विचार प्रधान लेखों की संग्रहणीय पुस्तक
साहित्य और जीवन-विवेक : डा मुक्तेश्वर नाथ तिवारी
हिन्दी साहित्य को समझने के लिए कुछ अच्छी पुस्तकों में एक है आनन्द प्रकाशन, कोलकाता से पिछले साल प्रकाशित मुक्तेश्वर नाथ तिवारी की ‘साहित्य और जीवन-विवेक’ नाम के बीस समीक्षात्मक लेखों का संग्रह। हिन्दी के जाने-माने आलोचक प्रोफेसर रविभूषण को समर्पित इस पुस्तक में लेखक ने मुक्तिबोध को उद्धृत करते हुए पुस्तक के शीर्षक के सम्बन्ध में यह स्पष्ट करना चाहा है कि “साहित्य का पुनरीक्षण जीवन-विवेक के विकास के रूप में किया जाये।”
अपनी ‘विज्ञप्ति’ में लेखक लिखता है-“अनेक भावात्मकता के साथ हिन्दी का आधुनिक साहित्य क्रमशः जीवनक्षेत्र को भावक्षेत्र से मिलाता,जीवन के विकास-क्रम को मापता और जीवन-विवेक को जगाता चल रहा है।” लेखक का यह तर्क पुस्तक में संकलित लेखों का अध्ययन करने के बाद युक्तियुक्त साबित हो जाता है। हिन्दी साहित्य के प्रतिनिधि रचनाकारों के छुए-अनछुए रचनात्मक सरोकारों को तटस्थता से व्याख्यायित करते इस संग्रह के लेख सुधी साहित्य मर्मज्ञों के अलावा हिन्दी साहित्य के अनुसन्धित्सुओं के लिए भी उपयोगी हैं।
मेरी दृष्टि से इस संग्रह के लेखों का सबसे आकर्षक पहलू है इनकी संक्षिप्तता व संश्लिष्टता। लेखक ने अज्ञेय,त्रिलोचन,मुक्तिबोध एवं केदारनाथ सिंह के काव्यात्मक अवदानों का बारीकी से मूल्यांकन करते हुए ‘छायावाद’ की उपलब्धियों को भी सजगता से रेखांकित किया है और प्रेमचन्द, निराला, जयशंकर प्रसाद, महादेवी वर्मा एवं फणीश्वर नाथ रेणु की रचनात्मक विचारधाराओं का भी सूक्ष्म पर्यवेक्षण कर कुछ अलक्षित बिन्दुओं को भी समेट कर अपनी मुकम्मल समीक्षा-दृष्टि प्रस्तुत की है। मुक्तेश्वर नाथ तिवारी शान्तिनिकेतन के हिन्दी विभागाध्यक्ष हैं और साहित्य के विभिन्न विषयों पर इनकी कुछ और पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं।
पहले लेख ‘अज्ञेय:सबसे पहले शब्द’ में लेखक ने अज्ञेय की कविता को ‘उत्तर संरचना’ की पूर्व पीठिका के रूप में समझने की आवश्यकता पर बल दिया है जबकि ‘मुक्तिबोध का आलोचनात्मक विवेक’ एवं ‘मुक्तिबोध और यशराज’ जैसे लेख मुक्तिबोध की बहुस्तरीय रचना-प्रक्रिया के ‘जीवन-निरीक्षण’ को समझने में सहायक हैं। ‘त्रिलोचन की पारिस्थितिकी’ में त्रिलोचन की यायावरी प्रकृति के आलोक में उनके धरती से जुड़े होने की महती विशेषता का पारदर्शी विश्लेषण करते हुए यह स्पष्ट किया गया है कि ‘उनकी कविता प्रकृति से संवादी’ है।
