सिनेमा
ओटीटी को ‘बड़ा पर्दा’ बनता देखने की कहानी है ‘शेरनी’
अमित मसूरकर यानि नयी पीढ़ी का सफलतम निर्देशक
चालीस की उम्र में आप किसी को बूढ़ा नही कह सकते तो युवा भी नही, इंसान की समझदारी अपने पूर्व अनुभवों से उस समय शीर्ष पर होती है। वही समझदारी अमित मसूरकर ने ‘शेरनी’ बनाते हुए दिखाई है, जिस वज़ह से यह उनकी ‘न्यूटन’ के बाद भारत की तरफ़ से ऑस्कर के लिए जाने वाली दूसरी फ़िल्म बन सकती है।
कलाकारी का स्तर
निर्देशक तो सिर्फ़ फ़िल्म बनाता है पर उसे निभा कर दर्शकों के सामने लाने का काम कलाकारों का होता है। यह जरूरी नही कि बॉलीवुड के खान ही फ़िल्मों को अच्छे से निभा पाएं, वैसे भी अब उनका जमाना जाता दिख रहा है। ‘डर्टी पिक्चर’ और ‘भूल-भुलैया’ के बाद विद्या बालन अपनी कलाकारी को इस फ़िल्म में एक अलग ही श्रेणी में ले गई हैं और उनका बखूबी साथ निभाते नज़र आते हैं विजय राज। ब्रिजेन्द्र काला और शरत सक्सेना के साथ नीरज काबी भी अपने अभिनय से छाप छोड़ जाते हैं।
फ़िल्म की पृष्ठभूमि
फ़िल्म का नाम शेरनी सुन ऐसा लगता है कि विद्या ने ऐसे किसी दमदार चरित्र का किरदार निभाया होगा जो खलनायकों से लड़ते फ़िल्म ख़त्म करता है पर यहां फ़िल्म की शेरनी एक टी टू नाम की मादा बाघ है जो आदमखोर बन जाती है। उत्तराखंड निवासी होने की वज़ह से मैंने बचपन से आदमखोर बाघ के बारे में सुना है और उन्हें हमेशा पिशाच की तरह ही माना ,जो छोटे बच्चों से लेकर बड़े किसी को भी अपना शिकार बनाने से नही चूकते। फिर उनका शिकार करने एक नामी शिकारी को बुलाया जाता है जो इन बेजुबानों को या तो हमेशा के लिए मौत की नींद सुला देते हैं या किसी चिड़ियाघर भेज देते हैं।
अगर यह बेज़ुबान किसी न्यायालय में अपनी पैरवी करते तो इस तंत्र से जुड़े न जाने कितने लोग अपनी लंगोट संभालते दिखते, पहली बार किसी भारतीय फ़िल्म ने हिंदी सिनेमा के मूल कर्त्तव्य को निभाते इन्हीं बेजुबानों की पैरवी करने का प्रयास किया है। फ़िल्म वन विभाग से जुड़े कर्मचारी, अधिकारियों के आधिकारिक और निजी जीवन में आने वाली परेशानियों से भी रूबरू करवाती है।
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सत्ताधारी विधायक और पूर्व विधायकों का इस घटना से फायदा उठाना जंगलों और ग्रामीणों के बीच बढ़ते राजनीतिक प्रभाव को दिखाता है। पशु चराने की जगह ख़त्म होने की बात से जंगलों पर ग्रामीणों के अधिकार कम होने की समस्या को दर्शाया गया है तो जंगल में सड़क, खनन और अवैध कब्ज़ा वहां माफियाओं के अधिकारों में बढ़ोतरी को सामने लाता है।
ध्वनि, चित्र, संवाद
फ़िल्म का एकमात्र गीत ‘बंदरबांट’ भी जंगल की यही कहानी बताने का प्रयास करता है। ‘आप जंगल में जाएंगे तो टाइगर आपको एक बार दिखेगा पर टाइगर ने आपको 99 बार देख लिया’, ‘टाइगर है तभी तो जंगल, जंगल है तभी बारिश, बारिश तभी इंसान’, जैसे संवाद आपको जंगल घुमाते फ़िल्म देखने के लिए बांधे रखते हैं।
हॉलीवुड की बहुत सी फिल्में अंधेरे में शुरू होती है और अंधेरे में ही ख़त्म, शेरनी भी जंगल में फिल्माई गई है। जंगल की हरियाली अपनी ओर आकर्षित करती है, फ़िल्म के सारे दृश्य अच्छे दिखते हैं और अच्छे कोण से भी फिल्माए गए हैं। जंगल में घूमते आपको जैसी ध्वनि सुनाई देती है , ठीक वैसी ही आप फ़िल्म देखते भी सुन सकते हैं।
फ़िल्म करेगी ओटीटी पर आने के लिए गम्भीरता से सोचने पर मज़बूर
कोरोना काल में बड़े-बड़े कलाकारों की फिल्में रुकी हैं, फिल्मकारों को सिनेमाघरों के खुलने का इंतज़ार है। सिनेमाघर मोबाइल पर इंटरनेट आने के बाद से ही घाटे में चल रहे हैं, दर्शक पहले ही ओटीटी पर मनोरंजक सामग्री देखने लगे थे जो अब उसी की आदि हो गए हैं। जमाना ओटीटी का हो गया है यह बात फिल्मकारों को जितनी जल्दी समझ आए वो अच्छा। ‘शेरनी’ की सफलता शायद अब ओटीटी को ही बड़ा बना दे।