सिनेमा

स्याह ब्लैक बोर्ड पर ‘चमकीला’

 

‘ब्लैक बोर्ड’ यानी समाज और समाज का एक ख़ास वर्ग जिसे जीवन की ‘रंगीनियाँ’ या कि खुशियाँ ‘चमकीला’ के गीतों में मिलती हैं। चमकीला ‘आज भी चमक रहा है’ सम्भवतः इम्तियाज भी जानते हैं कि ‘चमकीला’ ही वह कलाकार है जिसकी लोकप्रियता को ‘चमकीली पन्नी’ की तरह इस्तेमाल किया जा सकता है। इम्तियाज उसकी इसी लोकप्रिय छवि को भुना रहा है हालाँकि ‘भुनाया’ शब्द कहना ठीक नहीं होगा। असल में चमकीला जिस ‘ब्लैक बोर्ड’ पर आज भी चमक रहा है, इम्तियाज उस ‘ब्लैक बोर्ड’ की कहानी कह रहें है जो चमकीला के गीत सुनकर रंगीन होना चाहता है।

चमकीला के बहाने इम्तियाज कला-क्षेत्र के उस काले सच को भी दिखा रहें है जिसमें प्रतिस्पर्द्धा बढ़ने पर ईर्ष्या के वशीभूत षड्यन्त्र के तहत हत्याएँ की जाती रही हैं, ‘कला’ फिल्म से पता चला कि जगन का किरदार उस समय के वास्तविक गायक मदन से प्रेरित है जिसे मात्र 14 -15 वर्ष की कम उम्र में, उसकी बढ़ती लोकप्रियता देखकर उसके ही साथी गवैयों ने दूध में पारा देकर हत्या कर दी थी। एक साक्षात्कार में स्वर कोकिला लता मंगेशकर ने बताया था कि उन्हें भी धीमा जहर देकर मारने की कोशिश की गयी। स्थापित कलाकारों द्वारा नए कलाकारों को उभरने न देने के किस्से भी हम सुनते ही रहते हैं।

पंजाब में कला क्षेत्र में जातिगत भेदभाव पर फेसबुक मित्र सत्येन्द्र मट्टू ‘चमकीला’ जैसे कलाकारों की हत्या के सन्दर्भ में लिखतें है- “यहाँ (पंजाब) जातिवाद और गायकों की आपसी रंजिश भी एक बड़ा कारण रही थी। चमकीला आज से करीब 30 साल पहले भी अपने शीर्ष पर था और आज भी है। उसके गीतों में समाज का ताना-बाना भी है और आदमी औरत के सम्बन्धों पर गीत और मजाकिया प्रश्नोतरी भी है। उसने क्या गाया, इसे एक तरफ रखें तो ऐसे कलाकार विरले ही होते हैं”। मूसेवाला का भी आपसी रंजिश की वजह से कत्ल किया गया उनके अन्तिम गीत के बोल थे ‘उम्र दे हिसाब नाल दूना’ यानी इतनी कम उम्र में दुगनी शोहरत मिली। हमें गुलशन कुमार की हत्या भी याद है जिसने एच.एम.वी. जैसी कम्पनी को टक्कर दी थी, खूब पैसा और शोहरत और उसकी लोकप्रियता ही उसकी दुश्मन बन गयी। सुशांत सिंह की दर्दनाक मौत से कौन वाकिफ नहीं? फिल्म इंडस्ट्री का काला सच ‘चमकीला’ के सन्दर्भ में भी काला ही है।

इसमें पितृसत्ता में फल-फूल रही ओनर किलिंग’ के संकेत भी छिपे हुए हैं। चमकीला की साथी गायिका तथा दूसरी पत्नी अमरजोत (जो उससे ऊँची जाति की थी) भाई और पिता द्वारा होने वाले अपने आर्थिक शोषण और कैद-सी जिन्दगी से परेशान थी। क्योंकि भाई-पिता उसकी सारी कमाई लेकर उसे अपने हिसाब से रहने भी नहीं देते थे, उसका पिता कहता भी ‘लड़का कुँवारा है नज़र रखना’ जब उसे शक होता है वह चमकीला से अलग होने की बात करता है लेकिन अमरजोत चमकीला से शादी कर लेती है। ज़ाहिर है अब उसकी कमाई पर पति का पहला हक़ हो गया था। फिल्म का अन्त जिस गीत ‘विदा…करो’ से होता है वह ‘प्यासा’ तथा ‘कागज़ के फूल’ में कलाकारों की सोचनीय स्थिति को बयाँ करता है। उसके गीतों की लोकप्रियता पूरे पंजाब में बिना किसी भेदभाव के थी जो आज भी कायम है लेकिन कलाकारों में तो भेदभाव था।