लेखक ने धूमिल को याद करते हुए उन्हें ‘कविता में मुनासिब कार्रवाई’ करने वाला बताया है,”तथ्यों का इजहार करने के लिए धूमिल एक समुत्सुक कवि-व्यक्तित्व का नाम है।” अपने समर्थन में लेखक ने काशीनाथ सिंह के उपन्यास ‘काशी का अस्सी’ की पंक्तियों का उल्लेख किया है,” धूमिल काव्यद्रोहियों के लिए परशुराम था और उसकी जीभ फरसा ! अस्सी से धूमिल क्या गया,जैसे आँगन से बेटी विदा हो गई। घर सूना और उदास।” यहाँ धूमिल को ‘परदे में छिपे रहस्य का बेधड़क पर्दाफाश’ करने वाला कवि बताया गया है।
समीक्ष्य संग्रह में केदारनाथ सिंह की कविता में अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाओं के विभिन्न आयामों को उद्घाटित करने हेतु चार लेख संकलित हैं-‘केदारनाथ सिंह:हाशिये पर की प्रतिबद्धता’, ‘केदारनाथ सिंह:एक प्राश्निक कवि’, केदारनाथ सिंह : पुनश्च :प्राकृतिक उपादान’ एवं ‘यह पृथ्वी रहेगी’। इन चारों लेखों को पढ़ने के बाद आम आदमी के कवि के रूप में केदारनाथ सिंह की प्रतिष्ठा को रूपांकित करते हुए लेखक ने चिह्नित किया है कि “मूल्यवत्तापूर्ण जिजीविषा धारित करते हुए केदार के पात्र जीवन में सकारात्मक ऊर्जा से भरे होते हैं” इसके साथ ही वृद्ध-वृद्धाओं के प्रति कवि की प्रतिबद्धता के ‘मर्मान्तक विमर्श’ के प्रति पाठकों का ध्यानाकर्षण करते हुए बूढ़े के निवेदन सम्बन्धी कवि की इन पंक्तियों को उद्धृत किया है- “मेरे ईश्वर !/क्या मेरे लिए इतना भी नहीं कर सकते/कि इस ठंढ से अकड़े हुए शहर को बदल दो/एक जलती हुई बोरसी में !” लेखक ने ऐसे विमर्श से सम्बन्धित उनकी कई कविताओं का हवाला दिया है।
केदारनाथ सिंह को लेखक ने समकालीन परिदृश्य में धरती की सर्वाधिक चिन्ता करने वाला कवि माना है-“पुल / पृथ्वी के सारे के सारे पुल / एक गहरा षड्यन्त्र है नदियों के खिलाफ/ और नदियाँ उन्हें इस तरह बर्दाश्त करती हैं/ जैसे कैदी जंजीरों को।” इस तरह की कविताओं के कई दृष्टान्त प्रस्तुत कर मुक्तेश्वर जी ने कवि की रचनात्मक विराटता को समझाने की सफल कोशिश की है और स्पष्ट किया है कि केदार ने ‘जन के जीवन विवेक’ को जगाए रखने का भरपूर प्रयास किया है।
इसके अतिरिक्त हिन्दू मिथकों में व्याप्त प्रश्नाकुलता की परम्परा से जोड़ते हुए केदारनाथ को भी लेखक ने ‘प्राश्निक कवि’ माना है- “पूछो/क्योंकि पूछने से जिन्दा रहती है भाषा”, “पूछो/ चाहे जितनी बार पूछना पड़े/चाहे पूछने में जितनी तकलीफ हो/मगर पूछो/पूछो कि गाड़ी अभी कितनी लेट है।” इस लेख में केदारनाथ को गम्भीर स्वप्नद्रष्टा सिद्ध करते हुए लेखक कहता है-“केदार जी की कविता के सतत पाठ से मनुष्य और उसके गैर ढाँचागत कुनियोजित विकास से पृथ्वी के सम्भावित क्षरण के खतरों का संज्ञान होता है।”
