लोबिन लो है, बीपी लो है,… दवाई नहीं खाओगे तो बच्चा बेवकूफ पैदा होगा… बीवी का ख्याल रखना आता नहीं है, बच्चे पैदा करते जाते हैं…शर्म किया करो, जिम्मेदारी का एहसास है कि नहीं’! इसी तरह ठेकादार भी कहता है ‘बीबी पेट से है इसलिए तो शर्म कर रहा हूँ! जब पाल नहीं सकते तो पैदा क्यों करते हो’? जीजा सचमुच शर्म से गड़ जाता है।
वास्तव में ये ‘हाई सोसाइटी’ के वे लोग हैं जिनका इन गरीबों के जीवन में कोई प्रत्यक्ष योगदान नहीं है, जबकि इन गरीबों के बिना अमीरों का गुजारा नहीं। अंजनी और उसके जीजा जैसे लोग जो जिजीविषा के मारे हैं, हर हाल में संघर्ष कर रहे हैं, लेकिन पल-पल की प्रताड़ना, लताड़ना उन्हें हताश-निराश कर जाती है, मानो उन्हें जीने का कोई अधिकार ही नहीं। गुरूजी का बार-बार धमकाना कि ‘नौकरी मिल गई है, मन लगाकर काम कर… सुधर जा नहीं तो भीख माँगेगा दिल्ली की सड़कों पर’! वह उस गलती की हाथ जोड़कर माफ़ी माँगता है जो वास्तव में गलती नहीं, उसकी सूझ-बूझ ही है। कोरोना काल की ऐसी मार पड़ी है गरीबों पर कि उनका भविष्य ही अंधकार में चला गया। यदि अंजनी जैसों को आगे पढ़ने का मौका मिलता तो शायद यहाँ बंदरों के बीच न आना पड़ता। फ़िल्म हाशिये के लोगों की आवाज़ ही नहीं बनती बल्कि कई रूपकों के आधार पर समाज, धर्म, राजनीति सब पर व्यंग्य करती है। एक पुलिस वाली महिला अंजनी के लिए कहती है “ये ही गरीब है” तो उसका भाव है, कितने ही गरीब लोग हैं यहाँ! किस-किस को देखें हम? इस सहज से दिखने वाले जीवन के भीतर के अपमान, हताशा, निराशा, थकान को विविध दृश्यों के माध्यम से मार्मिकता प्रदान की गयी है। उनके छोटे-छोटे संघर्ष को दिखाया गया है, जहाँ सामान्यतः हमारी नज़र भी नहीं जाती।
फ़िल्म में बंदर महत्वपूर्ण पात्र हैं। ये बंदर कहीं भी डॉक्यूमेंट्री की फीलिंग नहीं देते। मनमर्जी के मालिक – ये बंदर- अफ़सरशाही के भी प्रतीक हैं। मुझे तो इसमें डार्विन का विकासवाद दिखता है, जिसका एक पक्ष यह नजर आया कि बंदर इंसान तो बन गया लेकिन उसने अभी तक सभ्यता का दामन नहीं थाम सका है। तभी विकसित मेट्रो सिटी आने पर भी अंजनी कहता है “कहाँ नरक में लाकर फेंक दिए हैं।” बड़ी-बड़ी बिल्डिंग, बड़े-बड़े पदों पर विराजमान पढ़े-लिखे लोग, कंक्रीट के इस जंगल में इंसान रुपी जानवर हैं, जो श्रमिक वर्ग को इंसान नहीं समझते। बार-बार उन पर एहसान जताया जाता है जो उनके भीतर असुरक्षा की भावना, भय जगाता है। पल-पल अपमान का सामना करते हुए