राष्ट्रीय राजनीति में हेमंत की सम्भावना
झारखंड के पूर्व मुख्यमंत्री और झामुमो के कार्यकारी अध्यक्ष हेमंत सोरेन का जेल जाना झारखंड की राजनीति में सामान्य घटना नहीं है। आगामी चुनाव में इसका नफा-नुकसान भाजपा और झामुमो अपने-अपने आधार पर माप रही होगी। लेकिन इतना जरूर है कि इस घटना ने हेमंत की राजनीतिक छवि को और बड़ा कर दिया है। वे राष्ट्रीय स्तर पर भाजपा के विरुद्ध वह आदिवासी चेहरा बनकर उभरे हैं, जिसने एक निरंकुश शक्ति के खिलाफ अपने घुटने टेकने के बजाय जेल जाना चुना। क्योंकि इस बात में कोई दो राय नहीं है कि यदि हिमंता बिस्वा सरमा, नारायण राणे, अजीत पवार, छगन भुजबल आदि नेताओं की तरह हेमंत ने भी भाजपा का दामन थाम लिया होता, तो वे भी बाकियों की तरह जेल से बाहर होते और इस समय भी झारखंड के मुख्यमंत्री रहते।
लेकिन सवाल है कि आखिर हेमंत ने भाजपा की शर्तों को मान लेने के बजाय जेल जाना क्यों चुना? इसका जवाब गिरफ्तारी के बाद हेमंत द्वारा विधानसभा में दिए गए उनके भाषण में मिलता है। उन्होंने कहा था कि भाजपा यह बात पचा नहीं पा रही है कि कोई आदिवासी, पिछड़ा या दलित उनके बराबर में बैठे, इससे उनके कपड़े मैले हो जाते हैं। यह बयान दर्शाता है कि हेमंत ने अपनी राजनीतिक धुरी चुन ली है, अपनी राजनीतिक विचारधारा तय कर ली है। यह उनके पिता दिशोम गुरु शिबू सोरेन का राजनीतिक रास्ता है, जिसकी शुरुआत महाजनों के खिलाफ लड़ाई से हुई थी। अब यह बात सिर्फ अतीत के संदर्भ में ही चर्चा में आएगी कि झामुमो और भाजपा कभी एक साथ भी रहे थे।
हेमंत के जेल जाने से दो चीजें और निकलकर आई हैं। पहली कि हेमंत सोरेन को राज्य भर के आदिवासी और पिछड़ों की संवेदना हासिल हुई है, जिसका परिणाम आने वाले चुनावों में देखने को मिल सकता है, बशर्ते उन्हें बहुत दिनों तक जेल में रहना न पड़े। दूसरी अहम बात राजनीति में हेमंत की पत्नी कल्पना सोरेन की एंट्री है। राजनीति में कल्पना की एंट्री भले ही मजबूरी में हुई हो, लेकिन अब हुई है तो निश्चित तौर पर उनके लिए राज्य की राजनीति में एक जगह मुकर्रर होगी। गिरिडीह लोकसभा सीट में स्थित गांडेय विधानसभा में हो रहे उपचुनाव को लेकर उनकी सक्रियता इस बात पर मुहर लगाती है कि वे इस बार विधानसभा का चुनाव लड़ रही हैं।
दरअसल झारखंड में चल रहे सियासी हलचल के बीच 31 मार्च को गांडेय के तत्कालीन विधायक सरफराज अहमद से इस्तीफा दिलवाया गया था, ताकि यदि हेमंत की गिरफ्तारी की स्थिति बनती है तो कल्पना को मुख्यमंत्री बना कर बाद में उन्हें गांडेय सीट से चुनाव लड़वाया जा सकेगा। हालांकि तब कल्पना के बजाय चंपाई सोरेन को सीएम की कुर्सी दी गई, क्योंकि झामुमो को इस बात की आशंका थी कि चुनाव आयोग गांडेय में उपचुनाव ही न कराए। इस स्थिति में किसी विधायक को ही मुख्यमंत्री बनाना उचित निर्णय था। लेकिन खाली हुई गांडेय सीट से अब कल्पना सोरेन वहां से चुनावी मैदान में हैं। जानकारी के लिए बता दें कि सरफराज अहमद को इस बार झमुमो की तरफ से राज्यसभा भेजा गया है।
इन घटनाओं का आकलन करने से यह साफ हो जाता है कि हेमंत की गैर मौजूदगी में कल्पना सोरेन के हाथों में राज्य की कमान सौंपने की योजना बन रही है। इसके लिए कल्पना ने भी अपनी कमर कस ली है। उनके भाषण और इंडिया गठबंधन के बैठकों व कार्यक्रमों में उनकी सक्रियता इस बात को पुख्ता करती है। वे बेबाकी से अपनी बात रख रही हैं और खुले मंचों से मोदी और भाजपा पर हमला करने से नहीं चूक रही हैं। हाल ही में उन्होंने अरविंद केजरीवाल की पत्नी सुनीता केजरीवाल से भी मुलाकात की। 31 मार्च को दिल्ली के रामलीला मैदान में इंडिया गठबंधन की लोकतंत्र बचाओ रैली को उन्होंने मुखरता से संबोधित किया। उन्होंने सोनिया गाँधी और सुनीता केजरीवाल के साथ प्रमुखता से मंच साझा किया। यदि गांडेय से चुनाव जीतने के बाद कल्पना सोरेन को मुख्यमंत्री की कुर्सी मिलती है, तो वे झारखंड की पहली महिला मुख्यमंत्री होंगी। दरअसल झामुमो में कल्पना सोरेन का बढ़ता कद भी एक वजह रही कि शिबू सोरेन की बड़ी बहू और दिवंगत दुर्गा सोरेन की पत्नी सीता सोरेन ने हाल ही में भाजपा का दामन थाम लिया। कल्पना की राजनीतिक समझ और भाषण देने का अंदाज इस बात के लिए आश्वस्त तो जरूर करता है कि वे मुख्यमंत्री पद को संभाल पाने में सक्षम भी होंगी। संदर्भ के लिए बता दें कि 48 वर्षीय कल्पना सोरेन राजनीति में आने से पहले व्यापार में सक्रिय रही हैं। उनके पिता भी व्यापारी रहे हैं।