चमकीला जिस लोकप्रिय और सीनियर गायिका के साथ गाना शुरू करता है जनता उसमें भी चमकीला ही को पसन्द किया करती थी। चमकीला गीत लिखता,धुन तैयार करता लेकिन फिर भी उसे बहुत कम पारिश्रमिक दिया जाता यहाँ तक कि जो लोग ख़ुशी और आनन्द से झूमते हुए पैसा लुटाया करते थे वह भी मैनेजर रख लिया करता था। उसने जब बराबर का पैसा माँगा तो उसे उसकी जाति के नाम पर दुत्कारा गया।तब एक पंथ दो काज करने वाला यह संवाद कहता है कि चमार हूँ भूखा तो नहीं मरूँगा यह वास्तव में आत्मविश्वास से लबरेज़ ‘कलाकार’ की आवाज है जो मानता है, कला का कोई जाति-धर्म नहीं होता क्योंकि शादी के बाद भी चमकीला और अमरजोत के प्रशंसकों में कोई कमी नहीं आयी।

भले ही यह चमकीला की दूसरी शादी थी,पर पंचायत ने कुछ रुपये जुर्माना लेकर उसे माफ़ कर दिया,चमकीला की पत्नी ने भी पति को माफ़ कर दिया उसका कहना है कि चमकीला ने उससे और दोनों बच्चों की तरफ से कभी मुँह नहीं मोड़ा और वह उन्हें हमेशा खर्चा दिया करता था और बच्चों से मिलने भी आया करता था वैसे भी हम जानते हैं फ़िल्मी दुनिया में यह बहुत आम होता आया है, जनता की पसन्द में कहाँ फर्क आता है वे उतने ही जोश से अपने नायक को पसन्द करते हैं यह ‘मास’- मनोविज्ञान है कि दर्शक अपने आइकॉन को अपने से बहुत दूर होने के यथार्थ को समझते हुए भी उसके प्रति असीम प्रेम लुटाता है। अपने कलाकारों विशेषकर पुरुष कलाकारों की निजी जिन्दगी पर वे कोई प्रतिक्रिया नहीं दिखाते बल्कि समाज उन्हें फॉलो करता है जबकि स्त्री कलाकारों के विषय में उनकी प्रतिक्रिया कुछ और ही रहती है जिसे वास्तव में अश्लील कहा जाना चाहिए।   

धर्म और राजनीति में आई विकृति पर भी नये नरेटिव स्थापित करने के लिए इम्तियाज़ इशारों-इशारों में संकेत करते हैं। जैसे विशेष प्रोपेगैंडा के मकसद से फिल्मों का निर्माण किया जा रहा है, वही तो संगीत की दुनिया में चमकीला के साथ हो रहा था, उसकी लोकप्रियता को भुनाने के लिए? उस पर धार्मिक गीत गाने के लिए दबाब डाला गया पर चमकीला की गायिकी की विशेषता ही थी कि वे टेप भी खूब हिट हुए। चमकीला के पिता का शराब पीकर जमींदार के घर पर उसके जातीय दम्भ को पैसों के बल पर चुनौती देना, ये भी कहीं लुका-छिपा कारण हो सकता है उसकी हत्या का तो प्रेमविवाह के विरोधी भी शक के दायरे से बाहर नहीं हैं। कुल मिलाकर चमकीला चौतरफ़ा घिरा हुआ था लेकिन अपने गायन को उसने विराम नहीं लगाया क्योंकि वह खुद भी अपनी लोकप्रियता को अन्त तक निचोड़ लेना चाहता था ‘आज अखाड़ो में मेरी माँग है कल का कुछ पता नहीं जितना कमा सकतें है कमा लो’ इसलिए एक समय आया कि उसने डरना छोड़ दिया तो उसका बेख़ौफ़ रवैया लोगों को रास न आया। उसने डरना बन्द कर दिया ‘चमकीला पागल हो गया अब उसे डर नहीं लगता’ यह संवाद बताता है कि समाज हमें भय में रहने की आदत डालता है और जो इससे विपरीत जाता है उसे पागल करार कर दिया जाता है।

अत: इम्तियाज अली ‘चमकीला’ की कहानी नहीं कह रहा बल्क़ि यदि उसे गोली न लगती तो उसकी कहानी में किसी को दिलचस्पी थी भी नहीं, हाँ, उसके गीतों में आज भी सबकी दिलचस्पी है, वस्तुत: गीतों की विषय वस्तु में, जिसे हर वर्ग,वर्ण और लिंग समान रूप से लुक-छिप कर ही सही सुनता है, झूमता है और अपनी कामेच्छाओं को अभिव्यक्त करने का साधन मानता है। फिल्म समीक्षक तेजस पुनिया के ठीक कह रहें हैं सच तो यह है कि चमकीला आज भी उतने ही जोश और खुशी से सुना जाता है हर उम्र के लोगों द्वारा पंजाब और स्थानीय राज्यों में। रही कहानी की बात तो उसे भी बहुत से लोग जानते हैं हाँ आज की पीढ़ी न जानती हो यह हो सकता है