वे अपने भीतर क्रोध दबाए जी रहे हैं। शहरों की असभ्यता, असंवेदनशीलता तथा अमानवीयता, अपने ही भारतीय प्रवासियों को हेय दृष्टि से देखने की प्रवृति का फ़िल्म विश्लेषण करती है। आशा-विश्वास के साथ आए इन अत्यंत मेहनती लोगों को ये असंवेदनशील शहरी मशीन की तरह ‘ट्रीट’ करते हैं – मशीन जो थकती नहीं, जिन्हें अपना दिमाग इस्तेमाल करने की इज़ाज़त नहीं। अंजनी अपनी सूझ-बूझ से जगह-जगह लंगूर के पोस्टर लगाता है,जो कारगर साबित हो रहा था लेकिन उसे नौकरी से निकाल दिया जाता है।
फ़िल्म हमें उन छोटी, गन्दी, संकरी गलियों में भी ले जाती है जहाँ अधिकतर मकानों के रंग जाने किस आशा में नीले रंग से रंगे है। नौकरी के सिलसिले में अंजनी पुरानी दिल्ली के पुराने बाजारों सदर बाज़ार, आज़ाद मार्किट आदि में जाता है। वह कुली बनने को तैयार है लेकिन वहाँ भी निराशा ही हाथ लगती है। वे बाज़ार जहाँ हम झाँके तक नहीं हैं, जो शायद सिनेमाई पर्दे पर कभी नहीं आये, फ़िल्म उन अनदेखी तस्वीरों को भी दिखाती है।
एक दृश्य में अंजनी और उसकी मित्र एक खबर पढ़ते हुए बात कर रहे हैं – ‘वन्य जीव संरक्षण अधिनियम’ के तहत अब बंदरों को बंदी बनाने पर रोक लगा दी गई है लेकिन किसी संजय पूनिया नामक व्यक्ति जिसके गाँव में बंदरों का कहर था, ने दहेज में लंगूर माँग लिया और लड़की वालों ने दे भी दिया तो बाद में उस पर केस कर दिया गया कि उसने बंदरों को बंदी बनाने का अपराध किया है। यहाँ मित्र प्रश्न करती है ‘संजय पूनिया ने दहेज माँगा इसके लिए उस पर कोई कार्यवाही नहीं हुई’ – जो हमारी विवाह संस्था और दहेज पर व्यंग्य है! एक अन्य दृश्य में यह मित्र उसके लिए कंप्यूटर पर उसके लिए नौकरी खोज रही है।
अंजनी कहता है ‘3 करोड़ नौकरी है दिल्ली में, दिल्ली आओ, आज दिल्ली में बैठे हैं, पूरे जहाँ-भर की नौकरी है ,पर मेरे लिए कोई नहीं’ क्योंकि उसके पास योग्यता नहीं, दूसरों के घर में कपड़ा-बर्तन जैसे काम कर नहीं सकता। तो मित्र कहती है- ‘गाड़ी चलाना आता है? खाना बनाना, कंप्यूटर चलाना, बिजली पानी का कोई काम आता है? तो अंजनी गुस्से में कहता है– ‘अरे नेता मत बनो… मित्र जब कहती है – नेता नहीं बन रहे हैं समझदारी की बात कर रहे हैं… तो अंजनी बिफर पड़ता है – अपना समझदारी अपने पास रखो हवा में मत उड़ो, चार किताब पढ़ कर हेड मास्टरनी समझ लिया खुद को।’ पितृसत्ता में पगी इस झुंझलाहट को आसानी से समझा जा सकता है लेकिन मित्र कहकर चली जाती है- तो खुद ढूँढो!
