आवश्यक है ‘गणतन्त्र’ की घर वापसी
पचहत्तर वर्षीय आज़ादी का यशस्वी गौरव, मरते-जीते योद्धा, क्रांति के नायकों का मेला, जश्न मनाते भारतीय और फिर इसके साथ लगभग दो वर्ष, ग्यारह माह और अट्ठारह दिन में तैयार हुआ एक ऐसा मसौदा, जिसने इस राष्ट्र की आज़ादी को नियमानुसार अनुशासित कर दिया और जिसके आलोक में आज भी भारतीय स्वयं को आज़ाद भारत का नागरिक कहते हुए गौरवान्वित भी है और स्वच्छंदता का अधिकारी भी। यही वो दस्तावेज़ बना, जिसने भारत के नागरिक को भारत का नागरिक होना बताया तथा कर्त्तव्यों के साथ अधिकारों को सौंपा भी।
बहत्तर वर्ष पहले 299 सदस्यों ने मिलकर जिस सम विधान यानी संविधान का निर्माण किया, उसी की देन है कि हम आज आज़ादी की साँस भी ले पा रहे हैं और आने वाली पीढ़ी भी ख़ुद को आज़ाद कह पाएगी। उन्हीं 395 अनुच्छेद, 8 अनुसूचियाँ और 22 भागों में विभाजित संविधान, जिसमें 72 वर्ष में हम उतने ही अनुच्छेद के साथ महज़ 25 भागों में बाँट कर 12 अनुसूचियों तक आगे बढ़े, शेष जस के तस हैं।
क़ानून की किताब जिसके आलोक में ख़ुद के अस्तित्व को संवारती है, उस किताब को भारत का संविधान कहते हैं, जिसमें गण यानी जनता को कर्त्तव्यों के साथ अधिकार भी दिए। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में बनी संविधान निर्मात्री सभा के द्वारा तैयार उस मसौदे को डॉ. भीमराव अंबेडकर वैसे तो 26 नवम्बर 1950 को सौंप चुके थे पर इसे लागू करने में 26 जनवरी 1951 आ गया। अंततः इस राष्ट्र को अपना संविधान मिल गया और हम गणतंत्रीय गौरव के अधिकारी हो गए।
आज बहत्तर वर्ष बीत गए, कहानी में कई क़िरदार नए आए, क़िस्सागोई हुई, मसौदे आए, विधान और प्रधान भी बदले, कभी संसद में हंगामे भी हुए तो कभी हल्ला बोल भी, जनता ने सड़के नापी तो कभी जंतर-मंतर पर धरने और प्रदर्शन भी। बीते साल किसानों को सड़कों पर उतरते भी देखा और फिर सरकार को झुकते-समझते भी देखा, यहाँ तक कि पाँच सौ साल से यथावत राम मंदिर समस्या का हल होते भी देखा, ये सभी कुछ हो पाया तो उसी संविधान प्रदत्त शक्तियों के कारण ही अन्यथा सब निरर्थक रहता।
आज संवैधानिक शक्तियों के प्रभाव के बावजूद भी गण यानी जनता कहीं न कहीं प्रशासनिक मौन की शिकार हो रही है, वह क़ानूनों में बदलाव चाहती है, एक देश एक विधान तो संभव हो गया पर अब संविधान की शक्तियों के पैनेपन की आवश्यकता चाहती है।
वैसे भी जनता का सड़कों पर उतर जाना राष्ट्र के लिए आंतरिक विखण्डन का कारण बन सकता है। राष्ट्र के निवासियों की बगावत राष्ट्रधर्मिता के अस्तित्व पर संकट के काले बादल समान है। याद कीजिए 15 जून 1975 का दिन, जब पटना के गाँधी मैदान से एक जय प्रकाश सत्ता की मनमानी के विरुद्ध हुँकार भरते हैं और फिर बिगुल बज जाता है सम्पूर्ण क्रांति का। जे.पी की घोषणा थी कि ‘भ्रष्टाचार मिटाना, बेरोज़गारी दूर करना, शिक्षा में क्रांति लाना, आदि ऐसी चीज़े हैं, जो आज की व्यवस्था से पूरी नहीं हो सकतीं; क्योंकि वे इस व्यवस्था की ही उपज हैं। वे तभी पूरी हो सकती हैं, जब सम्पूर्ण व्यवस्था बदल दी जाए और सम्पूर्ण व्यवस्था के परिवर्तन के लिए क्रांति, ’सम्पूर्ण क्रांति’ आवश्यक है।’ इस सम्पूर्ण क्रांति ने जयप्रकाश को लोकनायक बना दिया।