इस बात से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि चमकीला के माध्यम से यह भी रेखांकित किया गया है कि पितृसत्ता में यौन इच्छाओं, किशोर सुलभ जिज्ञासाओं और उनकी अभिव्यक्ति पर मौन थोप दिया जाता है; इसलिए बढ़ते किशोर युवक युवतियों से लेकर बुजुर्गों तक अपने आधे-अधूरे ज्ञान आपस में बाँटकर आधा-अधूरा आनन्द प्राप्त करतें है और उसे ही विरासत में सौंपता है जो विविध सामाजिक सेंसरों,टैबुओं के साथ फैन्तासियों से युक्त हो विकृत भी होता जाता है। पहले ही दृश्य में जब बालक चमकीला ‘खड़ा’ शब्द पर जिज्ञासा प्रकट करता है तो उसे थप्पड़ मिलता है, यौनाचारों पर समाज की चुप्पी से उत्पन्न मानसिकता के चलते ही द्विअर्थी गीत लोकप्रिय होतें है फिल्म का एक यह उद्देश्य भी समझ आता है, जो ओएमजी का भी था। यदि जिज्ञासाओं को मारपीट कर दबाया जाएगा तो लाभ उठाने वाले नीम हकीमों, नौसीखियों के पास जाकर ये युवा ग़लत दिशाओं में अपना समाधान करते हैं जो कई दफा उनका भविष्य भी स्वाह कर देते हैं। अश्लील गीतों की धूम के सन्दर्भ में हमें याद आता है, भदेस, भदेसपन जिसका अर्थ है भद्दा,भौंडा,कुरूप, बदशक्ल, अँग्रेजी में जो अनसोफिस्टिकेट्ड डिसअप्रोप्रिअट है यानी अपरिष्कृत, असंगत है समाज जिस सभ्यता का आवरण ओढ़े हुए है उसमें इस भदेसपन को स्वीकार नहीं किया जाता। जबकि यह भी सच है कि इसी समाज में भाई-भाई एक दूसरे से बात करते हुए माँ-बहन की गालियाँ तकिया कलाम की तरह देते हैं, जिसे सभा में वर्जित माना जाता है। अब आप कहेंगे कि एक ग़लत बात को दूसरी गलत बात से काटा नहीं जा सकता।

लैंगिक भेदभाव भी फिल्म में सीधे-तौर पर नहीं आता लेकिन लड़की को लेकर पितृसत्तात्मक अश्लील सोच जगजाहिर है, तभी चमकीला के द्विअर्थी गीतों पर सभी आयु वर्ग के पुरुष झूमतें है, अखाड़े में धार्मिक गीत गाने पर लोग चिल्ला-चिल्ला कर उन्ही अश्लील गीतों की माँग करतें हैं। लड़कियों में यौन इच्छाओं को व्यक्त करने की पाबन्दी है,ये लडकियाँ छिपकर उसे सुनने को छत पर आयीं तो छत ही गिर गयी और उसका नाम छत फोड़-चमकीला हो गया। एक गीत की शूटिंग के दौरान अलग-अलग जगहों पर हर वर्ग शहर गाँव की कोई 300 लड़कियों पर फिल्माया गया है जो इस बात की गवाही देता है कि चमकीला के गीत लड़कियों में भी लोकप्रिय हैं। यानी स्पष्ट है अपनी यौनिक इच्छाओं की अभिव्यक्ति की तीव्र आकांक्षा उन्हें भी है, लेकिन उन्हें अपनी देह पर ही अधिकार नहीं दिया गया इसलिए छिप कर उसके गीत सुनती हैं।

फिल्म आने के बाद सोशल मीडिया पर चमकीला को लेकर मिली जुली प्रतिक्रियाएँ आयीं जिसमें समाज के वीभत्स यथार्थ को स्वीकार किया गया है, जबकि कुछ का मानना है कि इम्तियाज़ चमकीला के बहाने अश्लील गानों को स्थापित करते हैं। बॉलीवुड हो या भोजपुरी स्त्री पुरुष सम्बन्धों पर बहुत अमर्यादित लोक गीत हैं, जो खूब सुने जाते हैं। तो क्या इस लोकप्रियता का महिमामण्डन किया जाए? सिर्फ लोकप्रियता के तर्क पर चमकीला के जीवन का फिल्मीकरण को सही नहीं ठहराया जाना चाहिए, यह याद रहे कि यह चमकीला की बायोपिक नहीं है बल्कि चमकीला की चमक में समाज के उन स्याह पक्षों को संकेतों में रेखांकित किया गया है जो आज भी लगभग ज्यों की त्यों विद्यमान हैं। ओनर किलिंग हो या समाज और सिनेमा में जातिवाद हो, कहाँ खत्म हुए? सोशल मीडिया पर पोर्न साइट्स की भरमार, लड़के लड़कियों दोनों का देह व्यापार की ओर आकर्षित होने के कारण भी इसी समाज से उपजे हैं। हमारी नयी पीढ़ी को यौन विकृतियों के जंजाल में फँसने से नहीं बचा पा रहे हैं।