फ़िल्म कोरोना के बाद की सामाजिक आर्थिक स्थिति बताती है। अमीर-ग़रीब के बीच बढ़ती खाई को फ़िल्म सूक्ष्मता से दिखाती है। फ़िल्म ‘जाने भी दो यारों’ की तरह सामाजिक आर्थिक व्यवस्था पर व्यंग्य है तो राजनीति, धर्म, अंधविश्वास पर भी टिप्पणी करती है। कनॉट प्लेस के हनुमान मंदिर का दृश्य, जब अंजनी की दीदी एक पंडित से भविष्य पूछ रही है तो पंडित एक पंक्ति सुनाते हैं तो वह जवाब देती है-‘भगवान यह बोल रहे हैं कि करते रहो पूजा और ‘अच्छे दिन आएंगे’ लेकिन कहां कैसे? अच्छे दिन आ ही नहीं रहे हैं!’ फ़िल्म में महेंद्र का किरदार वास्तविक है, जिससे प्रेरित होकर यह फ़िल्म बनी है और निभाया भी महेंद्र ने ही है। महेंद्र की तो कई पुश्तें इस काम में लगी हुई थीं, जबकि अंजनी के लिए यह न केवल नया है बल्कि उसके भीतर यह काम न करने की अनिच्छा भी है। उसे लगता है कि उसे कोई और काम करना चाहिए लेकिन विवशता है, उसके पास कोई और काम नहीं है।
कुछ महत्वपूर्ण संवाद जो महेंद्र अंजनी को समझा रहा है ‘यह नौकरी खेल नहीं है बच्चों का, यहां तेल निकल जाता है अच्छे-अच्छों का… बंदर है तो डर तो लगेगा करेगा.. मारना नहीं है डराना ही है…यह दूर के ढोल सुहाने है जब बंदरों का सामना होगा ना तब देखना…हमें नौकरी भी करनी है इन बड़े अधिकारियों और पब्लिक का, इन सभी में तालमेल बिठाना है’…डरा न उनको आवाज क्यों नहीं बनाता? अपनी आवाज बनाकर भगा उनको…यह रायसिना रोड है यहाँ इन बंदरों का परचम है यहां तक कोर्ट भी यही बात कह चुका है कि यह बंदरों का इलाका है’- यह अफ़सरशाही तंत्र पर टिप्पणी है। जब वो गुलेल का इस्तेमाल करता है तो महेंद्र कहता है ‘ये केवल दिखाने के लिए दिया है।’ इसी तरह जीजा को भी तनख्वाह में 1500 रुपये बढ़ाए लेकिन हाथ में बन्दूक दे दी जिसे देखकर पत्नी डर रही है, अंजनी कहता है ‘हथियार दिया है तो चलेगा न’!
अमेरिका हथियार बना रहा है इसलिए बिक भी रहे हैं। लेकिन बंदूक है पॉवर है और पॉवर से आम इंसान हमेशा असहज रहता है – बंदूक के बोझ से उसकी हालत खराब हो गई है। कोई दो ढाई मिनट के सीन में जबकि ट्रेन गुज़र रही है कभी साईकल संभालता है कभी कम्बल। ट्रेन के इस पार और उस पार के कई दृश्य सामाजिक विभाजन की ओर संकेत करते हैं। एक दृश्य में अंजनी ने देखा है कि घरों के आगे मशीनी लंगूर वही आवाज़ें निकाल रहे हैं यानी जो कुछेक श्रमिकों के रोजगार बचें हैं, मशीन छीन लेने वाली हैं। ये भविष्य की ओर खतरनाक संकेत भी है। मानव किस तरह से मशीन में बदल रहा है या बदला जा रहा है! दोनों ही पक्ष डराने वाले हैं। मई 2022 की खबर है, दिल्ली से सटे नोएडा में ‘रोबोट रेस्टोरेंट’ है ‘येलो हाउस’ इसमें दो रोबोट ए आई के जरिए वेटर की तरह काम करते हैं। मालिक के अनुसार इन रोबॉट्स की मेंटेनेंस जीरो है, चार्ज करने में में मात्र ढाई घंटा लगता है और ये पूरा दिन काम करते हैं।