केदारनाथ पर के चौथे लेख में लेखक ने कवि के नरेतर उपादानों की विस्तृत व्याख्या करते हुए उन्हें वृहत्तर अथवा चराचर का कवि माना है-“देखो, उस दढ़ियल बरगद को देखो/मुझे देखा /तो कैसा लपका चला आ रहा है/मेरी तरफ/पर अफसोस/कि चाय के लिए/मैं उसे घर नहीं ले जा सकता।” इसमें लेखक ने हिन्दी साहित्य के कई मूर्धन्य साहित्यकारों का उल्लेख करते हुए केदारनाथ की महत्ता को स्थापित करते हुए लक्ष्य किया है- “केदार जी ने मान लिया है कि ‘यह बाजारों का समय है’और कि बाजार में ‘धूल’ और ‘जनता’ दोनों को साफ कर दिया गया है।” तिवारी जी मानते हैं कि केदारनाथ की चिन्ता धरती को बचाए रखने की है और इसके लिए वे प्रतिबद्ध हैं कि गन्धवह से धरती का लय टूटने न पाये। प्रकृति अपना सन्तुलन बनाये रखने के लिए भरपूर प्रयास करती है, कर रही है, किन्तु इसके लिए कवियों-कलाकारों को जिम्मेवारी लेनी होगी।
संग्रह में नारी की सामाजिक अस्मिता से सम्बन्धित दो लेख हैं। ‘स्त्री और समकालीन हिन्दी कविता’ में 1998 में प्रकाशित उदय प्रकाश का कविता-संग्रह ‘रात में हारमोनियम’, हेमन्त कुकरेती का ‘नया बस्ता’ एवं विनोद कुमार शुक्ल का ‘कविता से लम्बी कविता’ के अलावा निराला, महादेवी, प्रसाद, पन्त, साहिर लुधियानवी एवं दिनकर जैसे कवियों के दृष्टिकोणों के आलोक में यह लक्षित किया गया है कि हमारे समाज में औरतों को वास्तविक मालिकाना अधिकार प्रदत्त नहीं किया गया तथा आधुनिक युग में नारी द्वारा हक प्राप्त करने की प्रतिबद्धता के कारण स्त्री-समाज को कई प्रकार के जोखिमों का सामना करना पड़ रहा है।
केदारनाथ की नारी सम्बन्धी दृष्टि के बारे में भी लेखक ने लिखा है-“केदारनाथ सिंह की धरणा में स्त्री कौन कहे,कोई भी मादा सृष्टि प्रथमतया नमस्य है।” दूसरे लेख ‘मैला आँचल के कथा भाग में स्त्री’ में लेखक ने रेणु के नारी सम्बन्धी विचारों को पाठकों के समक्ष रखा है। लेखक स्वीकारता है कि “ ‘मैला आँचल’ यदि पन्त की ‘भारत माता’ शीर्षक कविता से प्रेरित कोई शीर्षक है तो हीनावस्था की ओर लेखक फणीश्वरनाथ रेणु की उठी हुई तर्जनी समग्र भारतवंशी स्त्रियों की तरफ भी है।” इस लेख में रेणु द्वारा वर्णित भारतीय नारी-समाज की इसी हीनावस्था को लेखक ने परत-दर-परत उधेड़ कर प्रस्तुत किया है, जो यौक्तिक होने के कारण सहज पठनीय है और भविष्य के चिन्तन के लिए उकसाने वाली है।
हिन्दी साहित्य के ‘जीवन विवेक’ को उद्घाटित करने की गरज से आलोच्य संग्रह में जहाँ प्रेमचन्द और निराला की पूँजी सम्बन्धी कल्याणकारी दृष्टिकोण को प्रस्तुत करने के लिए ‘कल्याणकारी पूँजी : प्रेमचन्द और निराला जैसा शोधात्मक लेख है, वहीं जयशंकर प्रसाद और भीष्म साहनी के कथात्मक अवदानों को रेखांकित करते ‘जयशंकर प्रसाद : कहानियों का प्रदेय’ एवं ‘भीष्म साहनी की कहानियाँ : एकतान मामूलीपन’ जैसे लेख भी संगृहीत हैं। लेखक ने कथाकार प्रसाद के साहित्य में ‘निरन्न जनता की पीड़ा’ को समझा है और भीष्म साहनी के कथा-साहित्य में ‘बनते-ढहते मनुष्य का क्रमिक लेखा-जोखा’ को महसूस किया है। साहनी जी का आम आदमी भय,असुरक्षा और सन्देह में घिरा होने के बावजूद भी हर्ष-पुलक के अधीन है।
