मलिन बस्तियों के बच्चों की शिक्षा
मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल की रहने वाली शिबानी घोष एक ऐसी महिला है, जिन्होंने अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद न सिर्फ अपने परिवार के लिए बल्कि वंचित समुदाय के बच्चों को शिक्षित करने का बीड़ा उठाया। उनके इस संकल्प को पूरा करने में उनके पति प्रदीप घोष ने भी साथ दिया। शिबानी कहती हैं, कि उनके पति ने ही उन्हें ऐसा करने के लिए प्रेरित किया। बीएड की पढ़ाई खत्म होते ही पति प्रदीप ने कहा, क्या आप सिर्फ अपने परिवार के लिए नौकरी करेंगेी या फिर जीवन में कुछ ऐसा करना चाहेंगी, जिससे समाज व देश का भला हो?
इसके बाद जब शिबानी ने अपनी मंशा जाहिर की, तब पति ने ही उसे बढ़ावा दिया और कहा कि अपने परिवार के लिए कमाना, अपने बच्चों की परवरिश करना इतना ही महत्वपूर्ण है, जितना वंचित समुदाय के बच्चों के भविष्य के लिए कुछ नया करना। उन्हें समाज की मुख्यधारा से जोड़ना। बस यही से शिबानी को अपना लक्ष्य दिखाई देने लगा। उसने सोचा यह बच्चे देश का भविष्य हैं। इन्हीं से समाज में बदलाव लाया जा सकता है। लेकिन वह पढ़ाने के पुराने ढर्रे से अलग कुछ ऐसा करना चाहती थी, जिससे बच्चों में शिक्षा के प्रति लगाव बढे।
यहीं से ‘म्यूजियम स्कूल परवरिश’ की परिकल्पना मूर्त रूप ले लेने लगी। हालांकि यह काम इतना आसान नहीं था, इसमें काफी चुनौतियां रहीं। इन बच्चों को उनके काम से अलग करना, परिजनों की सहमति लेकर उन्हें शिक्षित करना। इसके लिए शिबानी को काफी मेहनत करनी पड़ी। सबसे पहले तो उन्हें मलिन बस्तियों में उन बच्चों को चिन्हित करना पड़ा, जिनकी पढ़ाई किसी न किसी वजह से छूट चुकी थी। चाहे वह आर्थिक कारणों से हो या पढ़ाई में रुचि न होने के कारण हो या फिर छोटी उम्र में काम पर लग जाने के चलते स्कूल से ड्रॉप आउट हो जाना या कोई और कारण। इन बच्चों में दोबारा पढ़ाई के प्रति रुचि पैदा करना मुश्किलों से भरा काम था। ऐसे बच्चे चिन्हित हो जाने के बाद शिबानी ने उसकी एक लिस्ट तैयार की। पहले 10 बच्चे, उसके बाद 20, फिर 50 और अब तो 100 से अधिक बच्चे हो गए हैं। शिबानी ने पहले अपनी जमा पूंजी से किराए पर बस लेकर घर-घर जाकर उन बच्चों को बस में बैठा के संग्रहालयों में लाना शुरू किया तथा उन्हें बिना किसी किताब-कापी के प्रकृति के खुले माहौल में एमपी बोर्ड स्तर की पढ़ाई के लिए तैयार करने लगी।
शिबानी कहती है कि शिक्षा का अधिकार यानी राइट टू एजुकेशन पर बातें तो समाज में खूब होती हैं। परन्तु इन बच्चों के लिए इस तरह के अधिकार का कोई मतलब नहीं है। बहरहाल इन बच्चों की बेहतरी के लिए इन्हें नेशनल म्यूजियम ऑफ मैनकाइंड, द रीजनल साइंस सेंटर और द रीजनल म्यूजियम ऑफ नेचुरल हिस्ट्री के साथ मिलकर परवरिश म्यूजियम स्कूल शुरू किया गया। जहाँ एक भी क्लासरूम नहीं है और न शिबानी चाहती थी, कि बच्चे चारदीवारी में बन्द हो जाएँ। हर दोपहर, एक बस शहर भर की झुग्गियों से बच्चों को समेटकर भोपाल के किसी एक संग्रहालय में जाना, जहाँ दो घंटे तक शिक्षक द्वारा उन्हें पढ़ाना एक नियमित प्रक्रिया शुरू हुई। इन बच्चों के शिक्षक भी इन्हीं झुग्गी के लड़कियां व लड़के होते हैं, जो इन्हें बुनियादी शिक्षा देते हैं।