फ़िल्म का अंत अत्यंत दारुण है, देखकर अनुभव होता है- ‘जोरावरसिंह मारे भी जाए, और रोने भी न दे’ मानो किसी ने ज़ोरदार धक्का दिया हो, हम गिरते-गिरते बचे। देखकर तकलीफ होती है, दिल बैठ-सा जाता है,पर हम अपनी स्थिति पर संतोष करते हैं। जबकि इंसान जानवर बन चुका, तमाशा कर रहा है, धर्म और राजनीति मदारी की तरह इनके तमाशे पर फल-फूल रहे है। फिल्म के अंतिम भाग में अंजनी दशहरे की जुलूसनुमा झाँकियों से गुजर रहा है, जहाँ खाना बंट रहा है उस भीड़ में खाने के लिए वह भी संघर्ष कर रहा है। रोटी-रोटी का यही फ़र्क है कि अमीर को जब भूख लगे उसे मिल जाती है जबकि ग़रीब को जब उपलब्ध हो तभी भूख जागती है वरना वह भूख को दबाये-सुलाए रहता है। वह पत्तल में खाते हुए झाँकियाँ देख रहा है, तभी हनुमान का नृत्य होने लगता है। हनुमान को देखकर अंजनी के चेहरे पर भय फैलने लगता है वह उन्हीं विचित्र आवाज़ों ईब..आले..ओऊ को निकालने की कोशिश करता है, पर आवाज़ नहीं निकल रही चाह कर भी चिल्ला नहीं पा रहा। झाँकियों के लंगूरों की एक टोली अंजनी का मुँह काला कर उसे अपनी टोली में शामिल कर लेती है। अंजनी पहले घबराता है पर फिर उनके जैसा व्यवहार करने लगता है।
अब स्क्रीन पर अजीब हरकतें करते हुए उन्मत्त मनुष्य, बहरूपिये हैं जो देश में बेरोजगार युवकों के धार्मिक उन्माद की झाँकी-भर हैं। बिना कोई शब्द के अंजनी एक विचित्र उन्माद में (डरा हुआ नहीं) बुरी तरह नाच रहा है तो अन्य सभी उसे रहस्यमयी दृष्टि से देख रहे हैं – अब अंजनी विवेकहीन इंसान है। ‘अच्छे दिनों’ के इंतजार ने इंसान को लंगूर बना दिया। अंतिम दृश्य तक गीत-संगीत, आवाज़ें बंद हो जाती हैं। ‘आवाज़ें’ जिसका महत्व महेंद्र पहले बता चुका है कि ‘तू अपनी आवाज क्यों नहीं बनाता’ – आवाज नहीं बना पाना आवाज़ न उठाने की ओर संकेत है। महेंद्र की मौत ड्यूटी पर उस समय हो जाती है जब कुछ बन्दरों के उपद्रव मचाने पर वह एक बंदर को मार देता है और भीड़ गुस्से में आकर उसकी मॉब लिंचिंग कर देती है। एक कर्मचारी बहुत आसानी से कहता हुआ आगे बढ़ जाता है कि ‘महेंद्र को भीड़ ने मार दिया’ मानों कोई मच्छर मार दिया गया हो!
एक दृश्य में अंजनी को उसके साथी बंदरों के लिए बनाए गए ट्रैप-पिंजरे में कैद कर देते हैं। वह रोता है तो कहते हैं ‘पहले बंदर की तरह केला खाओ फिर गेट खोलेंगे’। बेचारा रोते-रोते केला खाता है लेकिन बाहर निकलते हुए केला इस भाव के साथ फेंक देता है कि अपमान की रोटी नहीं चाहिए! अंत में आपकी जानकारी के लिए बता दूँ कि जब बंदर भगाने की नौकरी पर गूगल बाबा ने बताया कि जी20 (2023) समिट में 20,000 रुपये सैलरी में एक ही परिवार को बंदर भगाने का काम मिला तो उसके सदस्य मंगलसिंह ने बताया कि पहले उसका परिवार बंदरों को भगाने के लिए लंगूर पालता था जो अब बैन है, सरकार ने लंगूरों से काम लेने पर पाबंदी लगा दी, तब से अब वे लंगूर की आवाज निकाल कर यह काम कर रहे हैं। ईब आले ऊ का सिलसिला थमा नहीं है।