पूर्वाग्रह की जंजीरों के बीच संघर्ष के बीज
पिछले कुछ दशकों से देश-दुनिया में विभिन्न दिवसों को मनाने का सिलसिला अनवरत रूप से जारी है। इसी के तहत 8 मार्च महिला दिवस के रूप में लंबे समय से मनाया जा रहा है, जिसके लिए हर बार एक खास विषय (थीम) तय किया जाता है। इस बार का विषय ‘जेंडर इक्वालिटी टूडे फॉर ए सस्टेनेबल टुमॉरो’ यानि ‘एक स्थायी कल के लिए आज लैंगिक समानता’ है। लैंगिक समानता की बात कई दशकों से विमर्श के केंद्र में है। लेकिन आज भी इस असमानता की खाई को भरा नहीं जा सका है। तरह-तरह की योजनायें, सरकारी सुविधायें, आरक्षण सब कुछ असफल साबित हो रहा है। फिर भी इस खाई को पाटने का काम निरंतर जारी है।
इसी प्रयास के तहत राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस भी मनाया जा रहा है। ताकि महिलाओं को उनकी पहचान मिल सके और सदियों से चली आ रही रूढि़वादी सोच का अंत हो सके। एक स्वस्थ समाज की स्थापना के लिए महिला-पुरूष की समानता बेहद जरूरी है और इसीलिए इस बार महिला दिवस के अवसर पर # Break the bias (पूर्वाग्रह तोड़ो) का विशेष अभियान भी चलाया जा रहा है। लेकिन ऐसे अभियान तब तक सफल नहीं हो सकते, जब तक हम अपनी सोच में क्रांतिकारी परिवर्तन न लायें। एक साधारण वर्ग की महिलाओं का सामाजिक और पारिवारिक संघर्ष आज भी बेहद कठिन है।
अहिल्या बाई होल्कर को रानी होने के बावजूद कई संघर्ष झेलने पड़े थे, फिर भी उन्होंने सदियों पुरानी कुप्रथाओं को तोड़ा था। अहिल्या बाई राज परिवार से थी और उन्हें उनके पति और ससुर का सहयोग हर कदम पर मिलता रहा और वे स्वयं भी अपनी हिम्मत बनाये रखी। लेकिन जब हम साधारण परिवार के महिलाओं की संघर्ष की बात करते हैं तो यह दोगुनी हो जाती है। महिला दिवस के अवसर पर हम असंख्य वीरांगनाओं को याद कर सकते हैं, जिन्होंने सदियों से चले आ रहे पूर्वाग्रह को तोड़ा है। किन्तु इसके लिए उन्होंने जो मूल्य चुकाया है वह तपती धूप में आग पर चलने जैसा था।
सदियों से चले आ रहे पूर्वाग्रह को तोड़ने के लिए यह बेहद जरूरी है कि हम इसकी शुरूआत समाज के सबसे निचले तबके से करें। मध्यम वर्ग और निम्न वर्ग के अधिकांश लोग बेटी-बहू को लेकर आज भी वही सदियों पुरानी सोच रखते हैं। बचपन से लेकर आज तक हम किसी-न-किसी पूर्वाग्रह से जूझते रहे हैं। ये पूर्वाग्रह हमारे ऊपर ऐसे मंडराते रहता है, जैसे कोई ग्रहण। फिर एक समय के बाद यह ग्रहण एक महिला की पूरी जिन्दगी को अमावस्या के अंधेरे में डूबो देता है।
लड़की के जन्म से ही कई पूर्वाग्रह हावी हो जाता है। लड़की है तो इसे ये करना चाहिए, ये नहीं करना चाहिए, ये पहनना चाहिए, ये नहीं पहनना चाहिए, ऐसे बोलना चाहिए, ऐसें नहीं बोलना चाहिए, ऐसे हंसना चाहिए, ऐसे चलना चाहिए आदि। एक पूरी-की-पूरी आचार संहिता महिलाओं के लिए समाज ने तैयार कर रखा है। कभी-कभी तो ऐसा लगता है कि देश के संविधान में भी उतने नियम-कानून नहीं होंगे, जितने समाज में महिलाओं के लिए है। जिन महिलाओं द्वारा इसे नहीं अपनाया जाता है, समाज उन्हें चरित्रहीन, संस्कारहीन करार दे देता है। यह सिलसिला यहीं नहीं खत्म हो जाता है। पूर्वाग्रह तो यहाँ तक है कि महिलाओं को अपने बारे में सोचना छोड़कर अपने पिता, पति, प्रेमी, सास-ससुर और बच्चों के लिए सोचना और उनके लिए ही जीवन को समर्पित कर देना ही उनका सबसे बड़ा उद्देश्य होना चाहिए।
आज महिलायें भले ही घर की चारदीवारी से निकलकर अधिकांश क्षेत्रों में अपना लोहा मनवा रही हैं, लेकिन उनका प्रतिनिधित्व आज भी नाम मात्र है। पूर्वाग्रह की हद तो तब हो जाती है, जब एक महिला की संपूर्णता माँ बनने में ही आंका जाता है। एक लड़की के जन्म के साथ ही उसके माँ-बाप को उसकी शादी की चिंता सताने लगती है और वह जैसे ही थोड़ी बड़ी होती है तो यह चिंता पड़ोसी और रिश्तेदारों को ज्यादा होने लगती है। फिर जैसे ही शादी हो जाती है, कुछ महीनों के भीतर ही बच्चे के बारे में पूछा जाने लगता है। साल भर तक बच्चा नहीं हुआ तब तो पूरे मोहल्ले और रिश्तेदारों के लिए यह सबसे हॉट टॉपिक बन जाता है। महिलाओं को बार-बार यही कहा जाने लगता है कि यदि तुम माँ नहीं बन पाओगी तो तुम्हारा महिला होना निरर्थक है। एक महिला तो तब पूर्ण होती है, जब वह माँ बनती है। भले ही कोई महिला कितनी भी कामयाब हो, लेकिन ऐसी सोच के सामने उसकी सफलता का कोई महत्व नहीं होता।