सम्पूर्ण क्रांति की तपिश इतनी भयानक थी कि उसने इंदिरा गाँधी की सत्ता को केन्द्र से उखाड़ दिया। कुल मिलाकर कहने का अभिप्रायः यही है कि जनता की बगावत सत्ता के लिए भारी पड़ती है। इसी साफ़गोई से हुई सैंकड़ों क्रांतियाँ इस बात की गवाह भी हैं कि राष्ट्र अब नायकों के भरोसे नहीं बल्कि जनता की मर्ज़ी से भी चलना चाहता है। गणतंत्रीय गरिमा के पर्व पर गण और तन्त्र कहीं बिखरे-बिखरे नज़र आ रहे हैं, वास्ता इतना चाहते हैं कि गण और तन्त्र एक सुर से संगीत का आलाप लें और राष्ट्र विखण्डन या गृह कलह से दूर असल विकास की ओर देखे। राष्ट्र के निवासियों में राष्ट्रधर्मिता तो कूट-कूट कर भरी हुई है, बस उसे दिशा की ज़रूरत है। और यह दिशा भी किसी नायक के कारण नहीं बल्कि जनतन्त्र की स्थापना से स्थापित होगी।
एक देश-एक विधान और एक प्रधान तो धारा 370 के हटते ही हो गया पर अभी भी ‘एक देश-एक भाषा’ का स्वप्न अधूरा है। यहाँ तक कि एक भाषा के होने में जो बड़ा रोड़ा है, वह उन राज्यों के लिए ही घातक है जो इसका विरोध कर रहे हैं क्योंकि किसी भी राज्य की आय का बड़ा हिस्सा पर्यटन से आता है और भाषाओं की विभिन्नता और अप्रासंगिकता के साथ-साथ हिन्दी की अवहेलना के चलते उन राज्यों से हिन्दीभाषी पर्यटक कन्नी काटते हैं, जिससे पर्यटन से आने वाली आमदा कम है। यदि इस राष्ट्र में हिन्दी को राष्ट्रभाषा बना दिया जाए तो देश के 67 प्रतिशत लोगों की एक भाषा होने से समरूपता बढ़ेगी और यह राष्ट्र की प्रगति का आधार बनेगा। इसी के साथ, हिन्दी जानने-समझने और बोलने वालों के रोज़गार, कामकाज उपलब्धता में अभिवृद्धि होगी।
भाषा के बाद इस राष्ट्र के संविधान में कुछ मसौदे, अनुसूचियाँ और क़ानून निश्चित तौर पर कम असरकारक और अप्रासंगिक हैं, उनमें भी बदलाव की आवश्यकता है।
राष्ट्र की प्रगति में प्रत्येक वर्ग की सहभागिता और योगदान है, इसी को ध्यान में रखते हुए क़ानून की समरूपता और अनिवार्यता अति आवश्यक है। बहत्तर वर्षीय संवैधानिक आयु के बावजूद इस राष्ट्र की प्रगति के चक्कों की चाल धीमी है, जिसमें बल और गति दोनों की आवश्यकता अनिवार्य है। सरकार कई आईं, कई प्रधान बदले और हर सरकार के कामकाज के तौर तरीके, वीज़न और विचारधाराओं में भिन्नता रही किन्तु सब मिलकर भी इस राष्ट्र की गति को सबलता कम ही दे पाए। इसीलिए वर्तमान में अब जनता मुखर होकर बोल रही है, सड़कों पर उतर रही है, हंगामे और धरने कर रही है।
इस समय जनता को भी मूल्यागत तरीकों से अपने अधिकारों के लिए लड़ना पड़ रहा है। अब आवश्यकता है नीति मसौदे बदलने की और विकास आधारित गणनाओं को स्थान देने की।
