मुक्ति की चाह : लोकतन्त्र का अधूरा स्वप्न
संविधान निर्माता बाबासाहब अंबेडकर व लोकतन्त्र में गहरी निष्ठा रखने वालों को समर्पित
आधुनिक भारत में सामाजिक न्याय के लिए चले एक लम्बे आन्दोलन का यक्ष प्रश्न यही था कि यदि अंग्रेज चले भी गए तो क्या भारत मे व्याप्त समाजिक गैर-बराबरी, जातिगत भेदभाव, आर्थिक व सामाजिक शोषण खत्म हो जाएगा?
यह प्रश्न स्वाधीनता के लिए अपना सर्वस्व न्योछावर करने वाले क्रांतिकारियों को भी चिंतित करता रहा। रूसी क्रांति जैसी ऐतिहासिक घटना से भारत के राष्ट्रवादी क्रांतिकारी भी अछूते न रह सके, और आगे चल कर उपनिवेशवाद के आर्थिक शोषण के विरूद्ध उन्होंने ‘दुनिया के मजदूरों एक हो जाओ’ नारे के द्वारा भारत मे जन जन को जगाने का आवाहन किया। वह चाहे खेतिहर मजदूर हों, किसान हो या मिलों में काम करने वाले मजदूर यह नारा सभी को उस आर्थिक व सामाजिक शोषण के विरुद्ध खड़े होने की प्रेरणा देता रहा। बम्बई के अपने प्रवास में चन्द्रशेखर आज़ाद ने मिलों में काम करने वाले मजदूरों के जीवन को करीब से देखा और जिया था और जीवन की अन्तिम क्षणों तक वे अपने देश के लोगों को इसी आर्थिक व सामाजिक शोषण से मुक्त कराने के लिए औपनिवेशिक राज्य से लोहा लेते रहे। शहीद भगत सिंह वह क्रांतिकारी जो अपनी पैंट फट जाने पर चद्दर लपेटे और कोट की जेब में साहित्य लिए लाहौर से दिल्ली, दिल्ली से कानपुर तक उसी क्रांति की लौ जगाने के लिए भटकता रहा जो हम सभी को आर्थिक और सामाजिक शोषण की बेड़ियों से मुक्त करा सके।
इसी ऐतिहासिक जद्दोजहद का परिणाम रहा है हमारा भारत का संविधान। बाबासाहेब अंबेडकर जो स्वयं जातिगत, सामाजिक व आर्थिक शोषण के विरुद्ध आजीवन लड़ते रहे उन्होंने हम सभी को एक बेहतर भविष्य देने के लिए और इन सभी विसंगतियों से भारतीय लोकतन्त्र को बचाने के लिए एक सशक्त संविधान का निर्माण किया था।
आज़ादी के 75 वर्ष पूरे होने पर हम यदि आज के परिदृश्य पर दृष्टि डालें तो ज्ञात होता है कि इन सभी मोर्चों पर भारतीय राज्य विफल रहा है। आज के भारत मे पूँजीवाद अपने चरम पर है, अंधाधुन पश्चिम का अनुकरण जारी है, जातिगत विषमताओं में देश आज भी जकड़ा हुआ है, आर्थिक शोषण अपने विभत्स रूप में हर तरफ़ व्याप्त है और साम्प्रदायिकता की आग में देश का शीर्ष नेतृत्व चुपचाप अपना हाथ सेक रहा है। देश में इस गम्भीर स्थिति का कारण मूलतः राजनैतिक दलों और राष्ट्रीय नेतृत्व के नैतिक पतन में छुपा हुआ है। मूल्यों का आडंबर और ऊपरी तड़क भड़क से काम चल जाये वही बहुत है इनके लिए। सशक्त लोकतन्त्र और राष्ट्रनिर्माण की संकल्पना बस सरकारी तामझाम और आयोजनों तक सीमित रह गया है। वस्तुतः सत्ता में कैसे बने रहा जाय बस यही उनका एक मात्र ध्येय रह गया है।
इस आशंकाप्रद माहौल में हमें आशा की किरण स्वतन्त्रता आन्दोलन के उन मूलभूत मूल्यों से ही मिल सकती है जिन के लिए असंख्य लोगों ने अपने प्राण न्योछावर किये और उन मूल्यों के लिए अपना सर्वस्व इसलिए लगा दिया कि जिससे हम भारत वासियों को एक बेहतर भविष्य मिल सके।