वास्तव में सिनेमा के साथ साथ लोकगीतों में भी मूल्यों का ह्रास हुआ है, जिन्हें नज़रन्दाज़ नहीं किया जा सकता। परम्परागत लोकधुनों को चुरा कर उन्हीं की तर्ज पर जनता की ही माँग पर उन्हें अश्लील और भौंडा बना दिया जाता है जो शादी ब्याहों में खूब धड़ल्ले से ऊँची आवाज में गाये जाते है जिन पर घर भर के लोग मदमस्त नाचते हैं। यह बात प्रसिद्ध है कि चमकीला के पास अगर डेट नहीं होती थी तो लोग अपनी शादी की डेट बदल दिया करते थे। आज बिग बॉस, कपिल शर्मा जैसे शो की टी. आर.पी. यानी लोकप्रियता देखकर लोगों की पसन्द पर तरस आता है।

हालाँकि इसका एक कारण लोगो में सामाजिक डिप्रेशन बढ़ना भी बताया जाता है। बेरोजगारी चरम पर है और बुजुर्ग भी अपना समय काट रहें हैं उनकी आज सुनाता कौन है? समाज के इसी मनोविज्ञान को फ़िल्म वाले भुनाते आये हैं। अत: चमकीला तो एक प्रतीक भर है उसके गीत समाज और मनोविज्ञान का सूक्ष्मता से विश्लेषण कर रहें हैं, अश्लील समाज की सोच है चमकीला। संचार माध्यम का बाजार ऐसी ही सोच का सौदा करते हैं। चमकीला के गीत, उसकी लोकप्रियता फिर उसकी हत्या और अन्त में गीत की पंक्तियाँ तुम सभी साफ सही, हूँ मैं मटमैला’ निश्चित ही दर्शकों को भावुक बनाती हैं। समाज की मानसिकता और चमकीला के गीतों में आज भी कोई बदलाव नहीं आया है। हर क्षेत्र में आपको कई कई चमकीला आज भी मिल जाएँगे और उनको सुनकर आनन्द से झूमने वाले भी। मंटो हो या उग्र अथवा इस्मत आपा, जब जब समाज का काला सच दिखाने की जिसने भी कोशिश की, उन्हें प्रताड़ना मिली और उन पर मुकदमे भी चले। इम्तियाज़ ने समाज के स्याह पक्ष के लिए चमकीला की चमक का व्यावसायिक इस्तेमाल किया है, विरोध तो उन्हें झेलना ही पड़ेगा।

फिल्म का अन्त और उसका गीत ‘विदा करो’ तमाम कमजोरियों के बावजूद चमकीला के व्यक्तित्व को नायकत्व प्रदान करते हुए प्रतिष्ठित कर जाता है, लगभग शहीद की तरह जो फ़िल्मी दुनिया की विशेषता है। फिल्म के अन्त में पुलिस इंस्पेक्टर जीप में से चमकीला के कैसेट को निकालता है, और जब वह घर घर पहुँचता है तो उसका बेटा भी वही गीत सुन रहा होता है। चमकीला की हत्या से भावुक होने वाला पुलिस इंस्पेक्टर जब अपने बेटे से कहता है, ‘जब कभी मन करे चमकीला को सुन लिया करो’ तो यह चमकीला के सुनने की बात से कहीं ज्यादा ‘अपने मन की सुन लिया करो’ पर फिल्म अपना टेक लगाती है। फिल्म के पहले दृश्य में बच्चे को थप्पड़ पड़ती है जबकि अन्तिम दृश्य में बच्चे को पिता का साथ, इसे समझना ज़रूरी है कि मन के भाव जैसे शाश्वत हैं वैसे ही तन की भी जरूरत है, जिन्हें दबाने का अर्थ है समाज और व्यक्ति दोनों के स्वाभाविक विकास को अवरुद्ध करना

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रक्षा गीता

लेखिका कालिंदी महाविद्यालय (दिल्ली विश्वविद्यालय) के हिन्दी विभाग में सहायक आचार्य हैं। सम्पर्क +919311192384, rakshageeta14@gmail.com
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