लेखक ने प्रसाद और साहनी की कथा-सृष्टि को समग्रता में परखने की सफल कोशिश की है। ‘रामचन्द्र शुक्ल : देशबद्ध मनुष्यत्व’ में लेखक ने शुक्ल जी के सम्बन्ध में बँधी-बँधाई धारणाओं के उलट उनके प्रकृति सम्बन्धी दृष्टिकोण को व्याख्यायित करते हुए यह सिद्ध करने का प्रयास किया है कि शुक्ल जी की दृष्टि में ‘देशबद्ध मनुष्यत्व’ ही देश-प्रेम का पर्याय है और प्रकृति के मुकम्मल ज्ञान के बिना देश-प्रेम सन्देहास्पद ही है। जबकि ‘छायावाद के सौ वर्ष’ में पाश्चात्य एवं पौरस्त्य समीक्षा शैली के आलोक में छायावाद के अवदानों का मूल्यांकन किया गया है।
लेखक ने हिन्दी साहित्य में चल रहे ‘दलित प्रश्न’ पर भी अपने बेबाक विचार प्रस्तुत किए हैं। वे मानते हैं कि ‘हिन्दी में दलित साहित्य लेखन अभी आन्दोलनात्मक’ दौर से गुजर रहा है। उन्होंने इस सोच पर चिन्ता जाहिर की है कि अभी दलित साहित्य लेखन को केवल दलित लेखकों से ही जोड़ने की आजमाइश चल रही है, जबकि गैर दलित लेखकों ने भी दलितों पर ईमानदारी से लिखा है।इसी तारतम्य में लेखक ने ‘नामवर सिंह और साहित्य की सर्जनात्मकता’ में नामवर जी को ‘अटल प्रहरी’ के रूप में मानते हुए यह साबित किया है कि “ नामवर जी ने ‘सृजनशीलता’ को साहित्य मात्र की कसौटी के रूप में पेश किया ; कवि एवं कथाकारों की सृजनशीलता में फरक दिखाया।”
समीक्ष्य संग्रह में महादेवी वर्मा के अवदानों को विशेष नजरिए से मूल्यांकित करते हुए ‘महादेवी वर्मा : संस्कृति बनाम प्रकृति’ नामक लेख है। इसमें लेखक ने महादेवी जी के संस्कृति विमर्श पर प्रकाश डालते हुए यह लक्ष्य किया है कि “भारतीय संश्लिष्ट प्रकृति ही भारत की समन्वयवादी संस्कृति की निर्मात्री है। भारतीय भूगोल और भारतीय प्रकृति को जाने बिना,भारतीय संस्कृति को जानना असंभव है।” महादेवी जी के इस व्यापक दृष्टिकोण को इस लेख में विस्तार से प्रस्तुत किया गया है।
महादेवी वर्मा पर लेखक की एक स्वतन्त्र पुस्तक ‘महादेवी के साहित्य के गद्यपर्व’ भी प्रकाशित है। पुस्तक के अन्तिम निबन्ध ‘देरीदा और बार्थ के प्रस्ताव’ थोड़ा बोझिल और गूढ होते हुए भी वर्तमान साहित्यिक लेखन में दोनों दार्शनिकों के विचारों के महत्व को समझाने में सफल साबित हुआ है। ‘उत्तर संरचनावाद’ इन दोनों विचारकों की ऐसी देन के रूप में दुनिया भर में प्रचारित हुआ कि संरचना और उत्तर संरचना के दर्शन के आधार पर साहित्यिक विधाएँ अपना गन्तव्य तलाशने लगीं। लेखक ने इस छोटे-से लेख में ‘उत्तर संरचनावाद’ का सटीक विश्लेषण किया है। समग्र रूप में ‘साहित्य और जीवन-विवेक’ नामक पुस्तक सुधी पाठकों एवं साहित्य-मर्मज्ञों के लिए एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।