शिबानी ने इन बच्चों को चार श्रेणियों में बांटा है। पहला नन्हा, दूसरा बचपन, तीसरा खिले और चौथा यौवन। श्रेणियों को उम्र के हिसाब से बांटा गया है। नन्हा में 5 से 7 वर्ष के बच्चे, बचपन में 8 से 10 साल के बच्चे, खिले में 11 से 13 व यौवन में 14 से 18 साल के किशोर-किशोरियों को जोड़ा गया है। इस तरह संग्रहालय में प्रदर्शन के माध्यम बच्चे पढ़ाई करते हैं। इसमें मध्य प्रदेश में वनस्पतियों और जीवों के बारे में सीखते हैं। क्षेत्रीय विज्ञान केंद्र में लाइव प्रयोग भी बच्चों को दिखाया जाता है। इस तरह 5 से 10 साल की उम्र में इस स्कूल में प्रवेश कर या तो एमपी बोर्ड के पाठ्यक्रम या फिर व्यावसायिक प्रशिक्षण के बाद स्व-रोजगार के लिए तैयार हो जाते हैं। इसी स्कूल से 7 साल तक पढ़कर रोहित टीसीएस कंपनी में डाटा एंट्री की नौकरी पा चुके हैं और सीता यादव बुटीक चलाती हैं।
इसी तरह एक लड़की विश्वविद्यालय से मास कम्युनिकेशन की पढ़ाई कर चुकी है। कई बच्चे उच्च शिक्षा में दाखिला ले चुके हैं। रोहित के पिता किसी संस्थान में चतुर्थ श्रेणी कर्मचारी हैं, जबकि मां घर-घर बर्तन आदि का काम करती हैं। स्कूल के हर बच्चे की लगभग यही कहानी है। लेकिन उनकी प्रतिभा में कोई कमी नहीं है। केवल उन्हें अवसर मिलना चाहिए। पढ़ाई के दौरान यह भी ध्यान रखा जाता है कि इससे उनके काम के घंटे प्रभावित न हो और किसी तरह उनकी पढ़ाई में अवांछित रुकावटें भी न पैदा हो। इसके साथ ही उन्हें मलिन बस्तियों के वातावरण से दूर रखा जा सके।
शिबानी कहती हैं, कि इस तरह के काम के लिए जुनून चाहिए। पहले मैंने अपनी जमा पूंजी लगा दी। फिर मेरे काम को देखते हुए टाटा ट्रस्ट ने फंडिंग शुरू की, जो मार्च 2015 तक चला, इसके बाद फंडिंग बन्द हो गई। मार्च 2015 से अक्टूबर 2016 तक बहुत कठिन समय रहा। किसी तरह मैनेज कर पाते थे। उन्होंने बताया कि जब 2016 में म्यूज़ियम स्कूल परवरिश को यूनेस्को अवार्ड मिला, तब उसकी सारी प्राइज मनी उन्होंने स्कूल में लगा दिया। उसके बाद से पीपुल्स फंडिंग पर सारा काम चल रहा है, जिसमें शिक्षकों का मानदेय, बच्चों का पोषण, कॉपी, बस का खर्चा इत्यादि शामिल है। म्यूजियम स्कूल परवरिश में सबसे प्रभावित करने वाली बात बच्चों की जिजीविषा है। जो पढ़ लिखकर कुछ अलग करना चाहते हैं। वे विज्ञान के साथ खेल खेल में आविष्कार करना सीखते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों की संस्कृति और सभ्यता के बारे में जानते हैं। वे कंकड से खेल-खेल में गणित सीखते हैं। संग्रहालयों में प्राचीन गहनों व वस्त्रों के बारे में रोचक तरीके से समझते हैं, जो बच्चों को बहुत मजेदार लगता है। बच्चों को परवरिश में सीखने का व्यावहारिक अनुभव मिलता है। इसका सारा श्रेय स्वाभाविक रूप से शिबानी, प्रदीप घोष और शिक्षकों को जाता है।
शिबानी के पति प्रदीप घोष एक आईटी पेशेवर हैं। वे कहते हैं कि यह एक ऐसी पहल जो गैर सरकारी संगठनों के साथ मिलकर एक आम आदमी के दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने का अवसर देती है। शिबानी का ‘‘यह सामाजिक क्षेत्र के लिए पहला प्रदर्शन है और वह इससे कहीं अधिक करना चाहती हैं। ताकि सुविधाओं से वंचित मलिन बस्तियों के बच्चे भी समाज की मुख्यधारा से जुड़ सकें।