एक ही माँ के गर्भ से जन्मे बेटे-बेटियों को भी असमानता आजीवन झेलनी पड़ती है। बेटियों को संपत्ति का कानूनी अधिकार दिया गया है। लेकिन अधिकांश माता-पिता, भाई यह कतई नहीं चाहते कि उनकी संपत्ति पर बेटी या बहन को हिस्सा मिले या फिर बेटियां भी संपत्ति पर किसी तरह का कोई दावा करें। यदि कोई महिला पैतृक संपत्ति पर दावा करती भी है तो उसे हमेशा गलत नजरिये से ही देखा जाता है। उन्हें खरी-खोटी सुनाया जाता है। शादी के बाद मायके के लिए अधिकांश बेटियां आज भी बोझ बन जाती है। मायके से उसके सारे अधिकार खत्म कर दिए जाते हैं। बेटियां माँ-बाप के लिए कितनी भी जिम्मेदारियां निभा ले लेकिन आज भी खानदान का वंश बेटों को ही माना जाता है, भले ही बेटे कितने ही नालायक क्यों न हो।
वर्ल्ड इकोनॉमिक फोरम द्वारा जारी वर्ष 2021 के ग्लोबल जेंडर गैप इंडेक्स की बात करें तो भारत 156 देशों की सूची में 140 नंबर पर आता है। यह आंकड़ा लैंगिक असमानता की पुष्टि स्पष्ट तौर पर तो करता ही है, साथ ही महिलाओं के संघर्ष और प्रतिनिधित्व को भी उजागर कर देता है। जिस समानता की बात महिला दिवस के थीम के माध्यम से की जा रही है, वह तब तक समाज में संभव नहीं हो सकता है, जब तक लोगों की सोच में महिलाओं को लेकर परिवर्तन नहीं होगा।
यह परिवर्तन तब मुमकिन है, जब सदियों से चले आ रहे पूर्वाग्रह की जंजीरों को हम तोड़ दें। महिला दिवस काफी लंबे समय से मनाया जा रहा है, लेकिन हर बार ऐसा लगता है जैसे यह दिवस सिर्फ एक उत्सव की तरह सीमित होकर रह गया हो। इस दिवस का जो मुख्य उद्देश्य है आज भी कहीं गुम है। इसके बारे में अधिकांश मुख्य धारा से जुड़ी महिलायें ही जानकारी रखती हैं। ग्रामीण भारत या फिर निम्न और मध्यम वर्ग की महिलाओं को न तो इस दिवस की कोई जानकारी है और न ही इससे कोई सरोकार।
महिलायें सुबह से शाम तक निस्वार्थ भाव से घर गृहस्थी को संभालती है, किन्तु महत्व सिर्फ पुरुषों, खासतौर पर पैसे कमाने वाले पुरूषों को ही मिलता है। महिलाओं का दिन भर का काम बेकार माना जाता है। वहीं यदि पुरूष घर के कामों में थोड़ा भी हाथ बटा दे, तो उसे महिमामंडित किया जाने लगता है।
कार्यस्थल हो या घर या फिर कोई अन्य जगह महिलाओं के प्रति नजरिया बहुत नहीं बदला है। तमाम संघर्ष और बलिदान के बाद भी महिलायें व्यंग्य के केंद्र में बनी रहती हैं। आज भी महिलाओं और पुरूषों को समान काम के लिए समान वेतन अधिकांश स्थानों पर नहीं दिया जाता है। चाइल्ड केयर लीव लेकर बच्चों को पालने की जिम्मेदारी महिलाओं पर ही थोंपी गई है। मीडिया भी उन्हें इस तरह प्रस्तुत करता है, जैसे सिर्फ वे भोग की वस्तु हो।
यदि पूर्वाग्रहों को तोड़कर समानता की बीज बोनी है तो सामाजिक सोच को बदलना तो होगा ही। इसके अलावा सरकार को भी इस दिशा में सार्थक कदम उठाने होंगे। सिक्किम सरकार ने सभी गैर-कामकाजी महिलाओं को ‘आमा योजना’ के तहत 20,000 रूपये की सालाना मदद देने का निर्णय लिया है। ये उन सभी घरेलू महिलाओं के लिए एक महत्वपूर्ण कदम होगा, जिन्हें घर समाज इसलिए इज्जत नहीं देता क्योंकि वे आर्थिक रूप से दूसरे पर निर्भर होती हैं।
सरकार द्वारा उठाए जाने वाले ऐसे कदम भी लैंगिक असमानता को पाटने का काम कर सकता है। सरकार चाइल्ड केयर लीव लेने का अधिकार माता-पिता की स्वेच्छा पर छोड़े। सिर्फ महिलाओं पर ऐसी जिम्मेदारी को लादना, महिलाओं की सफलता में बाधा पैदा करने जैसा है। साथ ही समान काम के लिए समान मेहनताना अथवा वेतन न देना दंडनीय अपराध की श्रेणी में लाया जाना चाहिए। महिला शिक्षा पर भी विशेष रूप से जोर देना चाहिए। ऐसे कदम लैंगिक असमानता को पाटने में सार्थक सिद्ध हो सकते हैं।