सांस्कृतिक समन्वय के साथ सरकारों को उद्योग नीतियों की तरफ़ ध्यान देना भी अनिवार्य है क्योंकि सम्पदा सम्पन्न राष्ट्र की अर्थव्यवस्था का आधार राष्ट्र के उद्योग-व्यापार हैं। बीते 10 वर्षों में नोटबन्दी, जीएसटी अनुपालन के साथ-साथ कोरोना जैसी वैश्विक महामारी के दौरान लागू विश्वबंदी यानी लॉक डाउन ने उद्योगों और स्थानीय रोज़गार-व्यापार धन्धों की कमर तोड़ रखी है। सरकार ने आर्थिक राहत पैकेज तो उपलब्ध करवाए पर यह कड़वा सच है कि उन पैकेज के मूल में कर्ज़ प्रवृत्ति का विकास हुआ है और अर्थव्यवस्था कर्ज़ से मज़बूत नहीं होती बल्कि व्यापार मुनाफ़े से मज़बूत होती है। इस समय देश के रोज़गार-धन्धों के लिए भी सरल क़ानून व्यवस्था की आवश्यकता अधिक है।
इसी के साथ, देश के लोगों की सेहत, स्वास्थ्य और सुरक्षा का मसला भी उतना ही आवश्यक है जितनी अन्य चीज़ें। व्यक्ति जीयेगा तभी तो राष्ट्र का निर्माण करेगा, उत्थान करेगा और इसी से राष्ट्र की उन्नति होगी। वैश्विक महामारी ने राष्ट्र की प्रगति को धीमा कर दिया है, पर इससे उभरने के लिए सरकार को कड़ाई से नीति निर्धारण करना होगा। यह गर्व की बात है कि भारत ने कोरोना से निपटने के लिए अपनी वैक्सीन बनाई और सौ करोड़ से अधिक लोगों को उसके डोज़ लगवा भी दिए, जिससे कोरोना से होने वाली मृत्युदर कम हुई, इसके लिए सरकार और तमाम अधिकारी, वैज्ञानिक और चिकित्सकों के साथ-साथ समाजसेवी भी बधाई के पात्र हैं, जिन्होंने मेहनत करके भारतीयों को जागरुक भी किया। सरकारी तन्त्र बधाई का पात्र है।
नायक इस बात पर गर्व कर सकते हैं कि भारत ने टीकाकरण अभियान को सफल बना दिया पर सनद रहे स्वास्थ्य व्यवस्थाएँ वेंटिलेटर पर हैं, ऑक्सीज़न की कमी से मरते लोग, दवाओं की कालाबाज़ारी की शिकार जनता और अस्पतालों के अभाव में आदमी से लाश बन गए मरीज़ भी देश भूला नहीं है। चिंता और चिंतन की मानसिकता के साथ संविधान प्रदत्त शक्तियों का प्रयोग करके हम गणतन्त्र को असल जनतन्त्र में तब्दील कर सकते हैं।
बहरहाल, इस समय चिंताओं के दौर में कई सकारात्मक बदलाव इस राष्ट्र को देखने हैं और जनता अपेक्षा के सिवा कर भी क्या सकती है! नीति निर्धारकों से मानवीयता की अपेक्षा करना बेईमानी नहीं बल्कि राष्ट्र धर्म है। वर्तमान नीति निर्धारक मानवीय दृष्टिकोण अपनाते हुए गणतंत्रीय गरिमा का गौरव गान करें, देश को महज़ जनसमूही शोर न मानते हुए प्रजा मानें, जिसके सुख-दुःख में उपलब्ध और उपस्थित रहना राजा का धर्म है।
संविधान के लागू होने के बाद राष्ट्र में हुए तमाम चुनावों के घोषणा पत्र उठा कर देख लीजिए, उन घोषणापत्रों में वही सब लिखा हुआ रहा, जो संविधान ने राष्ट्र के नागरिकों के लिए अनिवार्य बताया। यहाँ तक कि तमाम पंचवर्षीय योजनाओं और नीतियों में वही सम्मिलित है, जो इस राष्ट्र के निवासियों को मिलना ही चाहिए, फिर भी उसका प्रचार और प्रोपगंडा किया गया। पर अब बदलाव अपेक्षित है, राष्ट्र प्रगति चाहता है और प्रगति का आधार राष्ट्र के लोगों की अनिवार्य आवश्यकताओं की पूर्ति के साथ-साथ कर्त्तव्यबोधता की स्थापना है। यक़ीन जानिए राष्ट्र निवासी सहयोग भी करेंगे और हम फिर भारत की तेज़ गति से उन्नति के साक्षी बनेंगे।