अहम सवाल यह है कि यदि कल्पना सोरेन झारखंड में झामुमो की तरफ से मुख्यमंत्री का चेहरा हैं, तो हेमंत के सामने क्या विकल्प है? राजनीतिक गलियारों में चर्चा है कि हेमंत सोरेन जेल में रहते हुए दुमका से लोकसभा का चुनाव लड़ सकते हैं। ऐसा करना हेमंत के लिए मजबूरी भी है, क्यों कि यदि वे कुछ और महीने राजनीति से दूर रहते हैं, तो उन्हें अप्रासंगिक होने का डर है। वहीं दूसरी तरफ दुमका से चुनाव जीतकर वे न सिर्फ खुद को राजनीतिक रूप से सक्रिय कर पाएँगे, बल्कि भाजपा को बैकफुट पर आने को मजबूर भी कर देंगे। इधर झारखंड की मुख्यमंत्री के तौर पर भाजपा कल्पना सोरेन को परेशान भी नहीं कर सकेगी, क्योंकि उनका राजनीति को लेकर ऐसा कोई अतीत नहीं रहा है जिस पर भाजपा वार कर सके। वे राजनीति में एक फ्रेश चेहरा हैं और फ्रेश चेहरे का अपना एक आकर्षण होता है। जैसा कभी अरविंद केजरीवाल, तेजस्वी यादव या रबड़ी देवी को लेकर था।
इस बात को लेकर झामुमो भी कह चुकी है कि कार्यकर्ताओं की माँग है कि हेमंत सोरेन दुमका से चुनाव लड़ें। ऐसा कहकर दरअसल पार्टी लोगों का मूड समझना चाहती है। हालांकि इस बीच हेमंत की चाल को भांपते हुए भाजपा ने उन्हीं की भाभी सीता सोरेन को दुमका सीट से अपना चुनावी प्रत्याशी बना दिया है। यानी यदि हेमंत दुमका से चुनाव लड़ने के अपने फैसले पर अमल करते हैं, तो उनका मुकाबला अपनी भाभी से ही होगा। हो सकता है कि परिवार की कलह को तूल न देने के लिए वे इस प्लान से पीछे हट जांय। लेकिन यदि वे लोकसभा चुनाव के माध्यम से राष्ट्रीय राजनीति की तरफ अपने कदम बढ़ाते हैं तो इसके निम्नलिखित दूरगामी प्रभाव देखने को मिलेंगे।
पहली बात तो यह है कि इस समय देश में आदिवासियों के लिए यदि किसी एक नेतृत्व का चुनाव करना हो, तो हेमंत सोरेन सबसे पहले नंबर पर आएंगे। उनकी पार्टी इकलौती आदिवासी नामधारी पार्टी है, जो किसी राज्य में सत्ता में है। और वर्तमान परिप्रेक्ष्य में विपक्षी खेमे में आदिवासी नेतृत्व को लेकर जो वैक्युम है, उसको हेमंत बखूबी पूरा भर सकते हैं। इस तरह इंडिया गठबंधन को हेमंत के रूप में संसद में एक मुखर आवाज और मजबूत आदिवासी नेतृत्व मिल सकेगा। साथ ही झामुमो राष्ट्रीय फलक पर अपनी मौजूदगी स्थापित कर सकेगी।
इस बात का विवरण आवश्यक है कि झारखंड गठन से पहले राज्य में झामुमो के 4 से 5 सांसद हुआ करते थे। इसमें शिबू सोरेन के अलावा कृष्णा मार्डी, टेकलाल महतो, सूरज मंडल, साइमन मरांडी, शैलेंद्र महतो आदि के नाम शामिल थे। झारखंड के अलावा बंगाल और उड़ीसा में भी झामुमो के विधायक होते थे। लेकिन झारखंड गठन के बाद झामुमो ने खुद को राज्य की राजनीति तक ही केंद्रित कर लिया।
रांची के वरिष्ठ पत्रकार और कई राष्ट्रीय अखबारों के संपादक रह चुके शंभुनाथ चौधरी बताते हैं कि झामुमो 2024 के संसदीय चुनाव को लेकर सीरियस है। ऐसे में इस बात की पूरी संभावना है कि राष्ट्रीय राजनीति में दखल का नेतृत्व हेमंत खुद ही करें। हालांकि पार्टी द्वारा औपचारिक घोषणा का इंतजार करना चाहिए।
झारखंड में बदलते समीकरण के बीच अब तक भाजपा को हेमंत ने पटकनी ही दी है। कई बार सरकार गिराने के प्रयासों को हेमंत ने बड़ी ही सफाई के साथ विफल किया है। इस बीच वे राज्य में एक मजबूत आदिवासी चेहरे के रूप में उभरे हैं। सरकार संचालन में कई स्वाभाविक कमियों और समस्याओं के बीच भी उन्होंने आदिवासियों के मुद्दों की राजनीति के दम पर खुद को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित करने का प्रयास किया है। ऐसे में यदि हेमंत लोकसभा चुनाव लड़ने का विकल्प चुनते हैं और जेल में रहकर ही जीत जाने में कामयाब हो जाते हैं, तो भाजपा के लिए इससे बड़ा नुकसान कुछ और नहीं होगा।